राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

दो शब्द

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किसी भी राष्ट्र की समर्थता-सशक्तता मुख्यतः उसके नागरिकों के चरित्र की दृढ़ता, नैतिकता, कर्तव्यनिष्ठा पर निर्भर है। यद्यपि आजकल बहुसंख्यक देश और राजनैतिक नेता बढ़ी-चढ़ी सैन्यशक्ति, उद्योग-धंधों की बहुलता और धन की अधिकता को ही राष्ट्रोन्नति का मुख्य चिह्न मानते हैं, पर वास्तव में ये सब आवश्यक होने पर गौण हैं। यदि देश के नागरिक सुयोग्य और कर्तव्य पर अडिग रहने वाले हैं, तो वह सब प्रकार की साधनों की त्रुटियों और अभावों की पूर्ति करके प्रगति मार्ग पर अग्रसर हो सकेंगे। पर यदि उनमें सच्चाई, ईमानदारी, कर्तव्यपालन आदि जैसे सद्गुणों की कमी है, तो उनको सब तरफ से सहायता मिलने पर भी वे पतित अवस्था में ही पड़े रहेंगे। आंतरिक दोष और दुर्गुणों के रहते कोई भी जाति या व्यक्ति वास्तविक उन्नति नहीं कर सकता।

इस पुस्तक में बताया गया है कि यद्यपि हमारे देश ने गत 40 वर्षों में काफी प्रगति की है, जिसके आधार पर वह अपने कई जबर्दस्त विरोधियों को सशक्त और कूटनीतिक संघर्ष में मात दें चुका है। पर इतना ही काफी नहीं, अब भी यहां के नागरिकों में अनेक चरित्रगत त्रुटियां विद्यमान हैं, जिनके कारण हमारी राष्ट्रीय-प्रगति की चाल बहुत मंद है और देश को अनेक अवसरों पर गंभीर संकटों का सामना करना पड़ता है। भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अश्लीलता, दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियां, छूत-अछूत की अन्यायपूर्ण भावना आदि ऐसे दोष हैं, जिनको राष्ट्रोत्थान की दृष्टि से दूर करना अनिवार्य है। यह पुस्तक पाठकों की आंखें खोलने वाली सिद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं।

                                                                                                                                                                          —प्रकाशक

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