राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

हम शस्त्रों के लिए किसी के मोहताज न रहें

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युद्ध में व्यूह-रचना का महत्त्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। जो देश इस विद्या में जितना अधिक पटु होता है, उसकी विजय उतनी असंदिग्ध मानी जाती है। जनरलों (सेनापतियों) का महत्त्व इसी दृष्टि से है। प्राचीन काल में चक्रव्यूह तथा पिपीलिका व्यूह आदि के वर्णन मिलते हैं। वैसी रचनायें तो अब संभव नहीं, पर स्थल, जल और वायु सेना की सम्मिलित व्यूह रचना का महत्त्व आज भी बहुत अधिक है। सेना की विजय इन तीनों अंगों की सुचारु व्यवस्था, साधन और सुदृढ़ता पर निर्भर करती है।

लड़ाइयों की विजय सेनाओं के कुशल प्रशिक्षण पर ही अवलंबित नहीं; सिपाहियों के मनोबल, साहस, चातुर्य और संगठन के साथ-साथ उनके पास लड़ाई के अच्छे और आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्रों का होना भी नितांत आवश्यक है। इस युद्ध ने एक और शिक्षा दी और वह यह कि इन उपकरणों के लिए औरों के आश्रित रहना युद्ध में विजय के लिए भयावह बात है। स्थल सेना की मजबूती के लिए बंदूक से बख्तरबंद गाड़ियों तक की युद्ध के दौरान निरंतर सप्लाई आवश्यक है। लड़ाई होती है तो दुश्मन की ही क्षति नहीं होती। अपने भी टैंक टूटते हैं, अपनी मोटर गाड़ियां, जीपें और संचार व्यवस्थायें भी नष्ट होती हैं। इनकी तत्काल पूर्ति होती रहे तो फिर विजय सुनिश्चित अवश्य हो जाती है।

लड़ाकू विमान और उनसे संबंधित संपूर्ण आवश्यकताएं, समुद्री जहाज, पनडुब्बियां, रडार आदि से जहां वायु सेनायें और जल सेना युद्ध करती हैं, वहां इनके नष्ट होने पर तत्काल दूसरे अस्त्र तैयार रखने की बड़ी आवश्यकता है। आज की लंबी चलने वाली लड़ाइयां तभी जीती भी जा सकती हैं।

भारत में प्रतिरक्षा की दिशा में सोचने, विचारने और तैयारी करने का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह रहा है कि इनके लिये पराश्रित न हुआ जाए। दूसरे यथासंभव अधिक से अधिक सामान तैयार किये जाय, ताकि संकटकालीन स्थिति में दूसरे का मुंह न देखना पड़े। यह कदम वास्तविक भी है और प्रसन्नता की बात यह है कि इस दिशा में हम लगभग 80 प्रतिशत आत्म-निर्भरता प्राप्त भी कर रहे हैं।

सन् 1962 के चीनी हमले के बाद से ऑटोमेटिक रायफलें, उनका गोला बारूद, कारबाइन (छोटी बंदूकें) हैवी मोटर, टैंकभेदी तोपें, पहाड़ी तोपें तथा वायुयान की तोपों का गोला बारूद के कई कारखाने यहां खोले गये, जो अहर्निश अपना उत्पादन चला रहे हैं। इस दिशा में कितना ही लंबा युद्ध हो, सामान की कमी न पड़ेगी, ऐसा विश्वास किया जा सकता है।

इस उत्पादन की क्षमता को भी बढ़ाया जा रहा है। सन् 1963-64 में हमारा उत्पादन 111.34 में हमारा उत्पादन 111.34 करोड़ रुपये का हुआ जबकि सन् 1961-62 में कुल 41.88 करोड़ रुपये मूल्य का ही सामान तैयार किया गया। पिछले तीन वर्ष की अवधि में तीन कारखानों को बढ़ाकर सात कर दिया गया। यह कारखाने युद्ध में प्रयुक्त होने वाले विस्फोटक पदार्थों से लेकर केबुलों तक का निर्माण करते हैं। प्रतिरक्षा उत्पादन मंत्रालय के अनुसार—संभवतः अगले दशक तक भारत विश्व का सर्वशक्तिमान् राष्ट्र होगा।

प्रतिरक्षा सामग्री के निर्माण में जीपें, ट्रकें तथा भारी शस्त्र भी आते हैं। इस दिशा में हमने उल्लेखनीय प्रगति की है। हमारे अपने निर्माणगृहों से अब तक अधिकांश भारतीय पुर्जों द्वारा बनाई गई 11200 ‘‘निसान’’ ट्रकें 6900 से अधिक ‘‘शक्तिमान्’’ गाड़ियां तथा 4500 ‘‘निसान’’ पेट्रोल जीपें तैयार की गई हैं, जो आवश्यकताओं की पूर्ति में विदेशी ट्रकों तथा जीपों से अधिक हल्की, कम ईंधन प्रयुक्त होने वाली तथा अधिक उपयोगी सिद्ध हुईं हैं। सरकार इनके अधिकतम निर्माण के लिए एक ‘‘कंपोजिट व्हीकल फैक्टरी’’ खोलने पर विचार कर रही है। इन कारखानों से सीमांत सड़क संगठन के उपयोग के लगभग हजारों ट्रैक्टर भी बनाये जा चुके हैं, जो इस समय अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में संलग्न हैं।

अपने सफल प्रयोग के बाद विशुद्ध भारत निर्मित टैंक ‘‘विजयंत’’ शीघ्र ही रणक्षेत्र में तैनात है। यह टैंक अमेरिकी पैटर्न, सफी, संचोरियन अथवा चर्चिल टैंकों से भी अधिक कारगर और आधुनिकतम हैं। आदमी उतारने वाली छतरियों का निर्माण तथा वायुयान से जीपें गिराने के लिए एक ‘‘पैक प्लास्टर’’ बनाने का काम भी भारतवर्ष में प्रारंभ कर दिया गया है।

इनके अतिरिक्त जवानों के लिए गर्म वस्त्र, पर्वतारोहण के वस्त्र और उपकरण, शस्त्रास्त्रों के पुर्जे तथा इंजीनियरिंग के सामान का उत्पादन भी यहां हो रहा है। पूरी योजना अपनी शक्ति से काम करने लगेंगे तो देश न केवल स्थल सेना की सब आवश्यकताओं के लिये आत्म-निर्भर हो जायगा, वरन् इनका निर्यात भी प्रारंभ कर दिया जायगा।

प्रतिरक्षा उत्पादन में उड्डयन उपकरणों का महत्त्व और भी अधिक हैं। अभी तक हम इस संबंध में अधिकांश विदेशियों पर निर्भर रहें हैं, पर पिछले दिनों इस क्षेत्र में भी हमने उल्लेखनीय प्रगति की है। हाल की लड़ाई में भारत में ‘‘नैट’’ विमानों ने दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया है। बेंगलोर में बनने वाले इस विमान का उत्पादन अब और भी अधिक बढ़ा दिया गया है।

‘‘नैट’’ रफ्तार में सैबर जेट से भी तेज है। यह 700 मील प्रति घंटा की रफ्तार से और 15000 मीटर की ऊंचाई तक उड़ सकता है। 30 मिलीमीटर की दो तोपें भी फिट होती हैं, जो एक बार में 100 से अधिक गोले दाग सकती हैं। बम फेंकने, राकेट चलाने, दिशा व दूरी नापने के यंत्रों से यह पूरी तरह लैस होता है।

नेट के अतिरिक्त वैंपायर, हंटर तथा मिस्टीयर्स विमानों का प्रयोग भी इस युद्ध में हुआ। एच.एफ. तथा कैनबेरा लड़ाकू विमानों की भी साझेदारी रही। वैंपायर विमान भी भारत में बने हैं, पर चूकि नैट विमान अधिक उपयोगी सिद्ध हुये हैं, इनका उत्पादन अब बंद कर दिया गया है। एच.एफ. 104 का निर्माण भी यहीं हुआ किंतु उपयुक्त इंजन न तो ब्रिटेन से ही मिल सका और न ही संयुक्त अरब गणराज्य से मिल सका अतः इसका उत्पादन बंद कर दिया गया है।

मिग 21 विमान दुनिया के शक्तिशाली विमानों में गिना जाता है। इसके निर्माण के लिए हैदराबाद, कोरापूत और नासिक में तीन कारखाने खोले गये हैं।

प्रशिक्षण देने के लिए एच.टी. 2 और हिंदुस्तान जेट ट्रेनर 16 एच.जे.टी. 16 तथा एवरो 748 का उत्पादन भी हमारे यहां ही हो रहा है। एवरो 478 भारी माल ढोने का काम करता है। आरनुस्ते हैलिकॉप्टर का निर्माण कार्य भी जल्दी ही प्रारंभ कर दिया जा रहा है।

इन विमानों का उत्पादन बेंगलोर की ‘‘हिंदुस्तान एयर क्राफ्ट लि. कंपनी’’ कर रही है। इस कंपनी को सन् 1964 में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड से संयुक्त कर दिया गया है। कानपुर में भी ऐसा ही कारखाना चल रहा है। बेंगलोर की ‘‘एयरोनॉटिक्स’’ ट्रान्समीटर, रडार और विभिन्न कलपुर्जे भी बनाती है। इनमें ट्रांजिस्टर, कॉपीसेटर, वाल्ब तथा क्रिस्टल आदि सम्मिलित हैं, यह सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण वायुयानों के उपयोग में आते हैं।

वायु सेना के क्षेत्र में भारत ने विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया है। अब अग्नि, पृथ्वी, नाग, त्रिशूल, सूर्य जैसे प्रक्षेपास्त्र विदेशी राष्ट्रों को आश्चर्यचकित करने वाले हैं। इनकी मारक क्षमता 4500 किलोमीटर तक की है। प्रक्षेपण करने वाले यान तो विशेष आश्चर्यजनक हैं—जो अनेकों बार प्रयुक्त किये जा सकते हैं। साथ ही साथ उनका विमानन में भी प्रयोग होगा।

नौ-सेना की आवश्यकताओं की पूर्ति का भी पूरा ध्यान दिया गया है, क्योंकि यह युद्ध का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है। अंग्रेजों के खिलाफ हिटलर की पराजय का मुख्य कारण उसकी कमजोर नौ-सेना बतलाई जाती है। संतोष है कि समुद्री जहाजों के निर्माण और उनकी मरम्मत पर भी वैसा ही ध्यान दिया गया है। यह कार्य बंबई में मजगांव डेक तथा कलकत्ते की ‘‘गार्डन रीच वर्कशाप’’ में प्रारंभ हुआ है। यह दोनों संस्था इंजीनियरिंग उपकरणों का भी निर्माण करते हैं, जो जलसेना के बेड़े में प्रयुक्त होते हैं। समुद्री डीजल इंजन तथा एयर कंप्रेसरों का उत्पादन भी कंपनियां करती हैं।

भारत के मुकाबले पाक चीन की सांठ-गांठ को देखते हुए यह निर्माण कार्य आवश्यक भी है और उपयुक्त भी। हम आत्म-निर्भर हुये बिना किसी देश का सफलतापूर्वक मुकाबला नहीं कर सकते थे, पर इस आत्मनिर्भरता को देखते हुए यह विश्वास हो गया है कि भारत किसी भी भावी आक्रमण का मुकाबला सफलतापूर्वक कर लेगा। व्यूह रचना के लिए औरों का मुंह न ताकना पड़ेगा।

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