संस्कार एवं पर्वों का विधान सिखाने के शिविर

February 1966

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सुसंस्कृत जीवन ही मनुष्य जन्म की सार्थकता है। कुसंस्कारी व्यक्ति तो धरती के लिये भार और अपने आप के लिये अभिशाप ही है। यह संसार तथाकथित स्वर्ग से भी अधिक मनोरम हो उठे, यदि यहाँ लोगों के विचार और कार्य सुसंस्कृत ढाँचे में ढल जायें। यह एक ही आवश्यकता ऐसी है, जिस पर व्यक्ति और समाज की सर्वांगीण सुख-शान्ति निर्भर है।

तत्वदर्शी ऋषियों ने धर्म एवं अध्यात्म का विशालकाय कलेवर एक ही उद्देश्य लेकर खड़ा किया है कि मानव प्राणी के ऊपर जन्म-जन्मान्तरों से चढ़े हुए कुसंस्कार दूर हों और उनके स्थान पर सुसंस्कृत आदर्शों, सिद्धान्तों, मान्यताओं, भावनाओं एवं प्रवृत्तियों का विकास हो सके। पूजा, उपासना, जप, तप, कथा, वार्ता, सत्संग, स्वाध्याय, विधि निषेध एवं कर्म-काण्डों का विस्तृत विधि-विधान केवल इसी प्रयोजन के लिए है कि इस अवलम्बन को अपनाकर व्यक्ति निरन्तर सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनता चला जाय। कषाय-कल्मषों का परिशोधन ही हो। स्वर्ग, मुक्ति एवं ईश्वर-साक्षात्कार का यह एक मात्र साधन हो सकता है। हमारा सारा धार्मिक कलेवर इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए है।

सर्वसाधारण के मानसिक, चारित्रिक एवं भावनात्मक विकास के लिए एक सर्वांग सुन्दर विधान ‘संस्कारों’ का है। हिन्दू-धर्म की यह अनुपम विधि-व्यवस्था उसे लाखों-करोड़ों वर्षों तक विश्व का मुकुट-मणि बनाये रखने में समर्थ रही है। हमारे पूर्वज इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे कि जहाँ व्यक्ति के आन्तरिक विकास के लिए शिक्षण चिन्तन, साधन एवं वातावरण की श्रेष्ठता अपेक्षित है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि एक भावनात्मक एवं प्रेरणात्मक धर्म-परम्परा का प्रचलन हो। विशेष वातावरण में विशेष उद्देश्य के लिए, विशेष विधि-विधानों का प्रभाव भी विशेष ही पड़ता है। वेद-मन्त्रों की अद्भुत शक्ति, यज्ञ आदि वैज्ञानिक शक्ति सम्पुटों का सान्निध्य एवं धर्मानुष्ठानों का समारोह सम्बन्धित लोगों पर ऐसा अदृश्य प्रभाव छोड़ता है कि व्यक्तियों के अन्तःकरण का विकास स्वल्प प्रयत्न से भी ऊर्ध्वगामी होता चला जाता है। यह संस्कारों की विधिव्यवस्था वैज्ञानिक, भावनात्मक एवं प्रशिक्षण की दृष्टि से इतनी प्रभावशाली है कि उसका सत्य परिणाम लाखों वर्षों तक प्राप्त करते रहने के अनुभव को ध्यान में रखा जाय तो किसी प्रकार के अविश्वास या सन्देह की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।

व्यक्ति और परिवार को सुसंस्कृत बनाने के लिए पुँसवन, नामकरण, अन्न-प्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ आदि का अत्यधिक महत्व है। इसी प्रकार समाज को सामूहिक रूप से सुसंस्कृत बनाने के लिये श्रावणी, पितृ-अमावस्या, विजया-दशमी, दिवाली, बसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली आदि पर्वों की विधि-व्यवस्था ऐसी प्रेरणाप्रद है कि यदि ठीक रीति से मनाया जाय तो नैतिक गुणों का समाज में आशाजनक बाहुल्य बना रहे। व्यक्ति और समाज का सुसंस्कारित होना इतनी महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि अन्य समस्त अभावों के रहते हुए भी केवल इसी एक आधार पर, इस धरती पर स्वर्ग का अवतरण दृष्टिगोचर होता रह सकता है।

खेद है कि आज षोडश संस्कार पंडित-पुरोहितों की थोड़ी-बहुत आजीविका के साधन और जन-साधारण की प्रथा-परम्परा की पूर्ति के मात्र साधन बने हुए हैं, उनमें से प्राण-प्रेरणा और प्रशिक्षण का तत्व ही एक प्रकार से चला गया। इसी प्रकार पर्व-त्यौहार भी पकवान-मिष्ठान्न खाने और मकान-कपड़े आदि सजाने की लकीर मात्र पीटने से पूरे हो जाते हैं, कोई ऐसा सामूहिक कार्यक्रम नहीं रहता, जिससे समाज में नई चेतना, स्फूर्ति एवं निष्ठा का प्राणवान संचार हो। अपनी इन संस्कार एवं पर्वों की महान परम्पराओं को खोकर आज हम मणि हीन सर्प की तरह निस्तेज एवं अवसादग्रस्त हो रहे हैं।

नव-निर्माण की इस पुण्य-बेला में हमें जहाँ अन्य अनेक रचनात्मक कार्यक्रम अपनाने हैं, वहाँ संस्कार एवं पर्वों को मनाने की प्रेरणाप्रद पद्धति को भी पुनर्जीवित करना है। इस दिशा में उपेक्षा बरतने से काम न चलेगा। जन-जागरण के लिये यह दोनों ही अवलम्बन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ के सदस्यों को बार-बार बहुत जोर देकर यह कहा जा रहा है कि वे अपने घर-परिवार में, शाखा समाज में संस्कार एवं पर्वों को प्रेरणाप्रद ढंग से मनाने की प्रथा को पूरे उत्साह एवं मनोयोग के साथ आरम्भ करें।

संस्कार एवं पर्व मनाने की पद्धति अब अपेक्षाकृत और भी अधिक सरल बना दी गई है। इसके लिये सस्ते,छोटे-छोटे ट्रैक्ट प्रत्येक पर्व संस्कार को मनाने के लिये अलग से छाप दिये गये हैं। गायत्री-तपोभूमि में होने वाले शिविरों में यह विधि-विधान हर बार सिखाया जाता है। आगामी जेष्ठ में होने वाले शिविर में भी यह विधान सिखाया जायगा, पर सारे समाज में इन महान् परम्पराओं को पुनः प्रचलित करने के लिये इतना ही पर्याप्त न होगा, वरन् इससे भी अधिक बड़ा काम उठाना होगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अब ऐसा सोचा गया है कि जगह-जगह संस्कार एवं पर्वों को मनाने की विधि-व्यवस्था का प्रशिक्षण देने के लिये जगह-जगह शिविर किये जायें, जिनमें शाखाओं के उत्साही कार्यकर्त्ता एवं उस क्षेत्र के पंडित-पुरोहित का कार्य करने वाले इन विधानों को भली प्रकार सीख सकें। विधानों के साथ-साथ भाषण एवं व्याख्या करते हुए जन-जीवन में नव-चेतना उत्पन्न करने के प्रयोजन को भी पूरा कर सकें।

शिविर चार दिन के लिये रहें। दो दिन में संस्कार और दो दिन में पर्व मनाने का पूरा विधान सिखा दिया जाय। इसके लिये प्रशिक्षण कर्त्ता मथुरा से भेजे जावेंगे। शिविरों की अवस्था शाखाएं स्वयं करेंगी। जिन शाखाओं में ऐसा उत्साह हो उन्हें अपने यहाँ ऐसे शिविरों की व्यवस्था करनी चाहिए। अभी आमंत्रण माँगे जा रहे हैं, माँग इकट्ठी हो जाने पर वह क्रम बिठाया जायगा कि किन तारीखों में कहाँ शिविर रखा जाय। एक क्षेत्र में एक शृंखला से शिक्षण कर्त्ता चलेंगे, तभी सुविधा रहेगी। इसलिये जहाँ आवश्यकता समझी जाय, वहाँ से आमंत्रण अभी से आने चाहियें। जेष्ठ शिविर के बाद तुरन्त ही शिविरों की शृंखला आरंभ हो जायगी, इसलिये कार्यक्रम जल्दी ही बनाये जाने हैं और इसके लिये निमंत्रण भी जल्दी ही आने चाहियें।


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