पाचन-क्रिया स्वास्थ्य का मूल है—इसे ठीक रखिए।

February 1966

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शरीर को शक्ति और उष्णता प्रदान करने का मूल संस्थान पेट है। यह शरीर की सम्पूर्ण गतिविधियों के संचालन का केन्द्र है। डाक्टरों का मत है कि यदि स्वस्थ रहना है तो पेट की क्रिया को ठीक रहने दीजिये। पेट की खराबी ही बीमारी की जड़ और शारीरिक दुर्बलता का प्रमुख कारण है। पेट अपना काम कुशलतापूर्वक पूरा करता चले, किसी प्रकार की गड़बड़ उत्पन्न न करे तो स्वास्थ्य गिर जाने का कोई कारण न होना चाहिए।

पेट की खराबी का तात्पर्य पाचन-क्रिया की गड़बड़ी से है। यह सभी जानते हैं कि जो आहार लिया जाता है, वह मुँह से होकर पेट में पहुँचता है। पेट तक पहुँचने में अन्न में केवल रासायनिक परिवर्तन होता है। अन्न से बने हुए रस से रक्त बनाने और मल या विजातीय द्रव्य बाहर निकालने की क्रिया पेट में ही होती है, इसलिये शरीर के इस पुर्जे की खास निगरानी रखी जानी चाहिए। पाचन-क्रिया बलवान और सशक्त बनी रहे तो शरीर के बलवान बने रहने में कोई सन्देह न होना चाहिए।

आहार हलक से नीचे उतर कर एक लम्बी नलिका से गुजरता हुआ पेट में पहुँचता है। इस बीच में पाँच प्रकार के रस उस आहार को तरल रस के रूप में परिवर्तित कर इस योग्य बनाने का प्रयत्न करते हैं कि वह छोटी आँत में पहुँचते ही सुविधापूर्वक रक्त की मात्रा बनाने लगे और अवशेष मल वहाँ धकेल कर मल द्वार की ओर खिसक जाय। सर्वप्रथम मुँह में चबाने की क्रिया के साथ उसमें लार मिलती है और सूखे पदार्थ को रसदार बनाने में सहयोग देती है, इससे अन्न आगे की क्रिया के लिए बढ़ जाता है। आगे पेट के रस, पित्ताशय से पित्त तथा पाचनक्रिया का रस आकर मिलता है। पाँचवाँ रासायनिक अम्ल छोटी आँतों में मिलता है और इस तरह सेवन किया गया अन्न रस से रक्त बनने के लिये तैयार हो जाता है। यही रक्त हृदय चूसता रहता है। हृदय इसे धमनियों द्वारा सारे शरीर को बाँट देता है। इस तरह शरीर और जीवन की रक्षा होती है। यदि इस क्रिया में कोई गड़बड़ी उत्पन्न होती है और पाचन-क्रिया ठीक काम नहीं करती तो मनुष्य दुर्बल और रोगी बन जाता है।

पाचन क्रिया ठीक-ठीक काम करती रहे, इसके लिये आहार, पाचन पद्धति तथा जीवनचर्या पर निगाह रखनी पड़ेगी। इन तीनों बातों पर पाचन क्रिया निर्भर रहती है। इनमें आवश्यक सावधानी रखी जाय तो पेट ठीक काम करने से इन्कार न करेगा।

आहार शरीर को जीवन प्रदान करता है। उसे स्वस्थ और क्रियाशील रखता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर भोजन करना हमारी सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। पर देखा जाता है कि अक्सर लोगों का दृष्टिकोण गलत होता है। वे स्वाद के लिये, जबान को रुचिकर अन्न बनाने के लिये अधिक नमक, मिर्च, मसाले, तेल, खटाइयाँ आदि मिला लेते हैं। तीखे और कडुए आहार में यह दोष होता है कि वह मुँह में पहुँचते ही जीभ को जलाता है। फलस्वरूप मुँह जल्दी से अध-चबाया अन्न निगल जाता है। आहार के बड़े-बड़े टुकड़े पेट में पहुँच जाने और उसमें पर्याप्त लार न मिल पाने से वह रस कठोर और गुत्थियों दार बना रहता है, जिससे आँतों को रक्त बनाने में कठिनाई आती है और दर्द तथा बेचैनी बढ़ती है। कडुए पदार्थों की तेजी के कारण पेट के रसों का अनावश्यक स्राव हो जाता है। अतः आगे के लिए यह क्रिया मन्द पड़ जाती है और मामूली अन्न को पचाने योग्य भी रस नहीं निकल पाता। अजीर्ण, मन्दाग्नि, भूख का न लगना, पेट में ऐंठन, गन्दी अपान वायु आदि का होना, यह सब अवगुणी आहार के कारण होता है। बासी भोजन, मादक पदार्थ, माँस आदि से भी यही कठिनाई उत्पन्न होती है। इस परेशानी से बचने के लिये लोग दवा-इन्जेक्शनों का प्रयोग करते हैं, उनसे भी पेट की गरिष्ठता और सड़न ही बढ़ती है और लाभ कुछ नहीं होता। तीखी दवाओं का जुलाब भी कारगर नहीं है क्योंकि उसमें भी पाचक रसों को भारी मात्रा में गिरा देने का दोष है।

आहार का चुनाव करने में यह ध्यान होना चाहिए कि वह अधिक से अधिक प्राकृतिक अर्थात् कम से कम भुना या तला हो, हल्का और सुपाच्य हो, मिर्च-मसालों का प्रयोग कम से कम हुआ हो। इस तरह का आहार जो पेट आसानी से पचा ले, वही गुणकारी होता है, भले ही वे कम शक्तिदायक हों। गरिष्ठ पदार्थ जितनी शक्ति नहीं देते, उतना विजातीय पदार्थ इकट्ठा कर पेट को खराब कर डालते हैं।

भूलवश यदि आहार में असावधानी कर ही डालें तो दवायें आदि लेने के बजाय ‘उपवास’ पेट-सुधार का उत्तम साधन होता है। इसमें पेट स्वाभाविक तौर पर साफ होकर जठराग्नि तेज पड़ जाती है और जमा हुआ मल निकल जाता है। उपवास के दरम्यान एनीमा का प्रयोग भी लाभदायक होता है।

आहार से भी महत्वपूर्ण उसे ग्रहण करने की पद्धति है। अन्न के छोटे-छोटे टुकड़े लिये जायें और उन्हें तब तक चबाया जाय, जब तक वे स्वतः ही रस बन कर गले से नीचे न उतर जायें। महात्मा गाँधी एक ग्रास को बीस बार चबाते थे। देर तक मुँह में बने रहने से लार की पर्याप्त मात्रा मिलकर उसे तरल बना देती है।

जबान के स्वाद के लिये बार-बार कुछ न कुछ खाते रहना अपच का कारण बनता है। पेट जब तक पहले खाये हुए आहार को साफ न कर ले, तब तक दूसरा न खाना चाहिए अन्यथा दुबारा पहुँचा हुआ आहार पहले को पचा देगा और अधपचे आहार की गर्त जमा हो जायगी। स्वप्नदोष, अनिद्रा आदि की बीमारियाँ प्रायः इसी कारण से होती हैं। पेट में अनावश्यक दबाव पड़ना स्वास्थ्य के लिये बड़ा घातक होता है। इसका दूषित प्रभाव शरीर और मन दोनों पर पड़ता है। कार्यक्षमता घटती और कमजोरी बढ़ती जाती है।

भूख लगने पर थोड़ा खाना बहुत अच्छा होता है। खाने और पचाने की क्रिया में समझौता बना रहे तो कोई गड़बड़ी पैदा न हो। पेट भूख के रूप में अपनी आवश्यकता खुद जाहिर कर देता है। इससे पहले भोजन करना पाचन-क्रिया को कमजोर बनाता है। तीव्र भूख लगने पर रूखा-सूखा भोजन भी स्वादिष्ट लगता है और उससे शरीर की आवश्यकता भी सरलतापूर्वक पूरी होती है।

हमारी दिनचर्या में एक खास तरह की कमी भी पाचन-क्रिया को प्रभावित करती है। वह है—परिश्रम से जी चुराना। पेट की बीमारी प्रायः आलसी लोगों को होती है। जो लोग भरपूर परिश्रम या व्यायाम करते हैं, उनके पेट के सारे अवयव कार्यक्षम बने रहते हैं। श्रम न करने से पाचनशक्ति मंद होती है, इससे भूख खुलकर नहीं लगती। मनुष्य भोजन बराबर करता रहता है और पेट की खराबी को नियन्त्रण दे बैठता है। खेतों पर तथा कल-कारखानों में श्रम करने वाले मजदूर तथा किसान, आफिस में काम करने वाले बाबुओं की अपेक्षा अधिक शारीरिक व्यायाम करते हैं, अधिक भोजन करते हैं और उनका स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। इसका एक ही कारण है कि श्रम द्वारा माँस-पेशियाँ क्रियाशील रहती हैं, इनका पेट से सम्बन्ध होता है, जिससे पेट की पाचन-क्रिया प्रदीप्त बनी रहती है।

जिन्हें स्वाभाविक श्रम उपलब्ध नहीं होता, उन्हें भी व्यायाम के लिये कुछ न कुछ अवकाश निकालना चाहिए। कसरत-कुश्ती, तैरना, दौड़ना, पेड़ पर चढ़ना, कूदना, टहलना, आसन, प्राणायाम, गायन और वाद्य आदि में से अपनी रुचि तथा अवकाश का कोई कार्यक्रम चुन लेना चाहिए और उसे प्रतिदिन इतने अनुमान से कर लेना चाहिए कि सारे शरीर का व्यायाम हो जाय। व्यायाम से खून में तेजी आती है और उष्णता बढ़ती है। इससे भूख भी कड़ाके की लगती है।

व्यायाम के अतिरिक्त अपनी दिनचर्या इस तरह की रखनी चाहिए, जिससे बाहर की खुली हवा तथा सूर्य की पर्याप्त धूप भी शरीर को मिलती रहे। घुटे हुए वातावरण का प्रभाव भी पेट पर पड़ता है, उसकी पाचन-क्रिया को खराब कर डालता है।

बीमारियाँ बहुत हैं। कई कारण हैं, जिनसे शरीर कमजोर पड़ जाता है, पर एक बात नहीं भूलना चाहिए कि सभी रोगों का मूल कारण केवल पेट की खराबी, पाचन-क्रिया की खराबी है। इसी से तरह-2 की शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। अतः स्वास्थ्य रक्षा के लिए पाचन-क्रिया पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। पेट ठीक काम करता रहे तो शरीर भी ठीक काम करता रहेगा। कोई रोग या बीमारी पास नहीं आयेगी।


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