आत्म-दर्शन
जो जगत से दूर होकर, उसकी उपेक्षा करके आत्मा को देखना चाहेगा वह अहंकार के ही दर्शन करेगा। उसे ही आत्मा समझकर भ्रमित हो जायेगा। यदि एक उठी हुई लहर या व्यक्त हुआ बुलबुला समुद्र से भिन्न अपनी सत्ता में विश्वास करता है तो यह उसकी भूल भर होगी।
आत्मा के दर्शन में जगत को बाधक समझने पर उससे द्वेष रहता है। घृणा की अनुभूति होती है। यह दोनों अवस्थायें आत्मदर्शन के मार्ग में पहाड़ जैसे अवरोध हैं।
किन्तु जो जगत में आत्मा, और आत्मा में जगत का विश्वास रखता है उसका द्वन्द्व-द्वेष मिट जाता है और वह आत्मा ही नहीं मूल-आत्मा परमात्मा तक को देख लेता है।
—स्वामी विवेकानन्द