आज का मानव-समुदाय देश, धर्म, जाति, वर्ण, पंथ, सम्प्रदाय, भाषा व प्रदेश आदि के आधार पर टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरा हुआ है। एक ही परमात्मा के पुत्र और एक ही धरती-माता की सन्तानों के बीच यह बिखराव बड़े खेद का विषय है। किन्तु इससे भी अधिक खेद का विषय यह है कि मानव-समुदाय की यह टूट-फूट भयानक रक्त-पात का कारण बनती है।
पिछले हजारों वर्षों से इसी टूट-फूट के कारण क्या योरूप, क्या एशिया, क्या अमेरिका और क्या अफ्रीका आदि सारे महाद्वीपों की धरती मनुष्य के रक्त से लाल होती चली आ रही है। साम्प्रदायिक संघर्ष और धर्म के नाम पर होने वाले नर-मेघ ने संसार के सम्पूर्ण मानव समुदाय को बुरी तरह त्रस्त कर दिया है।
यह सही है कि कुछ पिछड़े हुये देशों एवं जातियों को छोड़कर प्रगतिशील देशों और जातियों ने धर्म के नाम पर रक्त -पात बन्द कर दिया है, तो भी उनमें वर्ग-वाद और रंग-वाद के आधार पर संघर्ष चलता रहता है। और किसी न किसी बहाने खून बहता ही रहता है। साथ ही संसार में राष्ट्रवाद का एक ऐसा उन्माद फैल गया है जिसने क्या तो प्रगतिशील और क्या पिछड़े सभी देशों को एक-दूसरे का दुश्मन बना रक्खा है।
संसार के सारे नेता, विचारक एवं शासक मानव-समुदाय की इस टूट-फूट से होने वाली अपरिमित हानियों को देख रहे हैं और अनुभव कर रहे हैं कि संसार में स्थायी सुख-शान्ति के लिये एक विश्ववाद एवं एक मानव-समाज की अनिवार्य आवश्यकता है। किन्तु वे कतिपय कमजोरियों के कारण युग की इस आवश्यकता को पूरा करने के लिये एक स्वर से एक विश्ववाद एवं एक मानव-समाज का सन्देश नहीं दे पा रहे हैं।
मानव-समुदाय की एकता प्रतिपादित करने में जो कमजोरी सबसे अधिक आड़े आ रही है वह है मनुष्यों का अपनी-अपनी मान्यताओं के प्रति पक्षपात अथवा दुराग्रह। मनुष्यों के बीच मान्यताओं के प्रति दुराग्रह पूर्ण पक्षपात की यह जहरीली तलवार इस तरह तनी हुई है कि आवश्यकता होते हुये भी वह उनको एक-दूसरे के समीप नहीं आने दे रही है, और जब तक यह तीव्र तलवार तनी रहेगी संसार में यों ही संघर्ष होता रहेगा और सुख-शान्ति के शुभ-दिन कभी न आ सकेंगे।
मान्यताओं के प्रति पक्षपात मनुष्य की बौद्धिक कमजोरी है जो उसे परम्परागत मिलती है। सुविधा पूर्वक जीवन-यापन के लिये व्यक्तियों, परिस्थितियों एवं देश-काल के अनुरूप जीवन को एक क्रम तथा पद्धति प्रदान करने के लिये समय-समय पर जो नियम निर्माण किये जाते हैं वे चलते-चलते कालान्तर में मान्यताओं का रूप धारण कर लेते हैं।
निसर्ग-नियमों की तरह शाश्वत न होते हुये भी उपयोगिता के अनुसार मानवीय मान्यताओं की एक आयु तो होती ही है और युग, समय अथवा परिस्थितियों के सर्वथा बदल जाने तक उनकी कुछ न कुछ उपयोगिता बनी भी रहती है।
परिवर्तन संसार का अनिवार्य नियम है, किन्तु इसकी गति इतनी मन्थर होती है कि नित्यप्रति होने वाला परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता है। यदि यह धीरे-धीरे होने वाला परिवर्तन क्रम ठीक से दिखाई देता रहे तो उसी अनुपात से मनुष्य अपनी मान्यताएं भी बदलता चले। स्थूल एवं स्पष्ट रूप से दृश्यमान होने में परिवर्तन एक लम्बा समय लेता है। तब तक मनुष्य की मान्यतायें उसके मस्तिष्क में गहरी जड़ पकड़ लेती हैं और तब अपनी उन चिर संगिनियों को उखाड़ फेंकने में एक मोह, एक ममता और एक पीड़ा-सी होने लगती है। चिर संपर्क से ममत्व हो ही जाता है और ममत्व तोड़ते समय पीड़ा होना स्वाभाविक ही है। किन्तु मनुष्य की विवेकशीलता इसी में है कि वह अपने ऐसे किसी ममत्व पर दया न करे जो उसकी वाँछनीय सुख-शान्ति एवं प्रगति में बाधा बनती हो।
मनुष्य जिस समाज, राष्ट्र, वर्ग अथवा वंश में पैदा होता है, परम्परागत उसकी अपनी कुछ मान्यतायें भी होती हैं, जिनको कि किसी समय सुख-सुविधा के अनुसार परिस्थितियों के अनुकूल बनाया गया होता है। अब चूँकि सामाजिक नियम बच्चों के घरौंदों की तरह न तो रोज-रोज बनाये-बिगाड़े जा सकते हैं और न मानव-जीवन क्रम की परिस्थितियाँ ही जल्दी-जल्दी बदलती रहती हैं जिससे कि आज की मान्यताओं की उपयोगिता कल ही खत्म हो जाये। इसलिये उनको काफी समय तक चलते रहने का अवसर मिल जाता है। इसी बीच, जब तक कि सामाजिक जीवन को उपयोगी मोड़ देने के लिये, उपस्थित परिस्थितियों का, अनुपयोगी मान्यतायें बदलने का, तकाजा तेज होता है, वे मानव-मस्तिष्क को इस सीमा तक प्रभावित कर चुकी होती हैं कि वह उनका दुराग्रहपूर्ण पक्षपाती बन जाता है और यही उसकी बौद्धिक कमजोरी है।
साधारण मानव-मस्तिष्क की यह सहज दुर्बलता है कि वह एक बार जिस विचार चक्र पर चढ़ जाता फिर जल्दी उससे उतरना नहीं चाहता। उसे नवीन विचारधारा में उतरते हुए बड़ा अटपटा लगता है। इसीलिये जन्म से जीवन में समाई हुई मान्यताओं को छोड़ने की उसे हिम्मत नहीं होती, और जब कोई उसे उनकी निरुपयोगिता से होने वाली हानियों की ओर संकेत करता हुआ त्यागने का परामर्श देता है तब वह अपनी इस कमजोरी को छिपाने के लिये उनका पक्षपात करने लगता है।
अपनी-अपनी मान्यताओं के प्रति इसी अन्ध पक्षपात के कारण मनुष्य के बीच रक्तपात पूर्ण संघर्ष को स्थान मिलता है। मात्र-मान्यताओं के खण्डन-मण्डन के आधार पर कट-मरना मनुष्य जैसे विवेकशील प्राणी को किसी प्रकार भी शोभा नहीं देता।
अपनी-अपनी मान्यताओं के प्रति संसार में जब सब को ही समान रूप से मोह है और पक्षपात के कारण कोई किसी की आलोचना परामर्श एवं सुझाव सुनना ही नहीं चाहता बल्कि आत्मप्रतिष्ठा और आत्मगौरव के नाम पर दूसरों की अपेक्षा अपनी मान्यताओं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की जिद पकड़े हुये है, तब इस समस्या का समाधान भी आखिर किस प्रकार हो?
इसका केवल एक ही उपाय है। वह यह कि सारा मानव समाज अपनी-अपनी मान्यताओं को निष्पक्षता की तुला पर तोल कर देखे कि उनमें सत्य के साथ मानव-जीवन के लिये कितना लाभकर अंश है। इस कसौटी पर जो-जो मान्यतायें खोटी सिद्ध हों उन्हें सड़ी-गली चीज की तरह तुरन्त त्याग दे। इस प्रकार के त्याग में राष्ट्रीय प्रतिष्ठा अथवा आत्म-गौरव जैसे भावुकतापूर्ण प्रश्न को जोड़ना बुद्धिमानी नहीं है।
बहुत बार हो सकता है कि मोह के कारण किसी को अपनी मूढ़ से मूढ़ मान्यताओं में दोष न दिखाई दे। इसके लिये दूसरों के विवेचन, आलोचना तथा मूल्याँकन को अपने निर्णय में सहायक समझकर तटस्थता की स्थिति में होकर सुनने का साहस रखना चाहिये।
अब चूँकि संसार का सम्पूर्ण जन-साधारण न तो स्वयं निर्णय कर सकता है और न वह उसका उचित अधिकारी ही है। यह काम है विश्व के विचारकों, समाज को नेतृत्व देने वालों और विवेकशील विद्वानों का, जो कि अपनी मानव-जाति के प्रति शुभेच्छा एवं करुणा रखते हों और उसकी सुख-शान्ति का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर समझते हों। परमात्मा ने उनको विशेष विद्या-बुद्धि देकर इसीलिये आगे बढ़ाया है कि इस सृष्टि को नरक बनने से रोकें, और स्वर्ग बनाने का प्रयत्न करें। और जन-साधारण का कर्तव्य है कि वह उनके निर्णय में विश्वास करे और आस्थापूर्वक उसका पालन करे।
जन-साधारण की भाँति भावुक होकर संसार के उत्तरदायी व्यक्तियों का अपनी मूढ़ एवं हानिकारक मान्यताओं का प्रतिपादन करने में अपनी विद्या-बुद्धि का दुरुपयोग करना उसके व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं है। उन्हें चाहिये कि वे निष्पक्ष रूप से विवेक के प्रकाश में बैठ कर आपस में निर्णय करें कि इस विशाल मानव-समुदाय को एक समाज का रूप देने के लिये किन पुरानी मान्यताओं को निकला फेंकना है और कौन-सी नई मान्यताओं को स्थापित करना है? जिनके आधार पर राष्ट्र, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग, वर्ण वाद अथवा जाति-पांति के नाम पर होने वाला संघर्ष सदा सर्वदा के लिये मुँह काला कर जाय और संसार में स्थायी सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ प्रवेश करें।