राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

जीवन का उजाला पक्षी भी प्रकाश में आए

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समाचार पत्रों में जीवन का अंधेरा पक्ष बड़ी प्रमुखता से छपता है। संपादक गण मोटे-मोटे शीर्षक देकर उसकी ओर पाठकों का ध्यान खींचते हैं। आपकी दृष्टि से ये शीर्षक अनेक बार गुजरे होंगे। निराश प्रेमी ने प्रेमिका के छुरा भोंक दिया, पत्नी ने प्रेमी से मिलकर पति को जहर दे दिया अथवा मरवा दिया, पति ने पत्नी की नाक काट ली या हत्या कर दी, क्योंकि उसे पत्नी के चरित्र पर संदेह हो गया था और पुलिस के सामने आत्म-समर्पण कर दिया, डाकुओं के एक दल ने गांव पर हमला किया और 16 व्यक्तियों को जिनमें स्त्रियां और बच्चे भी थे, गोली से उड़ा दिया और लूट-पाट करके चलते बने। एक दिन सवेरे 85 वर्षीय विधवा अपने मकान में खून से लथ-पथ पाई गई—ऐसा लगता था कि किसी ने तेज हथियार से उसकी हत्या की है और उसकी संपत्ति का अपहरण किया है, इसी मुहल्ले में कुछ महीनों पहले एक और विधवा का कत्ल हुआ था और उसकी दो-तीन लाख की संपदा लूट ली गई थी। अभी कुछ दिन पहले एक संसद-सदस्य के निवास स्थान से राजधानी में 86 हजार रुपया कोई चुरा ले गया। सामान्य धोखे-धड़ी की तो अनेक घटनाएं होती रहती हैं। जाली हस्ताक्षर बनाकर बैंकों से दूसरों का रुपया निकलवाने का सफल-असफल प्रयास किया जाता है। एक समाजसेवी संस्था की बात है—किसी ने अधिकारियों के जाली हस्ताक्षर बनाकर 33 या 34 हजार रुपया निकलवा लिया और आज तक अपराधी का पता नहीं चला। नोट और आभूषण दुगने कराने के लोभ में अनेक ठगे जाते हैं। बलात्कार और अपहरण के किस्से भी कम नहीं होते। मित्र या निकट रिश्तेदार को एक बार रुपया उधार दीजिए और उससे दुश्मनी मोल ले लीजिए। रुपया वापस मिलने की आशा तो आप को छोड़ ही देनी चाहिए।

समाज के इस कृष्ट पक्ष का दर्शन करके मन वितृष्णा से भर जाता है। प्रश्न उठता है कि क्या यह दुनिया रहने लायक रह गई है, जिसमें लूट-पाट, मार-काट, डकैती, चोरी, ठगी और जालसाजी, बलात्कार और अपहरण तथा विश्वासघात का बोलबाला है? लोग अक्सर शिकायत करते हैं कि बड़ा खराब जमाना आ गया है, जिसमें किसी का विश्वास नहीं किया जा सकता। भारतीय दर्शन और अध्यात्म क्या आज के सामाजिक जीवन को बिल्कुल स्पर्श नहीं करता? उपनिषद् का मंत्र है—‘‘किसी के धन की इच्छा मत करो, इस जगत् में जो कुछ है, वह ईश्वर की संपदा है और तुम्हें जो कुछ प्राप्त है, उसका एक अंश त्याग करके उपभोग करो।’’ क्या लोग उपनिषद् के इस मंत्र पर आचरण करते हैं? आधुनिक समाजशास्त्री कहते हैं कि, आर्थिक विषमता अनेक अपराधों को जन्म देती है। गांधी जी भी कहते थे कि आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह जो करता है, वह चोरी करता है। जब एक जगह धन का पहाड़ खड़ा होगा तब दूसरी जगह गड्ढा कैसे नहीं बनेगा? जब कहीं वैभव का प्रदर्शन होगा तब दूसरे के मन में जो अभावग्रस्त है, उस वैभव को छीनने की इच्छा क्यों जाग्रत नहीं होगी?

किंतु जीवन में अंधेरा है तो उजाला भी कम नहीं है। फर्क इतना ही है कि उजाले को हम स्वाभाविक समझते हैं और उसे नजरअंदाज कर देते हैं, जीवन में जो अस्वाभाविक और कृत्रिम है, उसे खूब महत्त्व देते हैं और संतुलन खो देते हैं। अगर कुत्ते ने आदमी को काट लिया तो यह खबर नहीं बनती, किंतु अगर कोई आदमी कुत्ते को काट ले तो समाचार-पत्र का मोटा शीर्षक बन जायेगा। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उजाला अंधेरे को दूर करता है और जीवन को जीने लायक बनाता है। फिर यह दुनिया उतनी खराब नजर नहीं आती और उसमें रस बना रहता है। प्रकाश की सुनहरी किरण किसे अच्छी नहीं लगती? बसंत की बयार किसे स्फूर्ति नहीं देती? अतः आइए, हम उजाले की उपासना करें, जो उजले-पथ के पथिक हैं, उनका अनुसरण करें और मनुष्य जीवन को धन्य करें।

गोरखपुर में उत्तर-पूर्वी रेलवे का एक केंद्रीय अस्पताल है। उसमें एक सर्जन काम करते थे। उनका शुभ नाम था डॉ. सुधीर गोपाल झिगरन। उन्होंने एक दिन पहले, एक रोगी का आपरेशन किया था। दूसरे दिन रोगी को रक्त देने की आवश्यकता महसूस हुई और डॉ. महोदय स्वयं ही अपना रक्त देने को तैयार हो गये। संयोग की बात कि जब वह रक्त-दान कर रहे थे तथा नसों में वायु गतिरोध हो गया और वह हमेशा के लिये मौत की गोद में सो गए। ऐसा उदाहरण बिरला ही मिलेगा कि कोई डॉक्टर रोगी के लिए स्वयं अपना रक्त देने को तैयार हुआ हो। रोगियों के प्रति डॉक्टरों की उपेक्षा और हृदयहीनता के अनेक किस्से प्रकाश में आते हैं, किंतु डॉ. सुधीर ने एक रोगी के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया और दूसरों के लिए जीवनदान करने का एक सुनहरा प्रकाश स्तंभ निर्मित किया। फिर यह रोगी कोई बड़ा आदमी न था। सबसे नीची यानी चतुर्थ श्रेणी का एक साधारण खलासी था। किंतु मानवता के लिए कौन छोटा और कौन बड़ा? समाज को ऐसे डॉक्टर की पूजा करनी चाहिए। वह अपने पीछे पत्नी, दो पुत्रियां और पुत्र छोड़ गये हैं। उनका दायित्व समाज को इस तरह उठा लेना चाहिए कि उन्हें अपने संरक्षक का अभाव न खटकने पाए।

हमें याद आती है पालम हवाई अड्डे की वह घटना, जब कलकत्ता से आने वाला डेढ़ करोड़ की लागत का कैरोवेल वायुयान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। यान में उतरते-उतरते आग लग गई और उस पर सवार 75 यात्रियों का जीवन संकट में फंस गया था। यात्री संकटकालीन दरवाजों से कूदकर अपनी जान बचा रहे थे और एक महिला करुण चीत्कार कर रही थी—‘‘मेरी दो वर्ष की बच्ची पूनम को कोई बचा ले, भले ही मुझे आग में झुलसने के लिए छोड़ दे। एक विदेशी ने इस अबला की पुकार को सुना और वह बच्ची को गोद में उठाकर जलते हुए विमान से बाहर कूद पड़े। इस प्रयास में वह स्वयं झुलस गये और उन्हें अस्पताल में चिकित्सा करानी पड़ी। मानवता देश और काल अथवा जाति भेद को नहीं जानती। श्री लायन ने सचमुच अपने नाम को सार्थक किया और बच्ची की मां की कृतज्ञता के रूप में उन्होंने जो पुण्य कार्य किया, उसका कोई क्या हिसाब लगायेगा?

राजधानी की उस घटना को सहज ही नहीं भुलाया जा सकता, जिसमें चार विद्यार्थी नवयुवकों ने अद्भुत साहस और सूझ-बूझ का परिचय दिया। तीन विद्यार्थी थे सेंट स्टीफेन्स कॉलेज के और एक था रामजस कॉलेज का। अपनी कक्षाओं से निकल कर सड़क पर आये थे कि उन्होंने दो लुटेरों-हत्यारों को लूट का माल लेकर भागते देखा। नवयुवकों ने अपनी जान-जोखिम में डालकर तत्काल लुटेरों का पीछा किया और उनके साथ गुत्थम-गुत्था हो गई। एक हत्यारे को पकड़ लिया लूट का 32,000 रुपया भी छीन लिया। इन विद्यार्थियों की सज्जनता, फुर्ती और बहादुरी की मद्रास जैसे दूर स्थान पर बैठे हमारे वरिष्ठ नेता राजाजी ने भी तारीफ की है और सिफारिश की है, इन विद्यार्थियों को डिग्री फौरन मिल जानी चाहिए, भले ही वे अपना अध्ययन करते रहें। सचमुच वे जीवन की परीक्षा में पास हुए हैं और उसी की असली कीमत है। किताबी परीक्षा तो लाखों पास करते हैं, किंतु जीवन की परीक्षा में नापास हो जाते हैं।

अब कलकत्ता के एक सिख टैक्सी ड्राइवर का भी स्मरण कर लें। एक समाचार-पत्र की मोटर गाड़ी पांच आदमियों को लेकर बड़े सवेरे उनके घर पहुंचाने जा रही थी। कलकत्ता में अराजकता का बवंडर उठा था। कुछ शरारतियों ने यादवपुर के निकट गाड़ी को रोक लिया। उस पर पेट्रोल छिड़का और आग लगा दी। गाड़ी में बैठे लोगों को उतरने तक का मौका नहीं दिया। बाहर निकलने लगे तो उन पर पटाखे फेंके। वे घायल होकर जमीन पर गिर पड़े और कष्ट से कराहने लगे। कोई उनकी मदद को नहीं आ रहा था, इतने में वह सिख टैक्सी ड्राइवर न जाने कहां से घटना-स्थल पर देवदूत बनकर प्रकट हुआ। उसने अकेले हाथों दो घायलों को खींचकर अपनी गाड़ी में डाला। लोगों की एक छोटी भीड़ उस पर व्यंग्य-बाण चलाती और उसे धमकाती रही, किंतु टैक्सी ड्राइवर ने निर्भय होकर अपने कर्तव्य का पालन किया। थोड़ी देर बाद एक पुलिस वाहन भी पहुंचा और उसने शेष घायलों को अस्पताल पहुंचाया। घायलों में एक की मृत्यु हो गई, जिन्होंने समाचार-पत्र-प्रतिष्ठान में 30 वर्ष निष्ठापूर्ण सेवा की थी और जो साथियों तथा मित्रों के प्रीतिभाजन बने थे। इस अज्ञातनामा टैक्सी ड्राइवर को कौन प्रणाम करना न चाहेंगे?

अंत में अपने देश से हजारों मील दूर एक फौजी न्यायालय में चलिये। यह क्यूबा का फौजी न्यायालय है। वहां चार व्यक्तियों पर, जिनमें दो बड़े फौजी अफसर भी शामिल थे, प्रधानमंत्री कास्ट्रो की हत्या का षड्यंत्र करने का अभियोग चलाया गया था। अपराधियों ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था और सरकारी वकील न्यायालय से अपराधियों को मृत्युदंड देने की मांग करने जा रहे थे। इतने में प्रधानमंत्री श्री कास्ट्रो का एक पत्र सरकारी वकील के हाथों में दिया जाता है, जिसमें अनुरोध किया गया था कि अभियुक्तों के मृत्यु-दंड की मांग न की जाए। न्यायालय का वातावरण एक दम बदल गया, जब प्रधानमंत्री कास्ट्रो का पत्र पढ़ा गया। न्यायाधीशों और अभियुक्तों सभी ने दो मिनट तालियां बजाकर हर्ष प्रकट किया और सरकारी वकील ने 30 वर्ष की कैद की सजा की मांग करके संतोष कर लिया। अभियुक्त सैनिकों की गोली के शिकार होने से बच गए और किसी दिन कैद से भी मुक्त होने की आशा रख सकते हैं। क्षमा में वह शक्ति है, जो कठोर से कठोर व्यक्ति का दिल बदल सकती है।

हमारे यहां चंबल घाटी में एक चमत्कार हुआ था। विनोबा जी की सीख पर 20 खूंखार डाकुओं ने आत्म-समर्पण कर दिया था। उनमें से 16 बरी हो गये। अब वे सामान्य जीवन बिता रहे हैं। चार को लंबी सजायें हुईं थीं और अब जेल से उन्होंने क्षमा याचना की है। यदि शासन उन्हें क्षमा कर दें, तो समाज की कोई हानि नहीं होगी और हृदय-परिवर्तन की क्रिया संपूर्ण हो जायेगी। भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्रप्रसाद और उनके सैनिक ए.डी.सी. श्री यदुनंदन सिंह दोनों ही आज इस दुनिया में नहीं हैं, जिन्होंने चंबल घाटी के इस अभिनव-प्रयोग में सजीव दिलचस्पी ली थी। यदि इस प्रयोग को आगे बढ़ाया गया होता, तो चंबल घाटी की डाकू समस्या का हमेशा के लिए समाधान हो जाता।

जीवन का उज्ज्वल पक्ष मन को कितनी स्फूर्ति देता है और हृदय में कैसी ऊर्मियां उत्पन्न करता है? वह अंतःकरण की मंद ध्वनि को मुखर करता है। उसी वंशी की तान शीत और पाले से झुलसे वृक्षों को पुनः हरा-भरा बना सकती है। आवश्यकता है तो यही कि हम प्रकाश की ओर देखें, जिसमें अंधेरे को निगलने की अखंड शक्ति भरी हुई है।

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