राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

यह सर्वव्यापी भ्रष्टाचार रोका जाए

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वर्तमान युग के मुख्यतया गत 50 वर्षों में ही हमने शिक्षा, उद्योग, व्यवसाय, कला, शिल्प, विज्ञान आदि के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति की है और सफलतायें भी मिली हैं। हमारे जीवन स्तर में भी वृद्धि हुई है। स्वास्थ्य और जीवन निर्वाह की सुविधाओं से मृत्यु संख्या घटी है और हमारे औसत आयु में वृद्धि भी हुई है। जीवन में एक बहुत बड़ी बुराई भी दिनों-दिन बढ़ती रही, जिसने आज जन-जीवन को व्यापक स्तर पर प्रभावित कर रखा है। वह है—भ्रष्टाचार और अपराधों की वृद्धि। हमारे आचार-व्यवहार में सच्चाई, ईमानदारी की दिनों-दिन होने वाली कमी ने आज हमारे समक्ष एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या खड़ी कर दी है।

व्यवसाय के क्षेत्र में धोखाधड़ी, मिलावट, चोर-बाजारी, तस्करी, ठगी आदि व्यापक रूप में फैले हुए हैं, तो सरकारी क्षेत्र में रिश्वत, गबन, जालसाजी, सिफारिश, भाई-भतीजावाद फैला हुआ है। सामाजिक जीवन में व्याप्त स्वार्थपरता, नैतिक पतन, गुंडागर्दी, चोरी, उठाईगीरी, डकैती आदि का स्वरूप भी कुछ कम भयंकर नहीं है।

मजदूरों को पहले से अब अच्छे अधिकार प्राप्त हैं, उन्हें मजदूरी भी पहले से अधिक मिलती है, किंतु उनमें कार्य करने की स्वतंत्र बुद्धिक्षमता और जिम्मेदारी की इसी अनुपात में कमी भी आई है। जैसे-तैसे अच्छा-बुरा काम करके अपना समय पूरा करने की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। यदि कोई निगरानी रखने वाला न हो तो शायद कई गुने समय में काम भली प्रकार पूरा न हो। मजदूरों की असामयिक हड़तालें, राष्ट्रीय संपत्ति को हानि पहुंचाने की घटनायें, व्यवस्था को गड़बड़ करने के प्रयत्न आजकल सामान्य-सी बात हो गई है।

व्यवसाय के क्षेत्र में अपने लाभ की बात सर्वोपरि महत्त्व दिया जाने लगा है। अपने लाभ के लिए जो भी प्रयत्न—चाहे वह नैतिक हो या अनैतिक करने में लोग नहीं चूकते, लाभ और वह भी जितना मिले, इस मनोवृत्ति के कारण व्यापारी लोग वस्तुओं में मिलावट करते हैं। आज कोई वस्तु शुद्ध रूप में मिल जाए, यह बहुत बड़े सौभाग्य की बात है। घी, तेल, मसाले, आटा, बूरा इसी तरह की अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएं आज शुद्ध रूप में मिलना कठिन हो गई हैं। इन अशुद्ध पदार्थों के उपयोग करने से जन जीवन में स्वास्थ्य की खराबी, रोग, शारीरिक विकार व्यापक रूप से फैलते जा रहे हैं। इससे समाज की कितनी हानि होती है? ऐसा कोई भी मिलावट करने वाला व्यापारी नहीं सोचता। कुछ समय पूर्व हमारे देश से बड़ी संख्या में जूते रूस भेजे गये थे, किंतु नमूने से भिन्न और नकली होने के कारण उन्हें लौटा दिया गया, जिससे करोड़ों रुपये की हानि हुई, साथ ही भारत की प्रतिष्ठा कम हुई, सो अलग।

व्यापार में धोखाधड़ी, कहना कुछ देना कुछ, विज्ञापन उच्च किस्म का और वस्तु घटिया दर्जे की सामान्य-सी बात हो गई है। टैक्सों की चोरी, हिसाब में गड़बड़-घोटाला सामान्य-सी बात है। बड़ी-बड़ी कंपनियां इस तरह के षड्यंत्र में पकड़ी जाती है। करोड़ों रुपये टैक्स गबन करके कई व्यापारिक संस्थाएं गायब हो जाती हैं या दूसरे नाम से कारोबार शुरू करती हैं।

सार्वजनिक निर्माण के कार्यक्रमों में बड़ी-बड़ी योजनाओं के निकम्मे परिणाम बहुत जल्दी ही देखने को मिल जाते हैं। इस तरह बनी हुई इमारतें एक बरसात भी ठीक से नहीं निकाल पाती, उनमें से पानी चूने लगता है, तो दीवार में दरार पड़ जाती है। प्रसिद्ध भांगड़ा नंगल बांध में दरार पड़ जाना, पठानकोट-काश्मीर सड़क का बहना, पूना के बांध का टूटना आदि अनेकों ऐसी घटनायें हैं, जो हमारे निर्माण कार्यों में लगे लोगों के भ्रष्टाचार से संबंध रखती हैं। अक्सर इनमें मिलावटी सामान लगाया जाता है। केवल नक्शे के अनुसार खूबसूरत ढांचा खड़ा कर दिया जाता है। उसका जीवन कितना है? इसका निर्णय नहीं होता।

सरकारी मशीनरी और नौकरशाही का नाम तो इस भ्रष्टाचार के लिए और भी अधिक बदनाम हो रहा है। आजकल यह शब्द सरकारी कर्मचारियों के लिए ही अधिक प्रयुक्त हो रहा है। रिश्वतखोरी, सिफारिश, भाई-भतीजेवाद आदि कई रूपों में भ्रष्टाचार फैला हुआ है। बहुत से सरकारी कार्यालयों में किसी भी काम कराने में रिश्वत देना एक सामान्य-सी बात हो गई है। बिना दिए-लिए काम करना कठिन हो गया है। कई कार्यालयों में क्लर्कों की एक नियत दर-सी बंध गई है। उनकी भेंट न दी जाय तो समय पर ठीक-ठीक काम नहीं हो पाता। दस-पांच रुपये के पीछे भारी हानि उठानी पड़ती है। कई बार इन लोगों के कोप-भाजन बनने पर सामान्य-सी बातों में, कोई लाइसेंस बनवाने में, परमिट लेने में, रजिस्ट्री कराने में, किसी वस्तु का कोटा मंजूर कराने में, यहां तक कि आवश्यक कागजात दिखाने में, नौकरी के लिए संबंधित कर्मचारियों की मुट्ठी कर्म करनी पड़ती है। भुक्त-भोगी भली प्रकार जानते हैं कि अक्सर सरकारी काम को बिना दिये-लिए पूरे करना कठिन हो जाता है। कोई सिफारिश हो या कुछ देने के लिए भेंट-पूजा हो, तभी आसानी से काम निकलता है।

विभिन्न दफ्तरों में, विभागों में चल रही धांधलेबाजी एक सीधे आदमी के लिए सिर-दर्द बन जाती है। कई बार अपना सामान चोरी हो जाने पर, कोई वारदात हो जाने पर भी, उसकी शिकायत करने से हम बचना ही चाहते हैं, क्योंकि ठीक-ठीक न्याय तो मिलना दूर उल्टे थाने, कचहरियों के बार-बार चक्कर काटने पड़ते हैं। आने-जाने का, गवाहों का, लिखा-पढ़ी का खर्चा, दफ्तर के बाबू लोगों की भेंट-पूजा, तरह-तरह की फीस आदि से होने वाली हानि—पहले हो गई हानि से कहीं अधिक परेशानी हो जाती है।

यों सरकारी और गैर-सरकारी सभी क्षेत्रों में सज्जन मौजूद हैं। ईमानदारी का सर्वथा अभाव तो कभी नहीं हुआ और न होगा। अभी भी सज्जन और ईमानदार व्यक्ति हर क्षेत्र में मौजूद हैं, पर उनकी संख्या का घटते जाना और बेईमान भ्रष्ट तत्त्वों का बढ़ते जाना निश्चय ही हमारे राष्ट्रीय दुर्भाग्य का द्योतक है।

भ्रष्टाचार आज सीधे लेन-देन के रूप में ही नहीं रहा, वरन् अन्य कई तरीके काम में लाये जाते हैं। अपने भाई-भतीजे, रिश्तेदारों को सरकारी सुविधाएं देना, अपने पद के प्रभाव का उपयोग करके किसी से कोई नाजायज सुविधा प्राप्त करना, किसी भी रूप में कोई भेंट स्वीकार करना, यहां तक कि बिना मूल्य चुकाये अपने प्रभाव के कारण किसी वस्तु को ग्रहण करना भी भ्रष्टाचार के ही रूप है।

हमारे सामाजिक जीवन में भी अपराध की स्थिति कुछ कम नहीं है। गुंडागर्दी, चोरी, उठाईगीरी, ठगी, जालसाजी, ने हममें सुरक्षा को शंकालु बना दिया है। आज हमारी बहन-बेटियां गली-कूंचों में दूसरे स्थानों में आने-जाने में भय और संदेह का अनुभव करती हैं। अपने जान-माल की रक्षा के प्रति हम सशंकित रहते हैं। आये दिन होने वाली लूटपाट, हत्या, डकैती, बलात्कार, अपहरण आदि की घटनायें हमारी इस सामाजिक बुराई का ही परिणाम है।

विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई उक्त बुराइयां, अपराध आदि मनुष्य एक ही प्रवृत्ति के विभिन्न रूप हैं। मनुष्य के मन में बैठा हुआ भ्रष्टाचार ही अवसर पाकर विभिन्न रास्तों से व्यक्त होता है। समस्या एक ही है, रूप उसके भिन्न-भिन्न हैं। व्यापारी अपने ढंग से भ्रष्टाचार करता है। सरकारी अफसर, नौकर अपने कुर्सी पर बैठकर समाज को लूटते हैं, तो गुंडे बदमाश अपने ढंग से काम करते हैं।

रास्ता कोई भी हो, अपराध-अपराध ही है। वह हमारे समाज का एक कलंक तथा हमारी सभ्यता और संस्कृति के लिए अभिशाप है, क्योंकि जिस समाज के लोग अपने स्वार्थ लाभ के लिए काम करते हैं, अपने लिये दूसरों का शोषण करते हैं, किसी की मजबूरी से नाजायज लाभ उठाते हैं, अपना घर भरने, अपनी कोठियां बनाने के लिये दूसरों की पसीने की कमाई को छीनते हैं, वे सब समाजद्रोही हैं। ऐसे लोग जन-जीवन के लिए दीमक हैं, जो समाज की प्रगति, उन्नति और विकास के साधनों को पंगु बना देते हैं। उसे छिन्न-भिन्न करते हैं। लोक-जीवन को निरुत्साह और हीन बनाते हैं। ऐसे लोग किसी बाहरी खतरे से भी अधिक भयानक होते हैं समाज के लिए।

सभी क्षेत्रों में बढ़ते हुए इस भ्रष्टाचार ने हमारी जीवन पद्धति को बहुत क्लिष्ट, परेशानी-भरा बना दिया है। यही कारण है कि सब तरह के विकास होते हुए, जीवन-स्तर ऊंचा होने पर भी हमारी समस्याएं, उलझनें बढ़ती ही जा रही हैं। अशांति, संतोष तथा कष्ट बढ़ रहे हैं। देश की खुशहाली बढ़ाने के लिए योजनायें बनती हैं, टैक्स भी लगते हैं, किंतु भ्रष्टाचार एवं अनियमितताओं से योजनाएं पूरी नहीं होती हैं, जो होती हैं, वे जल्दी ही समाप्त भी हो जाती हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि भ्रष्टाचार किसी भी रूप में क्यों न हों, उसे दूर करने के लिए हमें सजग होना है, अन्यथा हमें एक बड़ी सामूहिक हानि उठानी पड़ेगी। हमारी व्यवस्था अस्त–व्यस्त होकर समाज छिन्न–भिन्न हो जायेगा। विशृंखल समाज जल्दी ही नष्ट भी हो जाता है। दूसरे लोग उस पर हावी हो जाते हैं। सभी विचारशील व्यक्तियों को जन-जीवन में से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए आवश्यक प्रयत्न करना चाहिए। यह समाज की बहुत बड़ी आवश्यकता है आज।

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