राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

प्रगतिशीलता पर ही राष्ट्र का भविष्य निर्भर है

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आज के परिवर्तनशील समय में यदि कोई समाज यह सोचता है कि वह अपनी सीमाओं में जिस प्रकार अच्छे-बुरे ढंग से चाहे रह सकता है, किसी दूसरे को उससे कोई मतलब न होगा, तो वह समाज गलत सोचता है।

आज संसार के सारे समाजों की निर्धारित सीमायें समाप्त हो चुकी हैं। एक समाज दूसरे समाज की स्थिति में दिलचस्पी लेने लगा है। इसलिये नहीं, कि कोई किसी की तरक्की चाहता है; बल्कि इसलिये कि कोई एक समाज किसी दूसरे समाज की कमजोरियों से आर्थिक, सांस्कृतिक अथवा राजनीतिक लाभ उठाना चाहता है।

ऐसी दशा में जो समाज अंदर से जर्जर होगा, कमजोर होगा, उसे दूसरे समाज अपने प्रभाव में रखने का प्रयत्न करेंगे। इसीलिये संसार के सारे समाज अपनी बहबूदी के लिये अपनी आंतरिक कमजोरियों को तेजी से दूर करते जा रहे हैं। इधर एक शती के अंदर ही अनेक पिछड़े हुये समाजों ने अपना सुधार किया और दूसरे प्रगतिशील समाजों से टक्कर लेने के लिए अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में खड़े हो गये हैं। अरब, अफ्रीका एवं एशिया के अनेक राष्ट्र इस श्रेणी में आते हैं।

किंतु खेद का विषय है कि, जहां आदि काल से पिछड़े और गिरे हुए छोटे-छोटे समाज एवं राष्ट्र तेजी से उठकर खड़े हो रहे हैं वहां एशिया का विशाल राष्ट्र भारत, जोकि एक दिन उन्नति के उच्च शिखर पर विराजमान रहा है, जहां का तहां पड़ा हुआ अपंगों की तरह घिसट रहा है। संसार की चेतना और समय की आवश्यकता की ओर इसका ध्यान नहीं जा रहा है। यदि यह भारतीय राष्ट्र और कुछ दिन अपने पिछड़ेपन को अपनाये हुए प्रगतिशीलता से विमुख बना रहा, तो इसकी बहुत बड़ी शंका है कि जिस आजादी को उसने एक लंबा बलिदान देकर उपलब्ध किया है, वह खतरे में पड़ जाये।

किसी राष्ट्र के पराधीन बनने में किसी दूसरे की प्रबलता उतना बड़ा कारण नहीं होती, जितना कि उस राष्ट्र की अपनी आंतरिक कमजोरियां! विस्तारवादी अथवा साम्राज्यवादी जातियां संसार के सारे समाजों एवं राष्ट्रों की आंतरिक गतिविधियों को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से लक्ष्य किये रहती हैं और ज्यों ही अवसर पाती हैं, उस पर हावी होने का प्रयत्न किया करती हैं।

जो-जो नवोदित अथवा नवजात स्वतंत्रता वाले राष्ट्र अपनी सामाजिक कमजोरियों को दूर करते हुए समय की आवश्यकता के अनुसार अपने को बदलते जा रहे हैं, उनकी स्वतंत्रता को खतरा कम होता जा रहा है। इसके विपरीत जो समाज स्वाधीन होने के बाद अपनी उन कमजोरियों को दूर नहीं कर रहे हैं, उनकी स्वाधीनता को हर समय खतरा बना हुआ है।

लगभग अठारह-बीस साल से अपना राष्ट्र स्वाधीन है। किंतु इन अठारह-बीस वर्षों में हम कितनी प्राप्ति कर सके हैं, यदि इसका लेखा-जोखा लिया जाये तो परिणाम का आंकड़ा संतोषप्रद एवं आशाजनक न होगा।

विस्तारवादियों अथवा साम्राज्यवादियों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि अपनी स्वाधीनता के बाद से भारतीय समाज प्रगति करना तो दूर अपनी वह चेतना भी खो चुका है, जो उसमें स्वाधीनता संग्राम के समय देखने में आई थी। देश से निकाले गये विदेशी अथवा अन्य लोलुप उपनिवेशी अब भी भारत पर आंख गड़ाये बैठे हैं। उन्हें भारतीय समाज की अप्रगतिशीलता से अब भी बहुत कुछ आशा बंधी हुई है कि एक दिन वे फिर इतिहास की पुनरावृत्ति अपने पक्ष में कर लेंगे। इस प्रमाण में भारत के प्रति किये जाने वाले नित्य नये अनेक षड्यंत्रों को गिनाया जा सकता है।

किसी देश की वास्तविक शक्ति उसका सुदृढ़, शक्तिशाली तथा प्रगतिशील समाज ही होता है। सरकार को, राष्ट्र की वास्तविक शक्ति समझना भारी भूल है। सरकार भी तो वैसी ही बनेगी, जैसे समाजों का स्तर ऊंचा उठा होता है। जो प्रगतिशील दृष्टि से हर बात को यथार्थ के प्रकार में देखकर अपनाने अथवा छोड़ने का साहस रखते हैं, उनके निर्वाचित सदस्यों से कठिन सरकार भी उसी प्रकार उच्च स्तरीय एवं यथार्थ दृष्टिकोण की होगी।

आज जो-जो राष्ट्र प्रगतिशीलता का प्रमाण दे चुके हैं, साम्राज्य विस्तार अथवा उपनिवेशवादी उनकी ओर से पूर्णरूपेण निराश हो चुके हैं। किंतु भारत जैसे जो राष्ट्र अभी अपने पिछड़ेपन को ही लिए बैठे हैं, उन पर परभोगी जातियां अब भी दांत लगाये बैठी हुई हैं।

प्रगतिशीलता का अर्थ है—एक नवचेतना, एक जागरूक विवेक जिसके आधार पर कोई अपना हित-अहित ठीक तरह से देख-समझ सके। जो राष्ट्र गुण-दोष, हानि-लाभ के दृष्टिकोण से किसी बात का निर्णय करके अपने लिए मार्ग निर्धारित करते हैं, वे राष्ट्र प्रगतिशील ही कहे जायेंगे। जो अपनी अहितकर कुरीतियों, प्रथाओं एवं परंपराओं को छोड़ने के लिए और उनके स्थान पर नई उपयोगी एवं समयानुसार प्रथा-परंपराएं प्रचलित करने के लिए खुशी-खुशी तैयार रहते हैं, वे समाज चेतनावान् समाज कहे जायेंगे।

इसके विपरीत जो समाज अथवा राष्ट्र अपने पुराने संस्कारों और पिछड़ेपन को कसकर पकड़े हुए किसी गलत रास्ते पर इसलिए चलते जाते हैं कि उस पर वे बहुत समय से चले आ रहे हैं, प्रगतिशील समाज नहीं कहे जा सकते। भूल को दोहराते रहना, गलती सुधारने का प्रयत्न न करना, अनुपयोगी रीति-नीति अपनाये रहना अथवा अहितकर प्रथा-परंपराओं को गले लगाये रहना—इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि अमुक समाज बहुत ही पिछड़ा हुआ समाज है। उसमें युग के अनुरूप नवचेतना का जागरण नहीं हुआ है। अपनी इस अप्रगतिशीलता की परिस्थिति में कोई भी राष्ट्र धोखा खा सकता है और स्वाधीन होकर भी अपनी स्वाधीनता खो सकता है।

बहुत कुछ प्राचीन होने पर भी गतिशीलता की दृष्टि से हमारे भारतीय राष्ट्र की गणना अभी नवोदित राष्ट्रों में ही है। उसने अभी केवल राजनीति स्वतंत्रता ही उपलब्ध की है। उन्नति एवं विकास के नाम पर अभी उसे कुछ उपलब्धियां नहीं हो सकीं हैं।

यह बात ठीक है कि देश की उन्नति के प्रयत्न चल रहे हैं। किंतु उन सब प्रयत्नों की पृष्ठभूमि केवल आर्थिक ही है। केवल मात्र आर्थिक उन्नति से ही कोई राष्ट्र समुन्नत राष्ट्र नहीं बन सकता। किसी राष्ट्र की वास्तविक उन्नति तो उसकी सामाजिक उन्नति में ही निहित रहती है। जिसका समाज अपनी कुरीतियों एवं कुप्रथाओं के पापपाश में जकड़ा हुआ है, जिसमें प्रगतिशीलता की नूतन चेतना का जागरण नहीं हो सका है। केवल अर्थोन्नति में कुबेरपुरी के समान हो जाने पर भी वह राष्ट्र उन्नत राष्ट्र नहीं कहा जा सकता।

इस कटु सत्य को स्वीकार करने में किसे आपत्ति हो सकती है कि हमारा समाज प्रगतिशीलता के नाम पर बिल्कुल निकम्मा बना हुआ है? अभी उसमें वह स्वतंत्र चिंतन और नवचेतना नहीं आ सकी है, जिसके बल पर अपनी अहितकर दुर्बलताओं को समझ सके और उनको छोड़ सके। हजार हानियां उठाने के बावजूद भी वह अपने पुराने ढर्रे पर ही चलते रहने में सुविधा अनुभव कर रहा है।

किंतु यदि अपने भारतीय राष्ट्र को शक्तिशाली बनाना है, अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना है, तो उसे अपनी उन आंतरिक दुर्बलताओं को दूर करना ही होगा, उन सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को छोड़ना ही होगा, जो उसकी वास्तविक प्रगति के पथ में अवरोध बनी हुई हैं।

अपने समाज में न जाने कितनी अनुपयुक्त परंपराएं एवं हानिकार प्रथायें उत्पन्न होकर बहुत समय से चली आ रही हैं। किंतु अब और अधिक समय तक उनको सहन करते रहना ठीक न होगा। आज उनका सुधार आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो गया है।

भारतीय समाज में फैली कुरीतियों एवं कुप्रथाओं में विवाह जैसे पवित्र कृत्य के साथ बंधी हुई वे कुप्रथायें एवं मान्यतायें प्रमुख हैं, जिनका स्वरूप आर्थिक बरबादी के रूप में प्रकट होकर समाज को हर प्रकार से जर्जर बना रहा है। सामाजिक सुधार का शुभारंभ सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों के उन्मूलन से किया जाना आज के युग की प्रमुख पुकार है और इसके लिए साहस पूर्वक अग्रसर होना—हम सबका पवित्र कर्तव्य है।

सामाजिक कुरीतियों को छोड़ने का साहस ही प्रगतिशीलता है। जिस दिन यह शुभ साहस भारतीय समाज में आ जायेगा यह संसार का सबसे शक्तिशाली समाज बनकर खड़ा हो जायगा। आज जो देश इसकी ओर लालच भरी दृष्टि से देख रहे हैं, तब वे इसकी ओर आंख भी न उठा पायेंगे। बल्कि उलटे सहयोग की दिशा में बढ़कर आते हुए दिखाई देंगे।

सारा संसार जानता है कि भारतीय समाज में न तो बुद्धि की कमी है, न विद्या की और न वीरता व बलिदान की; यदि उसमें कोई कमी है, तो केवल उस प्रगतिशीलता की—जिसकी आज के युग में बहुत आवश्यकता है। जिस दिन यह वांछित प्रगतिशीलता भारतीय समाज में आ जायेगी, यह संसार का सबसे अग्रगामी समाज होगा और जिस प्रकार यह कभी जगद्गुरु बनकर संसार का पथ-प्रदर्शन करता रहा है, आगे भी करेगा। अपने समाज, अपने राष्ट्र को अग्रगामी रखने को संसार के सारे लोग प्रयत्नशील हो रहे हैं, तब क्या कारण है, हम भारतीय ही अपने पिछड़ेपन के गुलाम बने हुए अपने समाज की उन्नति के लिए आगे न बढ़ें?

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