पांडिचेरी की विश्व-विख्यात संस्था जो मनुष्य को आत्म-संयम द्वारा आन्तरिक क्रियाओं से ईश्वर के साक्षात्कार का सन्देश तथा प्रेरणा प्रदान करती है उसके जनक श्री अरविन्द घोष थे। वे अरविन्द घोष जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को साधना में लगाकर, संसार के सारे सुख-साधनों को त्यागकर विश्व-मानवता के कल्याण के लिये उत्सर्ग कर दिया।
इनका जन्म 15 अगस्त सन् 1872 ई. को कलकत्ते में श्री कृष्ण धन घोष के आत्मज के रूप में हुआ। श्री कृष्णधन घोष पाश्चात्य सभ्यता के पक्षपाती ही नहीं अन्ध भक्त थे, और उस समय की अपनी परिस्थितियों के अनुसार उन्हें वैसा होना ही चाहिये था। वे सिविल सर्जन थे और अंग्रेज सरकार के एक उच्च पद पर काम करते थे।
अपने परिवार को पूर्णतया साहबी रंग में रंग देने के मन्तव्य से उन्होंने अपने पुत्र अरविन्द घोष को सात साल की अवस्था में इंग्लैंड में पढ़ने तथा रहने के लिये भेज दिया था। जहाँ वह एक अँग्रेज परिवार में रहकर सेंट-पाल स्कूल में ही शिक्षा पाने लगे। कुछ सयाने होने पर बाद में वे सेंटपाल स्कूल के छात्रावास में ही रहने लगे।
प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर आई.सी.एस. के प्रथम खंड तक वे इंग्लैंड में ही शिक्षा पाते रहे। उनके पिता को पूरी आशा थी कि उनका पुत्र अवश्य ही आई. सी. एस. पास करके एक प्रसिद्ध कलेक्टर अथवा डिप्टी कलेक्टर बनकर उनकी तरह ही वैभवपूर्ण जीवन में प्रवेश करेगा। किन्तु पिता की यह इच्छा सफल न हो सकी।
श्री अरविन्द घोष जिस समय आई. सी. एस. के दूसरे खण्ड की तैयारी कर रहे थे, उस समय कुछ ऐसा कटु अनुभव हुआ कि उन्होंने उक्त परीक्षा देने का विचार छोड़ दिया, और भारत वापसी की तैयारी कर ली। उसी समय इंग्लैंड में उनका परिचय महाराज बड़ौदा से हुआ। महाराज बड़ौदा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपने राज्य के एक उच्च पद पर नियुक्त कर लिया और जहाँ से कुछ समय बाद बड़ौदा कालेज के वायस-प्रिंसीपल के पद पर चले गये।
बड़ौदा में रहते हुये उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया और लगभग समग्र भारतीय साहित्य का अध्ययन किया। अपने इस विशाल अध्ययन ने उनके नेत्र खोल दिये और उन्होंने भारतीय साहित्य के वैभव को पहचाना। जिन अरविन्द घोष को उनके पिता पाश्चात्य रंग में रंग कर साहब बनाना चाहते थे, उन्हें भारत के महान एवं तत्व ज्ञानपूर्ण साहित्य ने प्रभावित कर विशुद्ध भारतीय तथा देशभक्त बना दिया।
जिस समय तक श्री अरविन्द घोष इंग्लैंड में रहकर अँग्रेजी, फ्रेंच तथा लैटिन भाषा के साहित्य का अध्ययन करते रहे तब तक ऐसा अनुभव करते रहे कि संसार में उन साहित्यों से बढ़कर ज्ञानपूर्ण साहित्य कहीं नहीं है, और भारतीय साहित्य को तो वे दिमागी कूड़ा-करकट ही समझते थे और उसके अध्ययन का विचार तक मस्तिष्क में नहीं लाते थे। किन्तु जब पाश्च्त्य साहित्य के पूर्ण पंडित होने पर उन्होंने बड़ौदा में भारतीय साहित्य पढ़ा, उसके शास्त्रों को अध्ययन किया तब तो वे ऐसे प्रसन्न हो उठे मानो अन्धकार में भटकते-भटकते सहसा दिन के प्रकाश में आ गये, और एक बार जो अध्ययन किया तो तब तक न छोड़ा जब तक कि उसकी तह तक पहुँच ईश्वर प्राप्ति के लिये जिज्ञासु नहीं हो उठे।
जिस भारतीय साहित्य को भारत के महान ऋषियों, मुनियों एवं मनीषियों ने जीवन की पराकाष्ठा तक निःस्पृह एवं पवित्र रखकर संसार को कोलाहल से दूर अरण्यों में बैठकर मानव-कल्याण के उत्तम ध्येय से लिखा है, उसका अध्येता यदि इस सीमा तक प्रभावित एवं प्रसन्न हो उठे तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है भारतीय साहित्य किसी मनुष्य को तभी तक दुरूह, दरिद्र, निरर्थक अथवा निरुपयोगी मालूम होता है जब तक वह उसे दूर-दूर रहकर उड़ती नजर से देखता है, पर ज्यों-ज्यों वह उसके निकट आता जाता है वह उत्तरोत्तर आकर्षक और ज्यों-ज्यों वह उसमें डुबकी लगाता जाता है वह उसके लिये जीवन रहस्यों एवं शाश्वत सत्यों का विधान बनता जाता है। जो इसमें जिस सीमा तक डूबता है उसी स्तर के रत्न लेकर निकलता है।
श्री अरविन्द घोष के साथ भी यही बात घटित हुई। उन्होंने भारतीय साहित्य का अध्ययन क्या किया, एक नई और सच्ची जिंदगी पा ली। उनकी इस नई जिंदगी की झलक उनके अनेक उन पत्रों से मिल सकती है जो उन्होंने बड़ौदा से अपनी नव विवाहिता पत्नी को लिखे थे। जिनका आशय प्रायः इसी प्रकार का होता था—’मैं एक पागल हूँ, और मेरी पागलपन की तरंगों में से जो तीन तरंगें मुख्य हैं उनमें से एक यह कि संसार की सारी सम्पत्ति उस परमात्मा की है। दूसरी यह कि मैं परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिये व्यग्र हूँ और पूर्ण आशान्वित हूँ कि मैं उसके दर्शन पाकर रहूँगा, और तीसरी यह कि मैं अपने देश की भूमि उसके पहाड़, नदियों तथा वनों को मात्र भौगोलिक सत्ता नहीं मानता बल्कि समस्त जड़-चेतन प्रकृति को माता मानता हूँ और उसी अनुसार उसकी पूजा उपासना करता हूँ।
श्री अरविन्द के यह दार्शनिक विचार स्पष्ट प्रकट करते हैं कि वे प्रोफेसरी के एक सामान्य जीवन क्रम को चलाते हुए आत्मोन्नति के किस स्तर पर पहुँचे हुये थे। किन्तु उस स्तर से उतर कर उन्हें कर्तव्य के कठोर धरातल पर आते देर न लगी, जब माता रूप मातृभूमि बंग के भंग का षड़यन्त्र उनके काम में पड़ा। योग की ओर बढ़ता हुआ माई का लाल कर्तव्य योगी बन गया।
जब मातृ भूमि पर संकट आया हुआ हो, आन पर आ रही हो और गौरव पर प्रतिकूलता के काले बादल छा रहे हों उस समय योग को बलिदान अध्यात्म स्वाभिमान में बदल जाता है। जिस देश के तरुण इस परिवर्तन को ठीक-ठीक समझ लेते हैं और उसी के अनुसार अपनी जीवनधारा मोड़ देते हैं उनका ही मानव-जीवन सार्थक और उनकी ही मातृभूमि मानव-भेड़ियों से निरापद रहा करती है।
बंग-भंग की भेरी बजी और श्री अरविन्द घोष ने बड़ौदा कालेज के वाइस प्रिंसिपल पद से त्याग-पत्र दे दिया। कहाँ महाराज बड़ौदा की कृपापात्रता पूर्ण कालेज की सम्मानित प्रिंसिपली की सुख-सुविधा और कहाँ मातृ भूमि की रक्षा के लिये बलिदान पथ के काँटे, कितना अन्तर है दोनों जीवनों में, किन्तु कौन नहीं जानता कि वास्तविक सुख और आत्मा का आनन्द कहाँ पर है। और कहाँ है जीवन की वह वास्तविकता जिसे पाने के लिये योगी संसार से निस्पृह होकर आत्म-निष्ठ हो जाता है और एक वीर बिजली की तरह चमकती हुई कृपाण को कण्ठ से लगा लेता है। मातृभूमि के विरुद्ध चल रही किसी दुरभिसंधि के मिटाने देने में आत्म लाभ करने की अपेक्षा आत्म-त्याग, आत्मोत्सर्ग तथा आत्म-बलिदान एक बड़ा पुण्य, एक महान उत्कर्ष और एक वास्तविक अध्यात्म है।
बड़ौदा कालेज की भारी वेतन की प्रिंसीपली छोड़कर अरविन्द घोष ने कलकत्ता के नेशनल कालेज में प्रिंसीपली का पद अवैतनिक के तुल्य ही नाम मात्र का वेतन लेकर इसलिये स्वीकार किया कि वे वहाँ से देश की वैज्ञानिक सेवा कर सकेंगे। राष्ट्र रक्षा के लिये दीवानों का, अपना खून-पसीना एक करके निर्माण कर सकेंगे। इस सेवा के अतिरिक्त उन्होंने ब्रिटिश राज्य के लिये दहकते हुये उल्का पिंड की तरह ‘वंदे मातरम्’ नामक एक पत्र भी निकाला जिससे भयभीत होकर विदेशी शासन ने उन्हें कानून का बहाना लेकर एक वर्ष के लिये कारागार भेज दिया। जिसका उस कर्मयोगी ने सीमान्त लाभ उठाया और कारागार की एकान्त साधना में ईश्वरीय अनुभूति प्राप्त कर ली और इस सत्य का अन्वेषण कर लिया कि किसी संघर्ष को लड़ने के लिये बाह्य साधन उतने उपयोगी तथा आवश्यक नहीं है जितना कि आन्तरिक बल। कारागार के दण्ड के कल्याणकारी परिणाम को बतलाते हुए उन्होंने स्वयं एक स्थान पर कहा था। “ब्रिटिश सरकार का कोप भाजन बनकर मैं ईश्वर का अनुग्रह पात्र बन गया जिसके फलस्वरूप मैंने अंतस्थ ईश्वर को प्राप्त कर लिया है। उनके कथन के पीछे निश्चय ही यह तथ्य छिपा हुआ है कि मातृभूमि के प्रति उनकी बलिदान भावना की तीव्रता ही उन्हें अपनी आत्मा में ईश्वर रूप होकर अनुभव हुई थी।
इस एक बड़े तथ्य को पाकर जब वे जेल से बाहर आये तो यह संकल्प लेकर निकले कि वे अपनी समग्र मानवीय शक्तियों को आत्मा में एकीभूत करके अनन्त अन्तःशक्ति को मातृ-भूमि की रक्षा में नियोजित करेंगे और उसी की सहायता से देश के बलिदानी वीरों को शक्ति मत्ता प्रदान करेंगे।
साथ ही उनका विश्वास था कि अँग्रेजों जैसे आधि-भौतिक शत्रुओं से निपटने के लिये भारत माता की गोद में असंख्यों लाल हैं। उसका एक पुत्र भौमिक संघर्ष से विरत होकर शत्रुओं के हृदयस्थ उन असुरों से युद्ध छेड़ेगा जो उन्हें अनुचित करने के लिये न केवल प्रेरित ही करते हैं अपितु शक्ति भी प्रदान करते हैं, और मार भगायेगा राष्ट्र वीरों के हृदय से उन वंचकों को जो स्वार्थ, स्पृहा और भीरुता आदि के कुटुम्बी होते हैं और बलिदानियों के बढ़ते हुये चरणों को मोह की जंजीरों में जकड़कर अवरुद्ध कर सकते हैं।
उनका कहना था कि मैं राष्ट्रीय संघर्ष को केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता तक ही नहीं देख रहा हूँ बल्कि देख रहा हूँ उस क्षेत्र तक, जहाँ आचरण के बीज फलने आवश्यक हैं। जहाँ राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिये दूसरे प्रयत्न कर रहे असंख्यों संघर्षरत हैं वहाँ मैं वैचारिक मुक्ति के लिये अकेले ही अप्रत्यक्ष युद्ध करूंगा।
निदान वे ब्रिटिश भारत की सीमा से बाहर पांडिचेरी में आकर साधना करने लगे। वे जिस सनातन आध्यात्मिकता को भारत के उज्ज्वल भविष्य का कारणभूत आधार मानते थे उसे ही सिद्ध करने में लग गये। श्री अरविन्द 4 मार्च 1910 को आये तो केवल अकेले ही किन्तु शीघ्र ही एक से अनेक होने लगे और उनका छोटा-सा साधना कुटीर एक बड़े आश्रम के रूप में बदलने लगा। शीघ्र ही पांडिचेरी आध्यात्मिक अस्त्रों की एक यन्त्र शाला बन गई।
इधर भारतीय वीर स्वाधीनता संग्राम में जूझने लगे और उधर पांडिचेरी से उनकी आत्मा में आध्यात्मिक शक्ति की कुमुक आने लगी। इस प्रकार अन्दर और बाहर से एक साथ मार पड़ते ही भारत के कारण उदय-अस्त तक फैला हुआ अँग्रेजी साम्राज्य डगमगाने लगा और शीघ्र ही वह दिन आया कि उस आन्तरिक भार से भयभीत हुए अँग्रेज न केवल भारत से ही भागे बल्कि संसार से अपना माया जाल समेटते नजर आने लगे। कहना न होगा कि प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष मार अधिक भयानक होती है।
उनकी जन्म तिथि पर भारत स्वतन्त्र हुआ और अब वह सदा स्वतन्त्र ही रहेगा, किन्तु कौन कह सकता है कि भारत की इस सफलता तथा आगे की वहबूदी में श्री अरविन्द घोष का यह गुप्त योगदान हजारों, लाखों सशस्त्र सैनिकों से बढ़कर था।
यद्यपि योगी अरविन्द आज देश में नहीं हैं, किन्तु उनका वह अमर पांडिचेरी आश्रम सदैव ही उनकी याद दिलाता रहेगा जहाँ बैठकर उन्होंने आत्म-कल्याण के लिए नहीं राष्ट्र-कल्याण के लिए तप किया था, योग साधना की थी।