रामायण की प्रेम-परिभाषा

February 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

खगपति गरुड़ ने प्रश्न किया—हे कागभुसुण्डि! आप मुझे धर्म का वह सरल स्वरूप समझायें जिसका अवगाहन कर मैं भी जीवन-मुक्ति प्राप्त कर सकूँ। कागभुसुण्डि ने अपनी कथा प्रारम्भ की, अपना सारा जीवन वृत्तान्त सुनाया। उत्तरकाण्ड के यह प्रसंग आध्यात्म-ज्ञान के बीज हैं। उन्हीं में से एक प्रसंग प्रेममार्गी-भक्ति है। प्रेम को ही जीवन की सम्पूर्ण साधनाओं का आधार मानते हुए उन्होंने कहा—

जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥

प्रीति बिना नहिं भगति दिढाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥

परमात्मा की महत्ता पर जब तक विचार नहीं किया जाता तब तक “ब्रह्म है” ऐसा विश्वास भी नहीं होता। विश्वास के बिना प्रेम नहीं होता, जब तक प्रेम नहीं, भक्ति ऐसी ही है जैसे जल के ऊपर तेल फिरता तो है पर मिल नहीं पाता।

इस सम्पूर्ण संदर्भ में भक्ति के लिए, ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रेम की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। मनुष्य की स्थिति ऐसी है कि उसे जहाँ आनन्द मिलता है वहीं उसकी सम्पूर्ण चेष्टायें केन्द्रित रहती हैं। इसी भाव से केन्द्रीकरण का नाम प्रेम है। इस प्रेम का आधार लौकिक भी हो सकता है और पारलौकिक भी। एक का नाम आसक्ति है, दूसरे का नाम मुक्ति। मुक्ति प्रेम ही परमात्मा की प्राप्ति का सबसे सरल उपाय है। रामचरित मानस ने स्थान-स्थान पर इसकी पुष्टि की है और लौकिक प्रेम से, दिव्य प्रेम के स्वरूप को अलग बताकर मनुष्य को अज्ञान से बचाने का प्रयत्न किया है। विरक्ति कवि तुलसी ने प्रेम तत्व की सीधी परिभाषा इस तरह की है—

तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर प्रेम नहिं दुरइ दुराए॥

मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥

हित अनहित पशु-पच्छिउ जाना। मानुष तनु गनु ग्यान निधाना॥

कोई कितना ही षडयन्त्र करे बैर और प्रेम कभी छिप नहीं सकते। मुनियों के आश्रमों में पक्षी-मृग अभय घूमते हैं पर बधिक को देखते ही भाग खड़े होते हैं। जिस तत्व को पशु-पक्षी समझ सकते हैं मनुष्य जैसा गुणी-ज्ञानी जीव उसे कैसे नहीं जान सकता।

प्रेम मनुष्य की भावनाओं से, उसकी मुखाकृति, प्राण और प्रत्येक हाव-भाव से दिखाई देता है। वह जीवात्माओं को इस तरह जोड़ देता है जैसे जल और दूध मिलकर एक तन हो जाते हैं किन्तु यदि किसी ने केवल प्रेमाडम्बर किया, छल किया, कामना पूर्ति के लिए बहकाना चाहा तो वे ऐसे ही अलग हो जाती है जैसे दूध में खटाई डाल देने पर एकरूपता नष्ट हो जाती है और दोनों न्यारे-न्यारे हो जाते हैं। रामायण में कहा है—

पय जल सरिस बिकायँ, देखहु प्रीति की रीति भलि। बिलग होइ रसु जाइ, कपट खटाई परत पुनि॥

यहाँ प्रेम के दोनों रूपों का दिग्दर्शन है। पहला साँसारिक प्रेम जिसमें स्वार्थ और कामनायें प्रधान रहती हैं। इसे तुलसी दास जी ने छल बताया है और उसकी निन्दा की है। भगवान राम ने अपने पिता को मार्मिक शब्दों में इस गलती का बोध कराया है। श्री दशरथ जी जब राम के वन-गमन के समाचार से अति शोकातुर हो रहे थे तो उन्होंने समझाया—

पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय विसमउ कत कीजै॥

तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपवादु॥

पिता जी! यह मेरे तप, जीवात्मा के उत्थान का पुण्य अवसर है ऐसे हर्ष के समय में दुःख करने की कौन-सी जरूरत है आप तो मुझे वन-गमन की आज्ञा दें। आपका यह प्रेम जो मेरे शरीर तक सीमित है और जिससे मेरे आत्मोत्थान में बाधा पड़ती है वह प्रेम नहीं प्रमाद है। ऐसा न कीजिए, इससे तो आपका अपयश ही होगा। रघुकुल में आप इसके लिए अपवाद ठहराये जायेंगे।

आज के मोहासक्त व्यक्तियों के लिए राम का यह कथन जीवनदायक है। धन, पद, वैभव और ऐश्वर्य के लिए माता-पिता अपने पुत्रों को आध्यात्मिक जीवन से विमुख रखने का प्रयत्न करते हैं यह दोनों ही राम की दृष्टि में प्रेम के अपयशी हैं इसे ही साँसारिक प्रेम कहा गया है। इसे ही बन्धन का कारण बताया गया है।

फिर क्या प्रेमास्पद होना सिद्ध करने के लिए घर, द्वार, धन, वैभव, पुत्र, पिता, पत्नी आदि का परित्याग कर देना चाहिए। या उनसे प्रेम न करना चाहिए? नहीं, नहीं ऐसा कैसे हो सकता है। प्रेम न रहेगा तो संसार कैसे चलेगा, मनुष्य जीवन में आनन्द ही क्या रह जायगा। तो फिर प्रेम का ग्राह्य स्वरूप कौन-सा है। तुलसीदास जी ने अयोध्याकाण्ड में बड़ा सुन्दर रूपक प्रस्तुत कर, इस आशंका को दूर किया है। लिखते हैं—

घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदय परभात पयाना॥

भरत जाई घर कीन्ह विचारु। नगर बाजि गज भवन भँडारु॥

संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तज ताही॥

तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साई दोहाई॥

करई स्वामि हित सेवक सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई॥

अस विचार सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥

कहि सब मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहि राखा॥

सब लोगों ने सुना कि प्रातःकाल सारी अयोध्या राम को मिलने जा रही है। सब तैयारियाँ हो चुकीं, सभी प्रसन्न थे। पर भरत उस समय विचार मग्न हो गये। उन्होंने सोचा यह सारा नगर, मकान, घोड़े, हाथी, संपत्ति, खजाना सब उन्हीं भगवान राम का ही तो है, फिर यदि इसे आरक्षित छोड़कर जाता हूँ तो भगवान मुझ पर प्रसन्न कहाँ होंगे? इससे तो उलटा मुझे पाप लगेगा। ऐसा विचार कर उन्होंने धर्मशील सेवकों को बुलाकर उन्हें पहले कर्त्तव्य बोध कराया और इसके बाद जो जिस योग्य था उसे वह काम सौंप दिया।

उपरोक्त कथन में भरत का निष्काम प्रेम स्पष्ट है। उन्हें घर, घोड़े हाथी आदि किसी भी संपत्ति का मोह नहीं है, तो भी उसे अरक्षित रखना वे परमात्मा की अवज्ञा मानते हैं। उन्हें राम से प्रेम था पर उसके साथ ही वे अपना कर्त्तव्य भी नहीं भूले। अर्थात् उस धन सम्पत्ति को न तो यों ही छोड़ा और न उसे अयोग्य व्यक्तियों को सौंपा। परमात्मा की सम्पत्ति उन्हें दी जो धर्मनिष्ठ थे। जिन पर उन्हें विश्वास था कि वे इस ईश्वरीय सम्पत्ति का दुरुपयोग न करेंगे। राम के प्रति यही प्रेम सर्वांगपूर्ण कहा जा सकता है। राम के मोह के साथ, राम के प्रति कर्त्तव्यों का जो सुव्यवस्थित ढंग से पालन कर सकता हो ऐसा भरत के से गुण वाला व्यक्ति ही उनका सच्चा भक्त हो सकता है।

निष्काम प्रेम का एक और सुन्दर उदाहरण अयोध्याकाण्ड में ही प्रस्तुत है। संसार की ऐसी कौन-सी माता होगी जिसे अपने पुत्र पर प्रेम न होगा। कौशल्या का अपने पुत्र राम के प्रति अगाध प्रेम था पर इस प्रेम में उन्होंने स्वार्थ की झलक नहीं आने दी। उन्हें राम और भरत में कोई अन्तर नहीं जान पड़ा। दरअसल सच्चा प्रेम तो यही है। अपने बच्चे की सच्ची स्नेहित वही माता हो सकती है जिसे दूसरे बच्चों से भी समान प्रेम हो। यह संसार परमात्मा का बनाया हुआ है। अपने-पराये सब उसी के पुत्र हैं फिर एक से प्रेम और दूसरे से दुराव कैसे हो सकता है। जो अपनों से प्रेम करता है वह यदि मानव-मात्र से प्रेम करे तो ही उसका प्रेम सच्चा है। ईश्वरीय प्रेम और प्रेममयी भक्ति से जीवन मुक्ति का यही स्वरूप है। यह कथानक राम का माता कौशल्या से वन जाने के आज्ञा माँगने से प्रारम्भ होता है और कौशल्या के सुन्दर उत्तर से समाप्त होता है—

धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदुबानी॥

पिता दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥

आयसु देहि मुदित मन माता। जेहि मुद मंगल कानन जाता॥

जनि सनेह बस डरपसि भोरे। आनँदु अंब अनुग्रह तोरे॥

धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भई गति साँप छछूँदर केरी॥

राखऊँ सुतहिं करऊँ अनुरोधू। धरम जाई अरु बन्धु बिरोधू॥

बहुरि समुझि तिय धरम सयानी। राम भरत दोउ सुत सम जानी॥

सरल सुभाल राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥

तात जाउँ बलि कीन्हेहूँ नीका। पितु आयसु सब धरमकु टीका॥

इस कथन से यह भी स्पष्ट है कि सच्चा प्रेमी सरल होता है, वह सबके कल्याण की कामना करता है। धर्म करते हुए अपने पराये की भेद वृत्ति जिसमें न हो वही सच्चा प्रेमी है।

इस प्रकार की निष्काम सेवा निस्सन्देह, लौकिक दृष्टि से काफी कष्टदायक होती है पर उससे अपने प्रियतम परमात्मा के प्रति आत्म दान का जो सुख मिलता है वह उस कष्ट की अपेक्षा अधिक सुखकर होता है। लौकिक प्रेम में ही आत्म-त्याग की इतनी भावना होती है कि उसकी रक्षा के लिये अपने प्राण त्याग तक के लिये तैयार रहते हैं इसमें प्रेमी को आन्तरिक सुख मिलता है फिर परमात्मा के प्रति यदि अनन्य भाव से आत्मदान किया जाय और उस पथ का अनुसरण करते हुये आपदायें आयें तो उनसे सन्तोष क्यों न होगा? तुलसीदास जी कहते हैं—

जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ जाचत जल पवि पाहन ठारउ॥

चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़ें प्रेमु सब भाँति भलाई॥

कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद प्रेम निबाहें॥

चातक जन्म-भर स्वाति नक्षत्र की आशा में प्यासा बना रहता है। स्वाति नक्षत्र में दो बूँद जल की आकाँक्षा से वह ऊपर की ओर चोंच फैलाता है पर बादल ऊपर से ओले बरसाते हैं। चातक को कष्ट होता है पर वह अपने नियम से विमुख नहीं होता। सोना जिस प्रकार अग्नि में चढ़कर खरा होता है उसी प्रकार अपने प्रियतम के लिए कर्त्तव्य पालन की उच्चतम कसौटी में खरा उतर कर सच्चा प्रेमी कहलाने का सौभाग्य मिलता है।

अन्त में तुलसीदास जी ने प्रेम के द्वारा सहज ही परमात्मा की प्राप्ति का प्रसंग प्रस्तुत करते हुये लिखा है—

पुर बैकुण्ठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥

जाके हृदयँ भगति जस प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहि रीती॥

तेहि समाज गिरिजा मैं रहेउँ। अवसर पाय वचन एक कहेउँ॥

हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होर्हि मैं जाना॥

देस काल दिसि विदिसहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम ते प्रभु प्रगटई जिमि आगी॥

देवताओं में चर्चा चल रही थी, परमात्मा से कैसे मिला जाय ताकि असुरों के साथ संग्राम में उनका अनुग्रह प्राप्त किया जा सके। कोई कहता था वे बैकुंठ में हैं वहाँ जाना चाहिये, कोई उन्हें क्षीर-सागर में बताता था। जिसके हृदय में जैसी भक्ति थी वह उसी रीति से ईश्वर से मिलने की बात कर रहा था। उस समाज में भगवान शंकर जी भी उपस्थित थे। उन्होंने कहा—परमात्मा तो सर्व व्यापक है मेरा निश्चित मत है कि वह प्रेम से ही प्रगट होता है। वह देश, काल, दिश-विदिशाओं में सर्वत्र व्याप्त है और प्रेम द्वारा अग्नि के समान प्रगट हो जाता है।

काकभुसुण्डि की इन व्याख्याओं से गरुड़ जी अधिक प्रसन्न हुये। उत्तर काण्ड में बताया है—

सुनि भुसुँडि के वचन सुहाये। हर्षित खगपति पंख फुलाए पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा

गरुड़ इस संवाद से अति प्रसन्न हुये। उन्होंने काग को भी परमात्मा का स्वरूप ही मानकर अति प्रेम प्रदर्शित किया। प्रेम का ज्ञान प्राप्त कर उनके सारे संशय दूर हो गये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118