राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

प्रजा अपने कर्तव्यों से विमुख न हो

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चोर का दाव तब लगता है जब मालिक सो रहा हो। जागते घर में चोरी नहीं हो सकती। प्रजातंत्र की शासन व्यवस्था में सरकार प्रजा के हित के लिए प्रजा के द्वारा ही चलती है। पर यदि प्रजा का हित न हो, चंद मुट्ठी भर लोगों की संपन्नता तथा सुविधाएं प्राप्त करने की स्थिति बढ़ती जायें और प्रजाजनों के कष्ट बढ़ते जायें, तो समझना चाहिए कि कहीं कोई बड़ी गलती रज रही है। अपने देश में हमें यह गलती मतदाता की गफलत और अदूरदर्शिता के रूप में दिखाई पड़ती है। मालिक सो जाय तो चोरी की घात लगती है। मतदाता अपने बहुमूल्य मतदान का उपयोग समझ-बूझकर न कर रहा हो, तो फिर उसे लाभ कैसे मिलेगा? मतदाता की असावधानी तथा अदूरदर्शिता को हटाने के लिए हमें प्राणपण से चेष्टा करनी चाहिए, ताकि उस श्रेष्ठ शासन पद्धति का लाभ सर्व साधारण को मिल सके।

किसी एक कारखाने में एक क्लर्क की जरूरत थी। विज्ञापन छपा। अर्जी लेकर मुलाकात के लिए कितने ही बाबू आये। मैनेजर ने योग्यता के हिसाब से एक व्यक्ति को पसंद किया और अपनी सिफारिश के साथ उसे मालिक के पास नियुक्ति के लिये ले गया। मालिक भी योग्यता की दृष्टि से संतुष्ट हुआ, पर जब उसके लिबास-पहनाव को देखा तो अधिक पूछताछ शुरू की। मालूम हुआ कि वह कपड़े कई सौ रुपये के हैं और वह सदा से ऐसे ही पहनने का आदी रहा है। मालिक ने उसे काम देने से यह कहकर इनकार कर दिया, कि यहां तो 200 रु. मासिक मिलेंगे। इतना तो आपके ठाठ-बाट के लिए पूरा नहीं पड़ेगा। गुजारे के लिए आपको कोई न कोई अनुचित रास्ता ढूंढ़ना पड़ेगा। इससे मुझे सदा संदेह और अविश्वास बना रहेगा। मुझे तो सादगी से रहने वाला ऐसा ईमानदार व्यक्ति चाहिए, जो नियत वेतन में ही संतोषपूर्वक अपना गुजारा चला ले।

चुनाव जीतने के लिए अब इतना अधिक खर्च करना पड़ता है कि उसे पूरा कर सकना मामूली आदमी के बलबूते की बात नहीं रही। कानून के अनुसार थोड़ा-सा ही पैसा प्रतिनिधियों को चुनाव में खर्च करने का अधिकार है। इसका उन्हें हिसाब भी देना पड़ता है, पर वह कागजी कार्यवाही भर है। वास्तविक खर्च उससे कितने गुना अधिक होता है, उसे भुक्तभोगी या निकट संपर्क में आने वाले भली-भांति जानते हैं। सवारी, सिफारिश, पर्चे, पोस्टर, भाषण, जुलूस आदि में होने वाले खर्चे तो गौण हैं। असली खर्चा तो लोगों को अपनी ओर मोड़ने के लिए किया जाता है। प्रभावशाली लोगों को अपने पक्ष में मिलाने के जोड़-तोड़ में न जाने कितना धन लग जाता है? चुनाव के दिन वोटरों को मुफ्त सवारी और मुफ्त भोजन आदि देने की मनाही है, पर उस मनाही पर अमल कहां होता है? कानून तो हर बुरे काम के विरुद्ध बने हुए हैं और नियम तोड़ने पर कड़े दंड की व्यवस्था है, पर वह व्यवस्था कितनी चलती है, यह हम आंखों से देखते हैं। कानून-कायदे भर की बात होती तब तो कितना अच्छा होता। पर जो हो रहा है, आखिर आंखें उसे भी देखती तो हैं ही। चुनाव जीतना इन दिनों कम खर्चे का काम नहीं। यों अपवाद तो हर जगह होते हैं। ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो उचित तरीकों के लिए उचित खर्च ही करते हों, पर उनकी संख्या नगण्य ही होगी।

जब तक चुनाव इतना महंगा रहेगा तब तक केवल संपन्न लोग ही विजयी होते रहेंगे। आदर्शवादी और लोकसेवी जीवन-क्रम अपनाने वाला कोई बिरला व्यक्ति ही इतने साधन जुटा सकता है, कि इतने महंगे चुनाव का वहन कर सके। ऐसी दशा में परखे हुए और तपे हुए ऐसे व्यक्तियों का शासन सूत्र संभाल सकने के स्थान तक पहुंचना कठिन ही बना रहेगा, जो निर्भीक और निष्पक्ष हैं तथा जिनमें सूझ-बूझ और क्षमता इस कार्य को संभालने की विद्यमान है।

कई राजनीतिक पार्टियां अपने प्रतिनिधियों को पैसा देती हैं। यह पैसा जिन लोगों से आता है, उनका प्रभाव और दबाव उन संस्थाओं पर रहना संभव है। इसके अतिरिक्त उतनी बड़ी धनराशि जुटाने के लिए भी उन संस्थाओं को न जाने क्या-क्या, ऊंच-नीच करनी पड़ती होगी और उसकी प्रतिक्रिया के क्या-क्या परिणाम होते होंगे? यह आम चर्चा का विषय नहीं है। वस्तु स्थिति को जो लोग समझते हैं, उन्हें इस निष्कर्ष पर ही पहुंचना पड़ता है कि पार्टियों द्वारा दिये हुए धन से जीतने वाले प्रतिनिधि को भी स्वतंत्रता निष्पक्षता अक्षुण्ण नहीं रह सकती और उसे भी अपनी स्वतंत्र चेतना के अनुसार उपयुक्त सुझाव या दबाव देने का अधिकार नहीं रहता। उस बेचारे को कठपुतली ही बनकर रहना पड़ता है।

स्वयं संपन्न न हो और पार्टी अप्रत्यक्ष दबाव से बचने के लिए बाहरी सहायता लेना भी उचित न समझे, तो फिर एक ही उपाय रह जाता है कि चुनाव का खर्च न्यूनतम हो और उसे उस क्षेत्र के मतदाता स्वयं वहन करें। जो अपना समय ईमानदारी से लोकहित के कार्यों में देना चाहता है, उसे इस बात के लिए मजबूर न किया जाना चाहिए कि वह चुनाव में खर्च करने के लिए लंबी-चौड़ी धन राशि भी निकाले। इनका दबाव जिस पर पड़ेगा—उसकी ईमानदारी अटल बनी रहना संदिग्ध हो जायगा। जो वेतन चुने हुए प्रतिनिधियों को मिलती है, वह उनके पद और कार्य के साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारियों को पूरा करने लायक ही होता है। उसमें से इतनी बचत संभव नहीं कि खर्चीले चुनाव का बोझ भी वहन किया जा सके।

राजनैतिक पार्टियों में से जो जिसे पसंद हो, वह उसमें रहे, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। प्रायः राजनैतिक पार्टियां देशभक्त होती हैं और हर कार्यक्रम के अनुसार देश को आगे बढ़ाया जा सकता है। शर्त इतनी भर है कि प्रतिनिधि सच्चे अर्थों में देशभक्त और सच्चे अर्थों में ईमानदार तथा कर्तव्यपरायण हों। राजतंत्र जो इन दिनों बहुत बदनाम और पिछड़ा हुआ माना जाता है, किसी जमाने में रामचंद्र जी के राजा होने पर उसी पिछड़े समझे जाने वाले तंत्र के आधार पर सतयुग के दृश्य उपस्थित हो गये थे। और उसमें एक राज्य, धर्म राज्य के सपने गांधी जी तक देखते रहे। अच्छे से अच्छे वाद और संगठन जब बुरे लोगों से भर जाते हैं तो उसके परिणाम बुरे ही होते हैं। इसलिए किस राजनैतिक पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में क्या छापा है? इतना देख लेना पर्याप्त नहीं। सवाल यह है कि उन घोषणाओं और ईमानदारी से पूरा कौन करेगा? यदि व्यक्तियों का स्तर ऊंचा न रहे तो ऊंची घोषणाओं और आश्वासनों के बावजूद जो कुछ सामने आवेगा निराशा और चिंताजनक ही होगा।

अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने और चापलूसों द्वारा अपनी बड़ाई कराने का इन दिनों खूब रिवाज है। समय आने पर अच्छाइयों के तिल को ताड़ बना देने और बुराइयों के ऊंट को घड़े में छिपा देने की कला में लोग बहुत प्रवीण हो गये हैं। चुनावों के समय जनता को गुमराह करने के लिए भले को बुरा और बुरे को भला साबित करने के लिए जो कुछ जिस ढंग से कहा जाता है उसे देख-सुन के आश्चर्य होता है कि युद्ध और प्रेम में सब कुछ सही-गलत किया जाता है। युद्ध और प्रेम का अनुभव जिन्हें न हों, वे चुनावों के समय जो कुछ होता है उसे तटस्थ और सूक्ष्मदर्शी की बारीकियों से देखें तो पता चलेगा कि उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाने का जैसा सुव्यवस्थित क्रम चुनावों के दिनों अपनाया जाता है, उनसे और सब अवसर पीछे रह जाते हैं। इन प्रचार प्रोपेगैंडा के कुहासे को चीरकर हमें वस्तु स्थिति का पता लगाना चाहिए और प्रतिनिधि के पिछले जीवन की गतिविधियों का बारीकी से मूल्यांकन करना चाहिए। कोई व्यक्ति एक दिन में ही लोकसेवी, परमार्थी या देशभक्त नहीं बन जाता। जिसके अंदर ये प्रवृत्तियां होती हैं, वे पग-पग पर उन्हें अनायास ही कार्यान्वित करते रहते हैं और उन प्रयत्नों तथा घटनाक्रमों की जांच-पड़ताल की जाय तो सहज ही पता लग जाता है कि किसी व्यक्ति का चरित्र, अंतःकरण एवं लक्ष्य प्रयोजन किस दिशा में किस गति से काम कर रहा है? विदेशों में व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को अलग-अलग कहा जाता है और व्यक्तिगत जीवन की भ्रष्टताओं को सार्वजनिक कार्यों की चर्चा चलने पर आड़े नहीं आने दिया जाता। यह गलत दृष्टिकोण है। व्यक्ति एक है, उसका चिंतन और चरित्र एक ही हो सकता है। इसलिए व्यक्तिगत जीवन को सार्वजनिक जीवन के साथ जुड़ा ही होना चाहिए। निजी जीवन में जिसके दोष-दुर्गुण भरे पड़े हैं, वह सार्वजनिक जीवन में सही खड़ा रह सकेगा—इसमें पूरा संदेह है।

प्रतिनिधि के चुनाव में उसकी सक्रियता, सूझ-बूझ, लोकमंगल की भावना प्रगतिशीलता, प्रतिभा, शिक्षा, योग्यता आदि सभी बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए, इन विशेषताओं के बिना सही रूप से प्रतिनिधित्व कर सकना और अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन संभव ही न हो सकेगा। इसके अतिरिक्त सबसे मुख्य बात जो रह जाती है, वह है चरित्रनिष्ठा, सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता। आदर्श के प्रति हर परिस्थिति में खड़े और डटे रहने का साहस जिसमें है, उसे ही प्रतिनिधि के योग्य स्वीकार किया जाना चाहिए। शिक्षा, संपन्नता या कुशलता के आधार पर ही किसी को इस योग्य नहीं मान लिया जाना चाहिए कि वह प्रतिनिधित्व के साथ जुड़े हुए कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को ठीक तरह निभा सकेगा। व्यक्तिगत चरित्र, पिछले जीवन के क्रियाकलाप तथा भविष्य में आगत उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सकने योग्य तत्परता एवं सूझ-बूझ की कसौटी पर भावी प्रतिनिधियों की पंक्ति में खड़े लोगों को परखा जाना चाहिए और उनमें से जो सर्वोत्तम हो, उसी के पक्ष में विचारशील लोगों के द्वारा निर्णय लिया जाना चाहिए। अच्छा हो यह निर्णय विवेकवान् निष्पक्ष लोगों के बहुमत द्वारा व्यक्तिगत परामर्श में लिया जाय। सभा-सम्मेलनों में तो पक्षपात पड़ जाता है और उसमें उपद्रवी लोगों का ही पल्ला भारी रहता है। वे चीख-चिल्लाकर उल्टा-सीधा वातावरण भी बदल देते हैं। इसलिये इस संबंध में विचारशीलों और दूरदर्शियों की विचार-विनिमय वाली गोष्ठी ही उपयुक्त माध्यम मानी जानी चाहिए। राजनैतिक पार्टियों ने जो राग-द्वेष का रूप इन दिनों ले रखा है, वह भी ऐसे ही भले लोगों के पहुंचने पर समाप्त होगा। 99 प्रतिशत शासन व्यवस्था तो सबके लिए समान हल ही प्रस्तुत करती है। नीतियों संबंधी थोड़े से आधार ही मतभेद के रह जाते हैं, जो यदि प्रतिनिधियों में सद्भावना, दूरदर्शिता एवं मिल-जुलकर काम करने की भावना हो तो वे थोड़े मतभेद भी आड़े नहीं आते। पार्टियों को कसौटी पर कसने की अपेक्षा प्रतिनिधि को उनके चरित्र और आदर्शों की कसौटी पर ही कसा जाना चाहिए। उनके विरोध में खड़े होने वालों को समझाया जाना चाहिए कि यह किसी की इज्जत घटने-बढ़ने का व्यक्तिगत सवाल नहीं, आप देशसेवा का दूसरा रास्ता चुन लें। समझदार होंगे तो मान भी सकते हैं। नहीं तो लोकमत के विपरीत चलने का फल भी उन्हें असफलता के रूप में भुगत लेने दिया जा सकता है।

दूसरा प्रश्न खर्च संबंधी तथा प्रचार व्यवस्था संबंधी रह जाता है। इस भार को उठाना विशुद्ध रूप से मतदाताओं का कर्तव्य है, क्योंकि प्रतिनिधि उन्हीं की सेवा करने जा रहा है। हम घर में, कारखाने में नौकर रखते हैं, तो उनका निर्वाह खर्च भी देते हैं। ट्रेनिंग, ड्रेस, छुट्टी, किराया आदि का प्रबंध भी करते हैं। मुकदमे में वकील खड़ा करते हैं, तो उसकी फीस भी देते हैं। प्रतिनिधि जब अपना ही काम करने भेजा जा रहा है, तो नियत स्थान तक पहुंचाने का खर्च भी इस क्षेत्र की जनता को ही देना चाहिए। न केवल खर्च वरन् प्रचार की व्यवस्था भी उन्हीं लोगों को संभालनी चाहिए। कोई व्यक्ति अपनी प्रशंसा करता फिरे और अपने लिए आपसे वोट मांगे यह उसके लिए सम्मान की बात नहीं है और न उस क्षेत्र के लिए जनता को जिसने उसे खड़ा किया है। यह कार्य भी उस क्षेत्र के समझदार और प्रभावशाली लोगों के द्वारा ही संपन्न किया जाना चाहिए।

मतदाताओं को अपना उत्तरदायित्व समझने और कर्तव्य पालन करने की शिक्षा एक सुव्यवस्थित आंदोलन के रूप में दी जानी चाहिए। ‘अपने मालिकों को समझायें’ नारे को ध्यान में रखते हुए हमें एक ऐसा अभियान खड़ा करना चाहिए, जो सब राजनैतिक पार्टियों से सर्वथा स्वतंत्र हो और जिसकी नींव विशुद्ध देशभक्ति, चरित्रनिष्ठा एवं कर्तव्यपालन की जागरूकता उत्पन्न करने के आधार पर खड़ी की जानी चाहिए। राजनीति, धर्म-संप्रदाय, सामाजिक मान्यताओं को इसमें आड़े न आने दिया जाय, वरन् सभी वर्गों के विचारशील लोग इसे प्रजातंत्र को उपयोगी बनाने के प्रयास का शिलान्यास मानकर उसकी महत्ता को समझें और राष्ट्र-निर्माण के इस नितांत आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण कार्य में बिना किसी भेद-भाव के अग्रसर बनाने के लिए अपना पूरा योगदान दें।

मतदाता को वोट का महत्त्व और उसके सदुपयोग, दुरुपयोग के संभावित भले-बुरे परिणामों को विस्तारपूर्वक उदाहरणों के साथ समझाया जाना चाहिए। असल में हुआ यह है कि अब तक पार्टियों के प्रतिनिधियों ने वोट मांगे-झपटे तो हैं, पर वोटर के कर्तव्यों का ज्ञान कराने और मतदान की पवित्रता की गरिमा को समझाने का प्रयत्न नहीं किया। संभव है—इसलिए न किया गया हो कि उनमें से अधिकांश इस कसौटी पर खोटे सिद्ध हो सकते थे और उनका ही पत्ता कट सकता था। जो हो, उस भूल को अब सुधारा जाना चाहिए और ‘‘गिनती भूल जाने पर नये सिरे से गिनने’’—अथवा ‘‘सुबह का भूला शाम को घर लौट आवे’’ वाली उक्ति के आधार पर यह कार्य अब आरंभ करना चाहिए, जो आज से पचास वर्ष पूर्व किया जाना चाहिए था।

वोटरों को न केवल उनका उत्तरदायित्व समझाया जाय वरन् उपयुक्त प्रतिनिधि छांटने की सांगोपांग विधि-व्यवस्था भी समझाई जाय। बात लगती छोटी है, पर वस्तुतः वह एक समग्र और दर्शन की तरह है कि—चुने जाने के लिये लालायित लोगों को धक्का मारकर आगे बढ़ निकलने को आतुर लोगों में से उपयुक्त व्यक्ति कैसे-किस आधार पर छांटा जाय? धूर्त लोग इस अवसर पर भी अपने पिट्ठुओं द्वारा काफी धक्का-मुक्की और घुसपैठ कर सकते हैं। इस कुहराम के बीच दूध और पानी को कैसे छांटा जाए और उस कार्य को कर सकने वाले केस कैसे पकड़े जायें? यह कार्य काफी सूझ-बूझ का है, सो उसे विवेकशील लोगों द्वारा पूरा किया ही जाना चाहिए।

इस आंदोलन की ऐसी सर्वांगपूर्ण संरचना होनी चाहिए, जिसे अपनाकर उस क्षेत्र की जनता अपने प्रिय प्रतिनिधि को चुनाव संग्राम में विजयी बनाने में सफल हो सके। कार्यकर्ताओं, स्वयं-सेवकों की एक सेना का गठन इस व्यवस्था का आवश्यक अंग होगा, जो घर-घर जाकर प्रजातंत्र का स्वरूप और उसमें वोट के उपयोग का महत्त्व समझाये। निश्चित प्रतिनिधि के पक्ष में जो आवश्यक जानकारी है, उसे सर्वसाधारण को समझाये और अपने स्वतंत्र विवेक का उपयोग करे। बिना किसी दबाव, लोभ या बहकावे में आये विशुद्ध देशभक्ति की भावना से वोट देने के लिये तैयार करें। ऐसा निष्पक्ष साहस उत्पन्न करना इस संगठन सेना का प्रधान कार्य होना चाहिए और उन्हें ही यह काम भी सौंपा जाना चाहिये कि चुनाव के दिनों मतदाता को हजार काम छोड़कर उत्साहपूर्वक अपने पैरों मतदान के लिये पहुंचने और उसके बदले में प्रतिनिधि पर किसी प्रकार का आर्थिक अथवा बुलाने, याद दिलाने का बोझ न पड़ने दें। न अहसान ही प्रतिनिधि पर जताये। यह कार्य उसे अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का अनिवार्य अंग मानकर ही संपन्न करना चाहिये। प्रचार, पर्चे, पोस्टर, सभा, जुलूस यदि आवश्यक हों और उनकी व्यवस्था करनी ही पड़े तो इसका खर्च भी मतदाताओं को हर घर से एक-एक मुट्ठी अनाज या पैसा इकट्ठा करके जमा करना चाहिए। उपयुक्त प्रतिनिधि चुने जाने का यही तरीका है और ऐसे चुनावों को ही वास्तविक जनमत पर आधारित कहा जा सकेगा और इसी में अपने देश तथा प्रजातंत्र आदर्श का मस्तक ऊंचा होगा।

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