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February 1966

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परदुःखानुभूति से दुःख निवृत्ति

दुनिया में सभी दुःखी हैं। कुछ अपने दुःख से और कुछ दूसरों के दुःख से। किन्तु यदि तात्विक दृष्टि से देखा जाये तो अपने अभाव और कष्टों से दुःखी होने वाला ही दुःखी है, दूसरे के दुःख से दुःखी होने वाला नहीं। दूसरे के दुःख से दुःखी होने वाले में एक आत्म-सुख होता है। एक मार्मिक अनुभूति रहती है। उसकी आहों में हरा-भरा सावन और आँसुओं में शीतल गंगा लहराती है। स्वार्थ-जन्य दुःख यदि विषैले काँटे हैं तो परार्थ-जन्य दुःख सुविकसित सुमन।

जिस प्रकार एक छोटी बात से हटकर किसी बड़ी बात की ओर ध्यान चले जाने से छोटी बात विस्मृत हो जाती है उसी प्रकार जब मनुष्य की निजी दुःखानुभूति पर-दुःखानुभाविका बन जाती है तब उसके नारकीय पीड़ा देने वाले सारे दुःखों का तिरोधान हो जाता है। अपने से निकलकर औरों की ओर बढ़ना ही सुख की सबसे सरल एवं सच्ची साधना है। —महर्षि रमण


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