पारिवारिक बजट बनाकर खर्च कीजिए।

February 1966

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जीवन में सुख की सृष्टि तब होती है, जब वह सुव्यवस्थित एवं संतुलित हो। सामान्यतः मानव-जीवन की व्यवस्था आर्थिक व्यवस्था की अनुगता रहती है। जिसकी आय व्यय में समुचित संतुलन रहेगा, वह स्वभावतः सुखी और संतुष्ट रहेगा। आय-व्यय का संतुलन बना रहना व्यय पर ही अधिक निर्भर रहा करता है। आय तो प्रायः लोगों की सीमित एवं सुनिश्चित रहा करती है। सामान्यतः उसमें कोई अस्त-व्यस्तता अथवा न्यूनाधिक्य नहीं होता। इस प्रकार की अस्त-व्यस्तता की सम्भावना अधिकतर व्यय में ही रहा करती है, क्योंकि यह आय की तरह सुनिश्चित नहीं रहने पाता। इसलिए अर्थ-व्यवस्था लाने और आय-व्यय को सन्तुलित रखने के लिये व्यय को नियन्त्रित करने की अधिक आवश्यकता है।

जिस मनुष्य की आवश्यकतायें जितनी कम होंगी और जितना अधिक वह मितव्ययी होगा उसकी आर्थिक व्यवस्था उतनी ही सुविधाजनक रहेगी। जिसे पैसे की तंगी रहेगी, जिसे अपना काम चलाने के लिये दूसरों के आगे हाथ फैलाने और दाँत निकालने की आवश्यकता होगी, वह सुख-चैन के दर्शन नहीं कर सकता। जो कर्जदार होता है, वह एक प्रकार से पराधीन ही रहता है। देनदार का दैनिक जीवन एक प्रकार से लेनदार के पास रहन हो जाता है। वह जो कुछ कमाता है, अपने ऋण दाता के लिए ही कमाता है। अपनी आय का अधिकाँश भाग उसे कर्ज का सूद-दर-सूद भरते रहने में ही निकालते रहना पड़ता है। इसी आय के रहते हुए जब उसे किन्हीं खर्चों के लिये कर्ज लेना पड़ता है, तब उसी आय-व्यय के रहते वह कर्ज का पैसा कैसे चुका सकता है? फिर कर्ज में केवल मूलधन ही नहीं, ब्याज भी देना होता है। इस प्रकार स्पष्ट है, उन्हीं खर्चों के रहते और आय के बिना बढ़े जो पैसा वह कर्ज अदा करने में निकालेगा, वह तो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति में और भी कम हो जायेगा। इससे कोई ऋणी उऋण होने की बात तो सोचे ही नहीं, बल्कि नये कर्ज के दुर्भाग्य के लिये आशंका करे। यही कारण है कि एक बार कर्ज के चक्र में फँसा मनुष्य कदाचित ही उससे छुटकारा ले पाता है। वैसे प्राय होता यह है कि वह जीवनभर चिंता की ज्वाला के बीच तन, पेट काटकर कर्ज भरता रहता है, तब भी उससे छुटकारा पाये बिना ही परलोक सिधार जाया करता है। इस प्रकार क्या कोई कर्जदार अपने जीवन में कभी सुख-शाँति पा सकता है? नहीं, कदापि नहीं।

इसके विपरीत जो किसी का कर्जदार नहीं है, जिसको किसी का कुछ देना नहीं है, यहाँ तक कि किसी दैनिक आवश्यकता का भी ऋणी नहीं है, वह निश्चिंत होकर सोयेगा, निर्द्वन्द्व होकर विचरेगा। न कभी उसके कान में तकाजे के गर्म शब्द पड़ेंगे, न उसे अपनी मजबूरी के लिए सफाई देनी पड़ेगी और न किसी बहाने के लिये झूठ बोलना पड़ेगा। जो घोड़े की तरह तेज दौड़ने वाले ब्याज की निःशब्द किंतु निश्चित टापों से रौंदा नहीं जाता, उसकी श्वासों में ही सुख-चैन की शीतलता सम्भव हो सकती है। सुखी रहना हो तो कभी किसी के देनदार न बनिये।

अपने सुख-चैन के रक्षार्थ, आर्थिक असुविधा एवं कर्जदारी से सदा-सर्वदा बचे रहने के लिये अपने पारिवारिक आय-व्ययक (बजट) को उचित रूप से मितव्ययिता के साथ बनाकर एक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह जीवन-यापन करना चाहिए। बजट बना लेने पर भी उसके अनुसार चलने में तब तक भी कठिनाई ही बनी रहेगी, जब तक मनुष्य उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार नहीं रहेगा।

मानिये, किसी न अपनी सौ रुपये की आमदनी में से दस रुपये बचत की मद में निकाल कर बाकी नब्बे रुपये महीने के शुरू में ही खर्चों की विविध मदों में बाँट कर बजट बना लिया, किंतु उसके अनुसार निष्ठापूर्वक चलता नहीं है, कभी इस मद का खर्च काट कर उस मद में बढ़ा दिया तो कभी उस मद का इस मद में, तो उसका बजट फेल हो जायेगा और पारिवारिक व्यवस्था सुविधा सम्पन्न न रह सकेगी। जिस सरलता एवं स्निग्धता के लिए उसने बजट बनाया था, वह उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। इसलिए बनाये हुए बजट के प्रति ईमानदार रहना बहुत आवश्यक है। जब तक बजट बन रहा है, तब तक ही उसमें हस्तक्षेप का अपना अधिकार समझिये। पर ज्यों−ही वह एक बार बनकर अंतिम रूप पा जाये, उसका उसी प्रकार पालन करिये, जिस प्रकार शासन-विधान का पालन किया जाता है। निर्माण-काल में बजट आपके अधीन रहता है, बन जाने के बाद आप स्वयं अपने आप को उसके मातहत समझिये।

बजट एक प्रकार से पारिवारिक विधान ही है। इसका निर्माण यथासंभव परिवार के हर बालिग सदस्य को सम्मिलित करके ही करना चाहिए और सर्वसम्मति से पास होना चाहिए। ऐसा संभव हो सकने पर न तो किसी को असंतोष का कारण ही रहेगा और न तब कोई उसका उल्लंघन करने को उद्यत होगा।

प्रगतिशील एवं सुविचारी परिवार अधिकतर अपने बजट इसी प्रकार सर्व सदस्यता की विधि से ही बनाते हैं। इस व्यवहार से परिवार के सभी छोटे-बड़ों में एक उत्तरदायित्वपूर्ण मितव्ययिता का स्वभाव विकसित होगा। परिवार की आर्थिक अवस्था का स्पष्ट ज्ञान रहने से कोई भी सदस्य किसी खर्च की निश्चित सीमा के बाहर जाने में अपनी हीनता समझेगा। यदि कभी कोई नया प्रलोभन उसे लुभायेगा भी तो भी वह संकोच वश उसका प्रस्ताव किये बिना ही अपने अन्दर ही डुबा लेगा और अगले किन्हीं भी प्रलोभनों के प्रति अधिक से अधिक अनाकर्षित रहने में बड़प्पन समझेगा।

इस प्रकार परिमित एवं सर्वसम्मत बजट बनाने और सुविधापूर्वक चलाने के लिये हर अपेक्षाकृत अधिक सयाने सदस्य को अपने से छोटे की सुख-सुविधा का ध्यान रखते हुए प्रत्येक की परिस्थिति एवं आवश्यकताओं के अनुसार व्यय की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसा करने से परिवार के लोगों में एक दूसरे के लिये निःस्वार्थ पूर्ण त्याग की भावना का विकास होगा और जिसने निःस्वार्थ पूर्ण त्याग भावना का सौभाग्य प्राप्त कर लिया उसके लिये तो सुख-शाँति कौड़ी मोल सस्ती हो जाती है।

किसी भी पारिवारिक बजट में सर्वसम्मतता तो एक बार दबाव अथवा प्रभाव से प्राप्त की जा सकती है, किन्तु उसमें सफलता तभी मिलेगी, जब खर्चे की मदों को आवश्यकताओं की अनिवार्यता के अनुसार क्रमिकता दी जायेगी। यदि भोजन, वस्त्र तथा निवास की निताँत अनिवार्य आवश्यकताओं के स्थान पर अल्पावश्यक स्वाद, सुविधा, आमोद-प्रमोद की मदों को प्राथमिकता देकर आय का अधिक भाग दे दिया गया तो कुछ समय के आमोद-प्रमोद अथवा स्वाद सुविधा के बाद सारा परिवार अधिक समय भूखा, नंगा ही रहेगा और इस प्रकार की असहनीय असुविधा की स्थिति में न तो स्वाद के चटखारे याद आयेंगे और न आमोद-प्रमोद के साधन। तन, पेट के नंगा-भूखा रहने पर न तो स्वादों की याद आती है और न किसी प्रकार का हास-विलास ही भाता है। भोजन, वस्त्र की सुविधा के साथ हास-विलास का अभाव तो सहन किया जा सकता है, किंतु हास-विलास की सुविधा होने पर भी अन्न-वस्त्र का अभाव सहन नहीं किया जा सकता। आमोद-प्रमोद और सुविधा-साधनों का नम्बर अन्न-वस्त्र तथा निवास के बाद है।

केवल इन्हीं के बाद नहीं, विलास वस्तुओं का नम्बर और भी दो आवश्यकताओं के बाद आता है। पौष्टिक पदार्थ और जीवन विकास की शिक्षा आदि साधनों के बाद। इसका ठीक-ठीक अर्थ यही है कि पहले पूरे परिवार के लिए अन्न-वस्त्र एवं निवास की व्यवस्था। उसके बाद जो बचे उससे घी, दूध, शाक-सब्जी, फल,मेवे आदि। वे भी पहले-जीवन विकास, शिक्षा आदि की मद पूरी करने के बाद। इसके बाद यदि न रहा जा सके तो आमोद-प्रमोद, शौक, स्वाद की वस्तु का नम्बर है और यदि इनकी उपेक्षा करके अपने स्वास्थ्य एवं शिक्षा आदि जीवन-विकास की व्यवस्था को ही आमोद-प्रमोद मानकर आनंदित रहा जाये तब तो कहना ही क्या आत्माश्रित, अहैतुकं सुख-शाँति अक्षय ही होती है, वह आमोद प्रमोद अथवा सुख साधन के साथ पुरानी नहीं होती, सदा नवीन रहती है। इस अनावश्यक मद का पैसा आपकी बचत मद में जाकर आय के अनुपात से आपकी मुट्ठियाँ भर सकता है।

इस प्रकार यदि वास्तव में आप अपने परिवार के साथ आजीवन अपनी सीमित आय में सानन्द रहना चाहते हैं तो मितव्ययिता के साथ सर्वसम्मति से बचत-व्यय के साथ यथोचित बजट बनाइये और एक सुनिश्चित विधान के साथ उसका पालन करते हुए जीवन-यापन कीजिए।


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