राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

राष्ट्रीय चरित्र को सुविकसित किया जाए

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चमड़ी की आंखों से देखने और चर्बी के मस्तिष्क से विचारने पर समृद्धि रुपये-पैसों के रूप में दिखाई पड़ती है; धन-दौलत, ठाट-बाट देखकर किसी की समृद्धि आंकी जाती है, शिक्षा और पद के अनुरूप उसका मूल्यांकन किया जाता है। थोड़ा बारीकी से, विवेक दृष्टि से यदि देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि ये समृद्धि इनसे भिन्न है। मनुष्य का आंतरिक स्तर ही उसके वैभव का वास्तविक स्रोत होता है। धैर्य, साहस, पराक्रम, सूझ-बूझ, संतुलन एवं सज्जनता ही मनुष्य की वास्तविक संपत्ति है। उनके होने पर कोई निर्धन व्यक्ति भी उन महानताओं से संपन्न हो सकता है, जिनके कारण उसे सच्चा और समग्र मनुष्य कहलाने का अधिकार मिलता है।

आंतरिक दुर्बलताओं और क्षुद्रताओं से भरा हुआ मनुष्य रुपये-पैसे वाला होते हुए भी तुच्छ, घृणित और नगण्य बना रहता है। अगणित धनी लोग ऐसे होते हैं, जो आंतरिक क्षुद्रता के कारण जीवन का लाभ लेने से कोसों दूर बने रहते हैं और रुपये-पैसों की गिनती गिनते रहने के गोरखधंधे में जिंदगी के दिन पूरे करके अंधकार के गर्त में विलीन हो जाते हैं। दूसरों की अपेक्षा उनके खाने-पहनने, रहने-सहने आदि के साधन अधिक सुविधाजनक एवं आकर्षक हो सकते हैं, पर इससे उनके व्यक्तित्व का स्तर कहां बढ़ा? और व्यक्तित्वविहीन व्यक्ति अच्छा खाये या अच्छा पहने इसमें न उसका स्वयं का कुछ भला होता है और न उसके देश या समाज का। आंतरिक श्रेष्ठताओं से रहित व्यक्ति न अपने-आप संतुष्ट रह सकता है और न समाज में कोई स्थायी सम्मान मिल सकता है।

व्यक्ति की भांति समाज या राष्ट्र की संपन्नता भी धन-दौलत के आधार पर नहीं आंकी जानी चाहिए। सुख-सुविधाओं के साधन बढ़ना अच्छी बात है, उससे देश की प्रजा को अपेक्षाकृत अधिक सुख-सुविधाएं मिल सकती हैं, पर इससे उसकी तेजस्विता, सशक्तता एवं संपन्नता का कोई संबंध नहीं। ऊंची प्रगति तो उस देश के नागरिकों के चरित्र, साहस, पुरुषार्थ एवं पारस्परिक सहयोग पर निर्भर रहती है। इन गुणों का बाहुल्य रहने पर कोई निर्धन देश भी संसार में अपनी कीर्ति-ध्वजा फहरा सकता है और अपने स्वल्प-साधनों में सुखपूर्वक काम चला सकता है।

इसके विपरीत यदि उसके निवासी स्वार्थी, असहिष्णु, बेईमान, कायर और अकर्मण्य होंगे तो वहां जितना ही धन बढ़ेगा उतना ही भ्रष्टाचार फैलेगा, उतनी ही दुष्प्रवृत्तियां पनपेंगी। फलस्वरूप समस्याएं भी उतनी ही अधिक उलझती चली जायेंगी। कल-कारखाने, व्यापार, उद्योग, कृषि, उत्पादन आदि के सहारे दौलत बढ़ सकती है, पर यदि उसका दुरुपयोग होने लगे तो निश्चय ही वह संपन्नता उस गरीबी से बुरी सिद्ध होगी, जिससे लोग अपने थोड़े से धन का सदुपयोग कर काम चला लेते और सुखपूर्वक रहते थे।

हमारा उद्देश्य संपत्ति की महत्ता कम करना नहीं। वह तो बढ़ना ही चाहिए। उसे बढ़ाने के जो भी उचित उपाय संभव हों वे किये ही जाने चाहिए। पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि बढ़ती हुई संपत्ति के साथ-साथ नागरिकों में सद्गुण भी बढ़ रहे हैं या नहीं? यदि सम्पत्ति के साथ-साथ दोष-दुर्गुण भी बढ़ें तो उसका परिणाम भयानक ही हो सकता है। तब वह बढ़ी हुई संपत्ति बढ़ते हुए दुर्गुणों में आग पर घी डालने का कार्य करेगी। उसका प्रतिफल विकास नहीं-विनाश ही होगा।

राजनैतिक स्वाधीनता की उपलब्धि के लिए महात्मा गांधी ने देश की जनता में देश-भक्ति, त्याग, बलिदान, खादी आदि की रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने का महान् अनुष्ठान किया था। इस माध्यम से विकसित हुई राष्ट्रीय शक्ति में तेजस्विता उत्पन्न हुई, उसने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया। स्वराज्य मिलने के बाद वह ज्योति धूमिल पड़ गई और अब लगता है कि धीरे-धीरे वह कहीं बुझने तो नहीं जा रही है। हमारा सारा ध्यान कल-कारखाने, बांध, नहर आदि बनाने, बढ़ाने में लग गया है। हमारी मान्यता यह हो चली है कि ये सुविधाएं जितनी बढ़ती चलेगी उतनी ही राष्ट्रीय शक्ति बढ़ती चलेगी। चरित्र और मनोबल की बात जब-तब हम कहते-लिखते तो रहते हैं, पर वह सब एक सस्ता मनोरंजन मात्र रह गया है। जिन उपायों से जनता का मनोबल ऊंचा उठे, चरित्र विकसित हो, सत्प्रवृत्तियां पनपे, ऐसा मनोवैज्ञानिक वातावरण बनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है जबकि राष्ट्रीय उत्थान का प्रधान तत्त्व यही है।

अपने देश की जो स्थिति आज है, उसके बारे में क्या किया जाय? कहा उनसे जाय जो परिचित न हों। सरकारी अफसर, व्यापारी, नेता तथा समाज उच्च वर्ग के लोग अपना जो चरित्र जनता के सामने रख रहे हैं, उससे जनता का मनोबल उठा नहीं वरन् गिरा है। लोग देश, समाज की बात सोचना छोड़कर अपनी व्यक्तिगत आपाधापी में लगे हैं। फलस्वरूप उलझनें घटती नहीं वरन् बढ़ती ही जा रही हैं।

सभी जानते हैं कि हमारा खाद्य संकट कृत्रिम है। यदि हमारा राष्ट्रीय चरित्र ऊंचा रहा होता तो इस विभीषिका का सामना ही न करना पड़ता। 5-7 प्रतिशत की जो कमी पड़ती हैं, उसे खेती में थोड़ा अधिक श्रम करके या खाद्य में थोड़ी बचत करके इतनी आसानी से हल कर लिया होता कि किसी को पता भी न चलता कि भारत में खाद्य-संकट नाम की भी कोई चीज है। इस देश के सुशिक्षित लोगों ने अपना एक-एक घंटा निरक्षरों को साक्षर बनाने में लगा दिया होता तो ‘क्यूबा’ की तरह हमने पांच वर्ष में देश को पूर्णतया साक्षर बना लिया होता और स्वराज्य मिलने के 17 वर्ष बाद यहां एक निरक्षर देखने को न मिलता किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के 54 वर्ष के बाद भी हम अधिकांशतः निरक्षर हैं। इसी प्रकार अन्य अगणित समस्याएं जो उलझी पड़ी हैं। अपराध दिन-दिन बढ़ते चले जा रहे हैं, उनसे कब का छुटकारा मिल गया होता, बशर्ते कि हमने राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने की दिशा में भी कुछ सोचा सा किया होता।

राष्ट्र के सामने आक्रमणकारी शत्रुओं से आत्म-रक्षा, खाद्य-संकट, महंगाई, भ्रष्टाचार, चोरबाजारी, बेकारी, गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, अपराध वृद्धि, प्रांतवाद, भाषावाद, जातिवाद, विघटन, देशद्रोह, आंतरिक कलह, प्रजा में बढ़ता असंतोष आदि अगणित समस्याएं मुंह बांधें खड़ी हैं। इनका समाधान छुट-पुट उपायों से नहीं हो सकता। मुरझाये पेड़ के पत्ते सींचने से काम न चलेगा, उसकी जड़ को कुरेदना और सींचना पड़ेगा, तभी कोई ऐसा दल निकल सकता संभव है, जिससे हमारी विकास आकांक्षा वस्तुतः सफल हो सके।

हमें यह ध्यान रखना ही चाहिए कि मनुष्य जड़ नहीं है और न उसकी समृद्धि जड़-पदार्थों के अधिक इकट्ठा कर लेने पर संभव हो सकती है। मनुष्य चैतन्य आत्मा है और उसका आंतरिक स्तर जब ऊंचा उठेगा—तभी उसकी सच्ची शक्ति एवं सामर्थ्य का विकास होगा और तभी उस आवश्यकता की पूर्ति होगी—जिसे समृद्धि के नाम से आज चारों ओर पुकारा जा रहा है। व्यक्ति सद्गुणी एवं चरित्रवान् हो तो वह शक्तिपुंज है और यदि वह निष्कृष्ट मनोभूमि का हो, तो वह अपना ही नहीं, समस्त राष्ट्र एवं समाज का भी अधःपतन करता है। हमें यह जान ही लेना चाहिए कि दौलत खेतों और कारखानों में नहीं, मनुष्य के अंतःकरण में उत्पन्न होती है और समग्र विकसित व्यक्तित्व ही दौलत के अक्षय भंडार सिद्ध होते हैं। गांधी-नेहरू, तिलक, मालवीय, दयानंद आदि युग पुरुषों के व्यक्तित्वों का मूल्य हजारों कारखानों से अधिक था।

संपत्ति उत्पन्न करने की पंचवर्षीय योजनाएं बनें, सो ठीक हैं। अस्पताल, स्कूल, सड़क आदि का बनना भी अच्छी बात है, पर सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय चरित्र को ऊंचा उठाया जाय। प्रत्येक नागरिक के मन-मानस में देशभक्ति, सहकारिता, उदारता, आत्मसंयम, नव-निर्माण एवं उच्च चरित्रवान् बनने की आकांक्षाएं उत्पन्न हों। यह उत्पादन अन्य किसी भी उत्पादन से अधिक आवश्यक, उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण हैं। इस ओर उपेक्षा वृत्ति रखकर पिछले 54 वर्षों में अर्थ उपार्जन का लक्ष्य रखा तो प्रतिफल सामने हैं, अर्थ भी मिला नहीं, भावना क्षेत्र में भी पिछड़ गये। चीन जैसे पिछड़े हुए और सहायता विहीन देश ने अपनी जनता का मनोबल उभारकर पिछले थोड़े दिनों में अपने स्वल्प साधनों से कितनी मजबूत स्थिति बना ली? यदि हम चाहते तो उसकी तुलना में अनेक गुनी सुविधाएं रहने के कारण पिछले 54 वर्षों में कहीं से कहीं पहुंच गये होते और तब हमारी स्थिति ही कुछ दूसरी रही होती।

देर-सबेर में हमें करना यही पड़ेगा कि जनता का मनोबल ऊंचा उठाने के लिए, उसमें उच्च चरित्र, सामूहिकता, आत्म-संयम, पुरुषार्थ एवं सज्जनता उत्पन्न करने के लिए व्यापक अभियान आरंभ किया जाय। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का चिंतन एवं प्रयास उसी दिशा में चलना चाहिए। व्यक्ति और राष्ट्र की संपन्नता उसके सुविकसित चरित्र पर ही आधारित रहती रही है। इतिहास का पन्ना-पन्ना इसका साक्षी है। हमारे भविष्य का उज्ज्वल बनना भी इसी बात पर निर्भर है कि जन-भावनाओं को श्रेष्ठता की दिशा में सुविकसित बनाने की कितनी सफलता मिली?

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