जेष्ठ में मथुरा पधारिए।

February 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

हमारा सारा ध्यान और प्रयत्न इस शीत ऋतु में राष्ट्रीय संकट के समाधान में लग रहा है। सुरक्षा प्रयत्नों को भौतिक दृष्टि से सफल बनाने के लिए आशाजनक और उत्साहवर्धक कार्य हुआ है। आध्यात्मिक दृष्टि से शक्ति-पुरुश्चरण की सफलता के लिए तो और भी अधिक तत्परता से प्रयत्न करना पड़ा है। 10 हजार साधकों द्वारा प्रति मास 24 करोड़ शक्ति बीज समेत गायत्री पुरुश्चरण कराने की योजना असाधारण थी। उसे बहुत अधिक प्रयत्न करके सुव्यवस्थित और सुसंचालित किया जा सका है।

आपत्तिकालीन इस स्थिति और व्यवस्था को देखते हुए सामान्य कार्यक्रमों को स्थगित करना पड़ा। गायत्री-तपोभूमि में मास मास में जो शिविर होना था, वह स्थगित हुआ। हमारा देश-व्यापी दौरा इसी शीत ऋतु में होना था, उसकी तारीखें भी नियत हो चुकी थीं और लोग अपने-अपने यहाँ तैयारी भी करने लगे थे, पर विशेष परिस्थितियों ने उसे भी स्थगित करने के लिए विवश कर दिया।

अब आपत्तिकालीन योजना व्यवस्थित हो जाने से जैसे ही थोड़ा अवकाश मिला है, पुनः सम्पन्न कार्यक्रमों की बात सोचने और करने के लिए स्थिति आ गई है।

अब जेष्ठ का शिविर करने की तैयारी आरम्भ कर दी गई है। किसान, अध्यापक एवं अन्य वर्गों की सुविधा का ध्यान रखते हुए इस वर्ष 20 दिन का शिविर किया जायगा। वह जेष्ठ सुदी पंचमी बुधवार—तदनुसार 25 मई से आरम्भ होकर आषाढ़ कृष्णा दशमी सोमवार तदनुसार 13 जून तक चलेगा। गायत्री-जयन्ती का पुनीत पर्व ता. 29 मई को इसी बीच में आ जायगा। जो गायत्री-प्रेमी गायत्री-जयन्ती पर तपोभूमि में रहना चाहते हैं, उनके लिए भी वैसा सुयोग शिविर के साथ-साथ रहेगा ही।

इन बीस दिनों का विभाजन इस प्रकार है—15 दिन प्रशिक्षण, 4 दिन मथुरा, वृन्दावन,गोकुल, गोवर्धन तथा उनके समीपवर्ती तीर्थ स्थानों की यात्रा, 1 दिन अन्तिम दीक्षान्त-संस्कार समारोह=20 दिन।

15 दिन के प्रशिक्षण में जीवन जीने की कला, उत्कृष्ट जीवन जीने की व्यवहारिक विधि व्यवस्था, संजीवन विद्या का स्वरूप समझाया जायगा और व्यक्तिगत परिस्थितियों के बारे में परामर्श करते हुए उन्हें सुलझाने के हल बताते हुए इस प्रकार का मार्ग दर्शन किया जायगा कि इसी जीवन में स्वर्गीय सुख-शान्ति से भरापूरा जीवन जी सकना सम्भव हो सके। प्रगति का रुका हुआ मार्ग प्रशस्त हो सके। अध्यात्म भी एक महत्वपूर्ण विज्ञान है। विज्ञान की अन्य शाखाओं का उपयोग करने से जब तत्काल सुख-सुविधाएं उत्पन्न करने वाले लाभ मिलते हैं तो कोई कारण नहीं कि अध्यात्म तत्वज्ञान का जीवन क्रम में समावेश करने के उपरान्त तत्काल उल्लास, आनन्द एवं प्रगति समृद्धि का लाभ न मिले। अध्यात्म का लाभ प्राप्त करने के लिए किसी को भी मरकर परलोक जाने तक की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, वह तो नकद धर्म है। ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ का यहाँ खरा सौदा है। प्राचीन काल में भारत-वासियों ने अध्यात्म का अवलम्बन करके अपना लौकिक एवं पारलौकिक उभय-पक्षीय जीवन सुख-शान्ति एवं समृद्धि से परिपूर्ण किया था। आज हम दिग्भ्रान्त होकर अध्यात्म के नाम पर कूड़ा-कबाड़ जैसी जंजाल भरी मान्यताएं पकड़े बैठे हैं, फलस्वरूप बहुत समय और श्रम लगाने पर भी कुछ हाथ नहीं पड़ता। लौकिक जीवन में भी जब शान्ति प्रगति का चिह्न दृष्टिगोचर न हुआ तो परलोक में स्वर्ग मुक्ति की आशा उस आधार पर की भी कैसे जा सकती है?

अध्यात्म का ऋषि प्रणीत, शास्त्र प्रणीत, सनातन पथ-प्रदर्शन करना इन शिक्षण शिविरों का उद्देश्य है। प्राचीन काल में बचपन से लेकर प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करने तक लोग इसी शिक्षा को प्राप्त करने के लिये गुरुकुलों में रहते थे और वहाँ से जो पूँजी कमा कर लाते थे, उसके बल पर वे देवताओं जैसा स्वर्गीय, सुविकसित, सम्पन्न और समृद्ध जीवन जी सकने में सफल होते थे। अब इस अश्रद्धा के युग में न तो वह शिक्षा-प्रणाली रही और न शिक्षार्थियों की अभिरुचि। अतएव लम्बी अवधि तक ऐसी शिक्षा के लिए किसी से कहना तो कठिन है, जिसमें तत्काल आजीविका प्राप्त कर सकने जैसा लाभ न हो, पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि सुविधा के समय अवकाश के थोड़े-से क्षण हमारे पास बिताये जाय और उस जीवन-पथ को सुख-शान्ति की दिशा में प्रशस्त करने वाली शिक्षा की एक झलक, झाँकी का अवलोकन किया जाय।

जेष्ठ का यह बीस दिवसीय शिक्षण शिविर इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है। इसमें हम उन सभी परिजनों को आमन्त्रित करते हैं, जो संजीवन विद्या की शिक्षा का महत्व समझ सके और उसका लाभ लेने के लिए उतना समय निकाल सके। साल में तीन सौ पैंतालीस दिन अपने आजीविका उपार्जन और शरीर यात्रा के कामों में खर्च किये जाते हैं, तो क्या यह उचित न होगा कि बीस दिन इस प्रयोजन में भी लगाये जायं, जो लोक और परलोक में सुख-शान्ति बढ़ाने की आवश्यकता पूर्ण कर सकता है। फिर हमारा व्यक्तिगत रिश्ता भी तो है। दूर परदेश में रहने वाले व्यक्ति छुट्टियों में अपने कुटुम्ब-परिवार वालों से, सम्बन्धी रिश्तेदारों से मिलने जाते हैं। आखिर अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य हमारे भी तो कुटुम्बी, सम्बन्धी हैं, क्या ऐसी दशा में यह उचित न होगा कि वे बीस दिन हमारे पास रहें, हमारे साथ हंसे, खेलें, अपने मन की बात हमसे कहें और हमारे मन की बात सुनें?

इन शिविरों में महिलाओं को भी पुरुषों की तरह ही सानुरोध आमन्त्रित करते हैं। जो लड़के 10-12 वर्ष के हो चुके हैं, वे भी यहाँ के वातावरण से बहुत प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। गोदी के दूध पीते बच्चे जरूर यहाँ अव्यवस्था फैलाते हैं। इसलिये जिनकी गोदी में बहुत छोटे बच्चे नहीं हैं, वे भी प्रसन्नतापूर्वक आवें और बीस दिन इस प्रेरणाप्रद वातावरण में रहकर एक नई स्फूर्ति, नई प्रेरणा लेकर लौटें। लड़कियाँ सदा ससुराल में ही नहीं रहतीं, कुछ दिन वे अपने पिता के यहाँ भी रहती हैं। सावन में तो अक्सर स्त्रियाँ अपने पिता के घर चली जाती हैं। जो हमें अपना पिता समझती हैं, उन्हें बच्चों को शिक्षा का अवकाश रहने की दृष्टि से सुविधा के समय जेष्ठ में हमारे पास रहना चाहिए। यद्यपि इन दिनों गर्मी पड़ती और लू चलती है फिर भी यहाँ जो ज्ञान-गंगा और स्नेह-सौजन्य की धारा बहती है, उसमें स्नान करते रहने से यहाँ सावन जैसा शीतलता भरा अनुभव भी होगा।

ठहरने के लिए तपोभूमि में अब धीरे-धीरे काफी स्थान बन चला है। अपना आटा-दाल साथ लाकर अपने हाथ से बनाने-खाने की व्यवस्था में उतना ही खर्च पड़ता है, जितना अपने घर। जो लोग बनाना नहीं जानते, उनका बना सकने वालों के साथ जोड़ कर उस आवश्यक कला की शिक्षा व्यवस्था का भी प्रबन्ध कर दिया जाता है। इस तरह शिविर में आने का वही अतिरिक्त खर्च है, जो आने-जाने के किराये-भाड़े में पड़ता है। उपलब्ध होने वाले लाभ को देखते हुए यह इतना बड़ा भार नहीं है, जिसे घोर अभाव ग्रस्तों को छोड़ कर, मध्यम वृत्ति का व्यक्ति वहन न कर सके। इच्छा होने पर इस प्रकार की सुविधा हर किसी को हो जाती है। इतनी व्यवस्था हर कोई कर सकता है। समय के बारे में भी यही बात है। हारी-बीमारी विवाह-शादी आदि अनेक कार्यों में वर्ष में कितने ही दिन यों ही गँवाने पड़ते हैं। जिन्हें इच्छा होगी, उन्हें इतना अवकाश भी किसी प्रकार मिल ही जायगा।

इस शिविर में व्यक्तिगत जीवन के हर पहलू को सुविकसित करने की शिक्षा एवं प्रेरणा देने का कार्यक्रम है। स्वास्थ्य, मानसिक, संतुलन, पारिवारिक उल्लास, आर्थिक सुव्यवस्था, मित्र परिचितों का स्नेह-सौजन्य, सद्गुणों का अभिवर्धन, आन्तरिक उत्कर्ष, ईश्वर का सान्निध्य आदि जीवन को समुन्नत बनाने वाले मर्म एवं रहस्यों से शिक्षार्थियों को परिचित एवं अभ्यस्त बनाने का प्रयत्न किया जायगा। विश्वास यही करना चाहिए कि किराया-भाड़ा और थोड़ा समय खर्च करने की जो क्षति होगी, उससे अनेक गुना लाभ आगन्तुकों को मिल कर रहेगा।

जिन्हें लोक-सेवा, जन-जागरण, युग-निर्माण के रचनात्मक कार्यों से अभिरुचि है, उनके लिए एक क्लास अतिरिक्त रूप से नित्य लगा करेगा, उसमें गीता-सप्ताह कथा, रामायण-प्रवचन, सत्यनारायण कथा, गायत्री यज्ञ, षोडश-संस्कार, पर्व-त्यौहारों का विधान आदि वे सभी रचनात्मक कार्यक्रम सिखाये जायेंगे, जिनके आधार पर धर्म-मंच के माध्यम से कोई भी भावनाशील व्यक्ति युग-निर्माता की महान् भूमिका अदा कर सके और देश-धर्म, समाज संस्कृति के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण योग दे सके। लोक-नेतृत्व की थोड़ी भी क्षमता जिनमें होगी, वे इस शिक्षा के सहारे अपना व्यक्तित्व उज्ज्वल नक्षत्र की तरह प्रकाशवान कर सकेंगे और युग की माँग पूरी करते हुए मानवता की महती सेवा कर सकने में समर्थ होंगे।

इन पंक्तियों के द्वारा जेष्ठ के उपरोक्त बीस दिवसीय शिविर में उन सभी नर-नारी एवं बालकों को आमंत्रित करते हैं, जिनकी मनोभूमि प्रस्तुत विषय समझ सकने में समर्थ है। जो समझ कुछ नहीं सकते केवल दर्शन करने आते हैं, वे कष्ट न उठावें। थोथे दर्शन से किसी का कोई लाभ नहीं हो सकता।

चूँकि यहाँ स्थान सीमित है और आने के इच्छुकों की संख्या बहुत अधिक होती है, इसलिये स्वीकृति पाकर ही आने का कड़ा प्रतिबंध शिविरों में रहता है। जिन्हें आना हो अभी से स्वीकृति प्राप्त कर ले। निर्धारित संख्या पूरी होते ही स्वीकृति देना बन्द कर दिया जायगा। तब बिना स्वीकृति के न आने का प्रतिबन्ध पालन करने के अतिरिक्त और कोई चारा न रहेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118