किसी जमाने में राजतंत्र का प्रभाव प्रजा की सुरक्षा तक सीमित था। बाहर के आक्रमणकारियों से युद्ध और भीतर के चोर, डाकू, दुष्ट, दुराचारियों को दंड, प्रायः इतना ही कर्तव्य राजा लोग निबाहते थे। इन्हीं प्रयोजनों के लिए शस्त्र सज्जा, सेना जुटाये रहते थे। उस सुरक्षात्मक शासन व्यवस्था का व्यय भार प्रजाजन टैक्सों के रूप में अदा करते थे। जनमानस को सुव्यवस्थित और लोक-प्रवृत्तियों को परिष्कृत करने का काम धर्मतंत्र संभालता था, शिक्षा, चिकित्सा, लोकमंगल के व्यक्तिगत और सामूहिक कार्यों का संचालन, संत मनीषियों द्वारा संपन्न होता था। उनका व्यय भार जनता श्रद्धासिक्त दान-दक्षिणा के रूप में पूरा करती थी। राजकोष में जो पैसा बच जाता था, वह उन्हीं धर्म पुरोहितों को दें दिया जाता था, वे समय और आवश्यकता के अनुरूप जिन कार्यों में उचित समझते थे, उस दान धन का उपयोग करते थे। उस पर कोई नियंत्रण-प्रतिबंध इसलिये नहीं था क्योंकि दान के श्रद्धासिक्त धन का श्रेष्ठतम उपयोग क्या किया जाय? किस तरह किया जाय? इसका सर्वोत्तम निर्णय वे धर्म पुरोहित स्वयं ही कर सकने में समर्थ थे।
समय की गति ने धर्मतंत्र को दुर्बल कर दिया और निकम्मा भी। राजतंत्र की परिधि बढ़ती गई। अब शासन केवल सीमा सुरक्षा और अपराधियों को दंड देने तक सीमित नहीं रहा, उसका क्षेत्र बढ़ते-बढ़ते जीवन के हर क्षेत्र और समाज के हर कार्य के साथ जुड़ा चला जा रहा है। शिक्षा का पूरी तरह निर्धारण और प्रबंध सरकार करती है। चिकित्सा, परिवहन, यातायात, डाक-तार, बैंक, बीमा, व्यवसाय, उत्पादन आदि पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रीति से सरकारी नियंत्रण ही स्थापित है। कर नीति सरकार के हाथ में चली जाने से अब किसी भी व्यवसाय का बढ़ना-घटना पूर्णतया सरकार की इच्छा पर निर्भर है। अन्न, वस्त्र तक के लिये हमें सरकारी इच्छा का अनुसरण करना पड़ता है। धीरे-धीरे यह नियंत्रण अधिक व्यापक होता चला जा रहा है और व्यक्ति तथा समाज की सभी गतिविधियों पर शासन की नीति का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है। वह दिन दूर नहीं, जब समस्त संपत्ति और सुविधा-साधनों पर शासकीय नियंत्रण ही दिखाई देगा और व्यक्ति को मात्र मशीन की तरह शासन की इच्छा पर गतिविधियां निर्धारित करनी पड़ेंगी। साम्यवाद ऐसी ही स्थिति का प्रतिपादन करता है। प्रजातंत्र हो या कोई और शासन तंत्र, अब सम्मान इसी ओर है।
ऐसी दशा में सरकार का अधिक परिष्कृत होना आवश्यक है। अन्यथा उसमें घुसी हुई विकृतियां सारी प्रजा की गतिविधियां विकृत कर देंगी। राजनीति से कोई सीधा संबंध रखे या न रखें, पर उसे इतना ध्यान तो रखना ही होगा कि शासन का स्तर और स्वरूप भ्रष्ट न होने पावे। इससे कम सतर्कता रखे बिना आज का नागरिक कर्तव्य पूरा नहीं होता। इस संदर्भ में हमें वोट का अधिकार बहुत ही सावधानी से बरतना चाहिए और हर समीपवर्ती को इस राष्ट्रीय अमानत का श्रेष्ठतम उपयोग पूरी समझदारी और दूरदर्शिता के साथ करने के लिए सजग करना चाहिए। चुनाव के समय बरती गई उपेक्षा, अन्यमनस्कता जन-समाज के भाग्य भविष्य के साथ खिलवाड़ ही कही जायेगी। हमें चरित्रवान्, आदर्शवादी, लोकसेवी और परिष्कृत दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों को ही वोट देना चाहिए। भ्रष्ट लोग—चुनाव के समय जन साधारण को प्रलोभन-बहकावे एवं भ्रांतियों में उलझाकर वोट ले जाते हैं और चुने जाने पर अपने स्वार्थों के लिए शासनतंत्र का दुरुपयोग करके ऐसी भ्रष्ट–परंपरायें और रीति-नीतियां चला देते हैं, जिनका भारी दुष्परिणाम देश को भोगना पड़ता है।
शासन के बढ़ते हुए क्षेत्र एवं प्रभाव को रोका नहीं जा सकता। आवश्यकता प्रजाजनों को इतना प्रशिक्षित करने की है कि वे अपने वोट का मूल्य समझ सकें और बिना किसी प्रलोभन बहकावे के उसका राष्ट्रहित में सर्वोत्तम उपयोग कर सकें। जहां यह सतर्कता न बरती जा सकी, वहां प्रजातंत्र अभिशाप ही बनकर रह जायेंगे। भ्रष्ट और धूर्तों के हाथ शासन सौंप देने पर अगणित दुष्प्रवृत्तियां पनपेंगी और प्रजा को अनेक जाल-जंजालों में फंसकर तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़ेंगे। अस्तु जिन्हें राजनीति से सीधा संबंध न हो उन्हें भी वोट और उसके सदुपयोग के संबंध में तो अधिकतम जागरूक रहना ही चाहिए।
शासन के द्वारा प्रजा की भौतिक समस्याओं का समाधान कैसे किया जाय—इस पर विचार करना राजनीति वेत्ताओं के लिए छोड़ देते हैं। लोकमानस के स्तर को अत्यधिक महत्त्व देने वाले और इसे ही समस्त परिस्थितियों का जनक मानने वाले हमारे जैसे लोगों की अधिक दिलचस्पी इस बात में है कि शासन के हाथ में चले गये जनमानस को प्रभावित करने वाले साधनों का दुरुपयोग न होने पाये। वस्तुतः यह विषय धर्मतंत्र का था। जन स्तर पर मनीषियों, तत्त्वदर्शियों और लोकसेवियों द्वारा यह क्षेत्र संभाला जाना चाहिए था, पर दुर्भाग्य का अंत नहीं—धर्म पुरोहित जब स्वयं राजनेताओं की तुलना में व्यक्तित्व की दृष्टि से पिछड़ गये तो किस मुंह से उनके हाथ में लोकमानस के निर्माण की बात सौंपी जाए, अभी भी उनके हाथ में बहुत कुछ है। करोड़ों व्यक्ति उनके आगे माथा टेकते और वचन सुनते हैं। इस श्रद्धा को वे चाहते तो इस स्थिति में ही सृजन की दिशा में नियोजित कर सकते थे—पर वहां भी पोल ही पोल है। ऐसी दशा में यह मांग तो नहीं की जा सकती कि वर्तमान धर्म पुरोहितों को धर्मतंत्र से संबंध रखने वाले संदर्भ सौंप दिये जायें, पर इतना अवश्य है कि हमें मनीषियों का एक मंच बनाना अवश्य पड़ेगा, जो लोकमानस को प्रभावित करने वाले तथ्यों को सरकार द्वारा दुरुपयोग होने से बचाये और स्वयं संगठित रूप से जन स्तर पर उन भाव-प्रवृत्तियों को संभाले, जो समस्त प्रकार की परिस्थितियों के लिए मूलतः उत्तरदायी हैं।
शिक्षा की इस दृष्टि से पहला स्थान है। शिक्षा प्रणाली निस्संदेह लोकमानस को बहुत हद तक प्रभावित करती है। प्रगतिशील राष्ट्रों ने अपनी प्रजा की मनोदशा अभीष्ट दिशा में ढालने के लिए शिक्षा पद्धति को बदला और ऐसा सांचा खड़ा किया, जिसमें पीढ़ियां ढलती चली गईं। जर्मनी, रूस, चीन, जापान आदि देशों ने अपनी प्रजा को एक खास दिशा में ढाला है, इसके लिए उन सरकारों ने सबसे अधिक ध्यान अपनी शिक्षा प्रणाली पर केंद्रित किया है। पाठ्यक्रमों के साथ-साथ विष या अमृत घोला जा सकता है और उसके प्रभाव से लोकरुचि में अभीष्ट परिवर्तन उत्पन्न किया जा सकता है। विद्यालयों का वातावरण, काम, व्यवहार, आचार सभी कुछ अभीष्ट स्तर के ढल सकते हैं और अगले दिनों राष्ट्र का उत्तरदायित्व संभालने वाले छात्रों को जैसा चाहिये वैसा बनाया जा सकता है।
यह मानना होगा कि अपनी सरकार इस दिशा में उतनी सजग नहीं, जितनी उसे होना चाहिए। यदि दूरदर्शितापूर्वक इस क्षेत्र को संभाला गया होता तो आज शिक्षितों की बेकारी और उच्छृंखलता से उत्पन्न जो विभीषिका चारों ओर दीख पड़ रही है, उसकी कोई आवश्यकता न होती। तब ध्वंस में लगे हुए व्यक्तित्व-सृजन में संलग्न होकर परिस्थितियों में सुख-शांति के तत्त्व बढ़ा रहे होते। हमें सरकार पर शिक्षा प्रणाली बदलने और सुधारने के लिये दबाव डालना चाहिए, क्योंकि उसका सीधा प्रभाव जन मानस के स्तर पर पड़ता है। समूची राजनीति में किसी की पहुंच या दिलचस्पी न भी हो तो भी विचारणा को प्रभावित करने वाले तथ्यों की उत्कृष्टता, न बिगड़ने देने वाली बात को तो ध्यान में रखना ही चाहिए।
हमारे प्रयत्न सरकार को यह बताने और दबाने के लिए अधिक तीव्र होने चाहिए कि वह इस देश की परिस्थितियों का हल कर सकने वाली शिक्षा पद्धति प्रस्तुत करे। यह कैसे किया जाय? उसके लिए हम जन स्तर पर कुछ नमूने पेश करके अधिक प्रभावशाली ढंग से अपना सुझाव पेश कर सकते हैं। मथुरा का युग-निर्माण विद्यालय इसी का नमूना है, उसमें (1) औसत जीवन में काम आने वाली भाषा, गणित, भूगोल, स्वास्थ्य, समाज कानून आदि की काम चलाऊ सामान्य जानकारी (2) व्यक्ति और समाज की वर्तमान समस्याओं के कारण और समाधान प्रस्तुत करने वाली विचारणा (3) शिल्प, गृह उद्योग, मरम्मत, कृषि, पशुपालन, सहकारिता, मितव्ययता जैसे अर्थ-साधनों की शिक्षा। इन तीनों विषयों का सम्मिश्रित स्वरूप एक पाठ्यक्रम के रूप में विकसित किया गया है। इसमें उन तत्त्वों का समावेश है, जो भारतीय शिक्षा पद्धति का नया ढांचा खड़ा करने में मार्गदर्शक हो सकते हैं। छात्रावासों में रखकर एक विशेष वातावरण में शिक्षार्थियों को किस प्रकार ढाला जा सकता है, उनका अभिनव प्रयोग कोई भी शिक्षा प्रेमी मथुरा आकर देख सकता है और यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि अपने देश के लिए शिक्षा प्रणाली का विकास किस आधार पर कर सकना फलप्रद हो सकता है?
सामाजिक प्रयत्नों के रूप में अध्यापक वर्ग कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर शिक्षण के साथ-साथ इस बात का प्रयत्न कर सकता है कि श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण कैसे हो और छात्रों में सत्प्रवृत्तियां कैसे पनपे? स्कूलों में जो कमी रह जाती है, उसकी पूर्ति के लिए जन स्तर पर पूरक पाठशालायें खोली जा सकती हैं। इन दिनों अपना प्रयत्न यही चल रहा है। पुरुषों के लिये रात्रि पाठशालायें और महिलाओं को अपराह्न शालायें चलाने के लिए अपना जो आंदोलन चला है, उसमें इस बात की संभावना विद्यमान है कि प्रस्तुत शिक्षा प्रणाली में रहने वाली कमी को इन पूरक पाठशालाओं द्वारा संपन्न किया जा सके। निरक्षरता-निवारण के लिये प्रौढ़ शिक्षा के प्रयत्न इस योजना में जुड़े रहने से उसकी उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती है। ऐसे जन स्तर पर प्रयत्न खड़े करके अभाव की आंशिक पूर्ति भी की जा सकती है और प्रयोग की महत्ता प्रत्यक्ष अनुभव कराके शासन को इस बात के लिए मनाया-दबाया भी जा सकता है कि, वह सुधार की दिशा में किस तरह सोचे और किस तरह बदले?
स्कूली शिक्षा के साथ विद्या का वह सारा क्षेत्र भी महत्त्वपूर्ण समझा जाना चाहिए, जो लोकमानस को प्रभावित कर सकने में समर्थ है। साहित्य भी एक प्रकार का प्रशिक्षण ही है, जिसके आधार पर लोकमानस का स्तर गिराया या उठाया जा सकता है। इस क्षेत्र में भी अपना दुर्भाग्य पीछा नहीं छोड़ रहा है। लेखक जो लिख रहा है, प्रकाशक जो छाप रहा है, बुकसेलर जो बेच रहा है, उसे ध्यानपूर्वक देखा, परखा जाए तो पता चलेगा कि इसमें से अधिकांश साहित्य तो मानस को विकृत करने वाला ही भरा पड़ा है। कामुकता भड़काने में साहित्य ने अति कर दी। उपन्यास, कथा, कहानी, कविता, विवेचन आदि में ऐसे ही संदर्भ भरे रहते हैं, जिनसे व्यक्ति की कामुक पशुता भड़के और उसके मस्तिष्क में यौन आकांक्षाओं के सपने भरे रहें। पत्र-पत्रिकाओं के मुख पृष्ठों पर जैसे चित्र छपते हैं और भीतर जो विषय रहते हैं, उनसे यह सिद्ध नहीं होता कि उन्हें लोकमंगल के लिये निकाला जा रहा हो। इस प्रयत्न का परिणाम नारी के प्रति अपवित्र दृष्टि, व्यभिचार, दांपत्य-जीवन की अव्यवस्था आदि विभीषिकाओं के रूप में सामने आ रही हैं। व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से दिन-दिन पतित होता चला जा रहा है। कामुकता भड़काने वाले साहित्य के बाद जासूसी, तिलिस्मी, जादूगरी, भूत-पलीत तथा अन्य प्रकार के भ्रम जंजाल फैलाने वाली, दुष्प्रवृत्तियों को जन्म देने वाली पुस्तकों से बाजार पटा पड़ा मिलेगा।
जो चीज तैयार की जायेगी आखिर वह खपेगी ही—और अंततः उसका प्रभाव पड़ेगा ही। साहित्य क्षेत्र में जो विष बीज बोये जा रहे हैं, उनका प्रभाव बौद्धिक भ्रष्टता के रूप में निरंतर सामने आता चला जा रहा है। सरकार का कर्तव्य है कि इसे रोके। प्रजातंत्रीय नागरिक अधिकारों का मतलब यह नहीं है कि समाज का सर्वनाश करने की खुली छूट लोगों को मिल जाय। श्रेष्ठ साहित्य सृजा जाय, उसके लिये सरकारी सहयोग, प्रोत्साहन मिलना चाहिये, पर जिस साहित्य से मानवीय दुष्प्रवृत्तियां भड़कने की आशंका है, उस पर नियंत्रण भी रहना चाहिए। कानून से विनाश रोका जा सकता है। ऐसे साहित्य के लिये कागज मिलने पर रोक लग जाय या दूसरे प्रतिबंध लग जायें तो घृणित साहित्य के सृजन में जो बुद्धि, संपत्ति और मेहनत लगती है, उसे बचाकर उपयुक्त दिशा में प्रयुक्त किया जा सकता है।
शिक्षा और साहित्य के बाद लोकमानस को प्रभावित करने वाला माध्यम ‘कला’ है। संगीत, गायन, अभिनय, नृत्य, नाटक, प्रहसन आदि केवल मनोरंजन ही नहीं करते, वरन् उनके माध्यम से कोमल भावनाओं को स्पर्श करने और उभारने का काम भी बड़ी खूबी के साथ होता है। सिनेमा और टी.वी. का क्षेत्र इन दिनों बहुत व्यापक हो गया है। अब लोकरंजन की प्रक्रिया सिनेमा और दूरदर्शन के इर्द-गिर्द जमा होती चली जा रही है। लाखों लोग उसे रुचिपूर्वक देखते हैं। प्रगतिशील देशों ने सिनेमा और टी.वी. की रचनात्मक प्रवृत्तियों को विकसित करने के लिये दिशा दी। वहां की सरकारों ने उस तरह के नियंत्रण लगाये और निर्देश दिये कि फिल्म और टी.वी. सिरियल जनमानस को ऊंचा उठाने वाले बनें। देशभक्त कलाकारों ने अपने नैतिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को समझा और निबाहा। फलस्वरूप वहां का सिनेमा और टेलीविजन वरदान सिद्ध हुआ। लोकरंजन के साथ लोकमंगल जुड़ा रहने से उसका परिणाम शुभ ही हुआ लोगों को विनोद भी मिला और विकास के लिये प्रकाश भी।
अपने यहां इस क्षेत्र में भी अंधकार ही है। फिल्म और टेलीविजन उद्योग को भी कामुकता भड़काने की एक सस्ती दिशा मिल गई है। लोगों की पशुता को भड़काकर आसानी से धन और ख्याति मिल सकती है, इस मान्यता ने कलाकार को सृजन का देवता बनने से रोक दिया और वह किसी भी उचित-अनुचित तरीके से लाभ कमाने के लिये मुड़ गया। इसे राष्ट्र का दुर्भाग्य ही कहना चाहिये। इससे भी अधिक कष्टकारक है सरकार की उदासीनता। जब अन्य अपराधों को रोकने के लिये कानून बन सकते हैं और अपराधियों को दंड देने के विधान बन सकते हैं तो कला के माध्यम से लोकमानस को विकृत करने वाले कुरुचिपूर्ण दुष्प्रयत्नों को क्यों न रोका जाना चाहिए? सरकार चाहे तो इस स्तर के प्रयत्नों को रोकने के लिये सामान उपलब्ध न होने देने से लेकर सेंसर की कठोरता तक ऐसे अनेक उपाय कर सकती है, जिनसे लोकमानस को विकृत करने वाली प्रवृत्तियां रुक सकें।
सभी शक्ति साधनों की तरह कला का भी अपना ऊंचा स्थान है। शस्त्र रखने के लाइसेंस केवल संभ्रांत नागरिकों को मिलते हैं, इसी प्रकार कला का प्रयोग करने की सुविधा भी केवल सही व्यक्तियों को सही प्रयोजन के लिए मिलने दी जाय। मनोरंजन के समस्त साधनों पर बारीकी से नजर रखी जाय कि वे विकृतियां उत्पन्न करने वाले विष बीज तो नहीं बो रहे हैं। नाटक, अभिनय, सरकस, नृत्य, संगीत एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों को खुल छूट नहीं मिलनी चाहिए। उनका शालीनता के लिये ही प्रयोग हो सके, ऐसी परिस्थितियां पैदा करनी चाहिए और सरकार को इसके लिये विशेष रूप से विवश करना चाहिए, चित्र प्रकाशन भी उन्हीं कला उद्योगों के अंतर्गत आता है अर्धनग्न, वेश्याओं जैसी कुरुचिपूर्ण भाव-भंगिमा भरी तस्वीरों की जो बाढ़ आ रही है, उसके साथ जुड़े हुए दुष्प्रभावों को समझा जाना चाहिए और उसके रोकने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। लाउडस्पीकरों के माध्यम से बजने वाले गंदे रिकार्ड कोमल मस्तिष्क के बालकों को दिन भर अवांछनीय प्रेरणा देते रहते हैं। रेडियो पर भी ऐसे ही अनुपयुक्त गीत अक्सर आते रहते हैं। सरकार चाहे तो इस प्रकार के कुरुचिपूर्ण प्रचार को एक इशारे में बदल सकती है। उसे इस बात का औचित्य समझना ही चाहिए।
इन दिनों राष्ट्रीयकरण की चर्चा जोरों पर है। बैंक, बीमा, भूमि, परिवहन आदि कई बातों का राष्ट्रीयकरण हो चुका है और कई के होने की तैयारी है। इस संदर्भ में सबसे अधिक आवश्यक राष्ट्रीयकरण उन साधनों को करने की जरूरत है, जो लोकमानस को प्रभावित करते हैं। साहित्य, सिनेमा, चित्र आदि के अधिकार उन लोगों के हाथ से छीन लिये जाने चाहिए, जो उनको भ्रष्ट करने में लगे हुए हैं। इन शक्तियों को केवल उन व्यक्तियों के नियंत्रण में दिया जाये, जो उन्हें केवल लोकमंगल के लिये ही प्रयुक्त करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हों। प्रस्तावों द्वारा, प्रदर्शनों द्वारा, हस्ताक्षर आंदोलनों द्वारा, पत्र-पत्रिकाओं द्वारा, सरकार को यह बताया जाना चाहिए कि जनता लोकमानस को विकृत किये जाने वाले प्रयत्नों से क्षुब्ध हैं। चुनावों के समय पर उम्मीदवार से प्रतिज्ञा करानी चाहिए कि, वह चुन जाने पर इस बौद्धिक भ्रष्टाचार को रोकने के लिये शक्ति भर प्रयत्न करेगा।
अपराधों को रोकने के लिये अभी और कड़े कानूनों की जरूरत है। हम देखते हैं कि 80 प्रतिशत अपराधी कानूनी पकड़ से बच निकलने में सफल हो जाते हैं। पुलिस, अदालत, कानून और दंड की सारी प्रक्रिया ऐसी हो, जो अपराधी को कानूनी पकड़ से न बचने दें और उसे ऐसा पाठ पढ़ाये, जो भविष्य में वैसा करने का साहस ही न कर सके। दूसरे लोग भी वैसा न करने के लिये आतंकित हों, हमारी न्याय व्यवस्था ऐसी कठोर होनी चाहिये। इस दिशा में मुलायमी बरतने, ढील छोड़ने या गुंजाइश रखने से अपराधी तत्त्वों के हौसले बढ़ते चले जायेंगे और सदाचरण की उपेक्षा बढ़ जायेगी। सरकार चाहे तो दुष्प्रवृत्तियों के प्रति अधिक कठोर रुख अपनाकर अपराधों का विस्तार रोक सकती है। सज्जनता को सम्मानित और पुरस्कृत करके भी सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। राजसत्ता जितने अंशों में लोकमानस को स्पर्श और प्रभावित करती हो, उतने ही अंशों में उसे सुधारात्मक रुख अपनाने के लिए अधिकाधिक प्रेरित, प्रभावित और विवश किया जाना चाहिए।