राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

हम राजनीति में भाग क्यों नहीं लेते?

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


ज्ञान यज्ञ द्वारा सर्वतोमुखी जन जागरण का अपना महान अभियान अगले दिनों कुछ चमत्कारी उपलब्धियां उत्पन्न करके हिंसात्मक मानवीय आस्थाओं और अभिरुचियों को परिवर्तित करने जैसे दुष्कर कार्य की ओर अग्रसर हुआ। पिछली शताब्दियों में रूसो ने प्रजातंत्र के तथा मार्क्स ने सिद्धांतों की उपयोगिता को जिस प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया और इस विचारणा से प्रभावित लोगों ने जिस उत्साह एवं पुरुषार्थ के साथ आगे कदम बढ़ाया, उसका परिणाम अद्भुत निकला। आज इन दो मनीषियों द्वारा प्रतिपादित आदर्शों के आधार पर संसार के तीन चौथाई भाग पर शासन चल रहा है। विचारों की शक्ति अति प्रबल है। यदि वे बुद्धिसंगत एवं उपयोगिता की कसौटी पर खरे सिद्ध हो सके तो निश्चय ही उनका स्वागत होगा। फिर यदि उस विचारणा को सुव्यवस्थित संगठन द्वारा व्यवस्थित कार्य पद्धति द्वारा व्यापक बनाने का सुदृढ़ कार्य किया जाए तो कोई कारण नहीं कि वे अपने प्रकाश से विश्व के बड़े भाग को प्रकाशित न करें।

युग-निर्माण योजना द्वारा प्रतिपादित जनमानस में उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता की प्रतिष्ठापना के लिये जो सशक्त अभियान चलाया जा रहा है, उसने पिछले दिनों मजबूती के साथ जड़ जमाई है। अपने परिवार की चार हजार शाखाओं से संबद्ध लाखों सदस्य जिस उत्साह के साथ विचारक्रांति का पथ प्रशस्त करने में लग गये हैं और सृजनात्मक एवं संघर्षात्मक शत-सूत्री योजना की जो प्रवृत्तियां चल पड़ी हैं, उन्हें देखते हुए हर कोई विश्वास कर सकता है कि अगले दिनों अपना परिवार जन-जागरण एवं भावनात्मक नवनिर्माण की भूमिका संपादित करेगा। धरती पर स्वर्ग अवतरण के अपने स्वप्न साकार होकर रहेंगे।

हम लोग जिस तत्परता के साथ नवयुग-निर्माण की दिशा में आंधी-तूफान की तरह गतिशील हो रहे हैं, उसके संभावित परिणाम की प्रकाशवान् आशा सर्वत्र बंध चली है। इसलिए जिनका हमारी ही तरह विश्व शांति एवं मानवीय प्रगति के प्रति विश्वास है, वे अनेक प्रश्न पूछते और अनेक परामर्श देते रहते हैं, यह उचित भी है। उत्तरदायित्व संभालने वालों से अधिक सही और अधिक ठोस काम किये जाने की आशा की ही जानी चाहिए। इस दृष्टि से अपने उद्देश्यों का परिपूर्ण समर्थन करते हुए भी कार्यक्रमों में सुधार एवं परिवर्तन करने के अनेक परामर्श दिये जाते रहते हैं और उनको अति कृतज्ञता एवं आदर के साथ संपन्न भी करते हैं और उन पर विचार भी।

ऐसे ही सुझावों में एक महत्त्वपूर्ण एवं वजनदार सुझाव यह भी है कि—‘‘हम राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश क्यों नहीं करते? और राजतंत्र को अपने अनुकूल बनाकर सरकारी स्तर पर वह सब सहज ही क्यों नहीं करा लेते, जिसके लिए इन दिनों इतनी अधिक माथापच्ची कर रहे हैं? ‘‘इस सुझाव के पीछे अपनी और अपने संगठन की वह क्षमता और व्यापकता है, जिसका सही मूल्यांकन कर सकने वाले लोग अनुभव करते हैं कि इन दिनों अपना तंत्र—किसी भी राजनैतिक, सामाजिक या धार्मिक तंत्र से कम प्रखर एवं कम सशक्त नहीं है।

वर्तमान युग में राजनीति की सर्वोपरि सत्ता और महत्ता स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। यह स्वीकार करने में कोई अड़चन नहीं है कि सरकारें यदि सही कदम उठा सकें, सूझ-बूझ से काम लें और अपने क्रियातंत्र को सुव्यवस्थित रख सकने में समर्थ हों, तो वे अपने क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति कर सकती हैं। जापान, चीन, रूस, जर्मनी, अरब, इजराइल आदि ने चंद दिनों के भीतर अपने ढंग से— अपनी योजनानुसार—अभीष्ट परिवर्तन के प्रकार प्रस्तुत कर लिये। इसके आश्चर्यजनक उदाहरण सामने हैं। हम उन लोगों में से नहीं हैं, जो वास्तविकता की ओर से जान-बूझकर आंखें बंद किये रहें। धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं, यह दूसरों ने भले कहा हो, हमने यह शब्द कभी भी नहीं कहे हैं। इतिहास ने हमें सिखाया है कि धर्म की स्थापना में राजनीति का सहयोग आवश्यक है और राजनीति के मदोन्मत्त हाथी पर धर्म का अंकुश रहना चाहिए। दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक हैं। दोनों में उपेक्षा या असहयोग की प्रवृत्ति नहीं, वरन् घनिष्ठता एवं परिपोषण का साधन तारतम्य जुड़ा रहना चाहिए।

इतिहास साक्षी है कि, जनता के सुख-सौभाग्य में अभिवृद्धि का आधार दोनों के बीच साधन सहयोग ही प्रमुख तथ्य रहा है। गुरु वशिष्ठ के मार्गदर्शन और रघुवंशियों के शासन क्रम ने द्वापर में उस सतयुग की स्थापना की थी, जिसे हम रामराज्य के नाम से आदर के साथ याद करते हैं। चाणक्य के मार्गदर्शन से गुप्त साम्राज्य पनपा, फैला और परिपुष्ट हुआ था। पांडवों का मार्गदर्शन कृष्ण ने किया था और दुःशासन का उन्मूलन कर सुशासन की स्थापना की थी। राजा मांधाता का सहयोग शंकराचार्य की दिग्विजय का महत्त्वपूर्ण आधार था। भगवान बुद्ध के प्रभाव से सम्राट अशोक का बदलना और अशोक की सत्ता के सहयोग से बुद्ध धर्म का समस्त एशिया में फैल जाना एक ऐसी सच्चाई है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है। समर्थ गुरु रामदास जानते थे कि धर्म-प्रवचनों से ही काम चलने वाला नहीं है, सुशासन की स्थापना भी आवश्यक है। अस्तु, उन्होंने शिवाजी जैसे अपने प्रधान शिष्य को इस मार्ग पर अग्रसर किया। अग्रसर ही नहीं किया, अपने द्वारा स्थापित 700 महावीर देवालयों के माध्यम से आवश्यक रसद, पैसा तथा सैनिक जुटाने की भी व्यवस्था की, शिवाजी उसी सहयोग के बल पर स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत कर सके। गुरु नानक का पंथ एक प्रकार से स्वाधीनता के सैनिकों से ही बदल गया। उसने ‘‘एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला’’ का आदर्श प्रस्तुत करके यह बता दिया कि राजतंत्र और धर्म तंत्र को विरुद्ध दिशाओं में नहीं चलने देना चाहिए, वरन् उनके कदम एक ही दिशा में उठने की आवश्यकता हर कीमत पर पूरी की जानी चाहिए। बंदा-बैरागी ने सच्चे अध्यात्मवादी का उदाहरण प्रस्तुत किया और समाधि-साधना एवं ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण की तरह ही अपना सर्वस्व राजनीति की सदाशयता की ओर मोड़ने के प्रयास में उत्सर्ग कर दिया।

भगवान् का धर्म से ही सीधा संबंध जुड़ता है, पर अधर्म के अभिवर्धन के प्रधान कारण दुःशासन को बदलने के लिए वे समय-समय पर अवतार धारण करते हैं। कच्छ, मच्छ, वाराह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध आदि अवतारों ने कुशासन के विरुद्ध सीधी कमान संभाली। उनकी लीलाओं में इस प्रकार के उन्मूलन एवं परिवर्तन की घटनात्मक क्रम ही प्रधान है। अवतारों ने अन्य चरित्र भी दिखाये होंगे, पर उन्हें जिस प्रमुख प्रयोजन के लिए आना पड़ा, वह अधर्म की सत्ता को समाप्त करो धर्म स्थापना के लिए उपयुक्त वातावरण बनाना ही प्रधान कार्य था। अगला निष्कलंक अवतार जो होने जा रहा है, उसकी दृष्टि भी सुशासन की स्थापना पर ही होगी।

द्रोणाचार्य ने इस सच्चाई को दो टूक स्पष्ट कर दिया है। वे कहते थे—

अग्रतः चतुरो वेदः पृष्ठतः सशरं धनु ।

इदं ब्राह्मणं इदं क्षात्र शास्त्रादपि शरादपि ।।

—महाभारत

हम वेदों को आगे रखकर लोगों को समझाने और सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते हैं। साथ ही पीठ पर धनुष-बाण भी रखते हैं। यह धर्म शिक्षा ‘ब्राह्म’ है और यह शस्त्र धारण ‘क्षात्र’ है। दोनों शक्तियों के समन्वय से ही समस्यायें सुलझती हैं।

उपर्युक्त सत्य का प्रतिपादन करने वाले तथ्यों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। वर्तमान समय में महात्मा गांधी जिन्हें इस युग का धर्म पुरुष कह सकते हैं। अपनी जीवन साधना से राजनीति का प्रधान समन्वय करके यह आदर्श प्रस्तुत करते रहे हैं कि धर्म और राजनीति एक-दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक हैं। लोकमान्य तिलक, महामना मालवीय, स्वामी श्रद्धानंद, जैसे धर्मवेत्ता मनीषियों ने अपनी धर्म साधना के साथ राजनीति को भी अविच्छिन्न रूप से जोड़े रखा। इससे उनकी धार्मिकता घटी नहीं, वरन् प्रखर एवं समुज्ज्वल ही होती चली गई।

शासन आज जिस तरह जीवन के हर पक्ष में प्रवेश करता चला जाता है और धीरे-धीरे व्यक्ति जिस तरह राज्य की कठपुतली बनने जा रहा है, उस बारीकी को समझने वाला कोई सूक्ष्मदर्शी व्यक्ति राजनीति से सर्वथा पृथक् धर्म की कल्पना भी नहीं कर सकता। जो धर्म को राजनीति से अलग होने की बात कहते या समझते हैं, उन्हें नितांत भोला ही कहा जा सकता है। प्रतिकूल राजनीति में धर्म का जीवित रहना संभव भी नहीं। रूस, चीन आदि साम्यवादी देशों की धार्मिकता की कैसी दुर्गति हुई? यह सबके सामने है। तिब्बत का धर्म शासन करने वाले नागाओं को राजनैतिक प्रतिकूलता ने कहां से लाकर कहां पटक दिया? राजाश्रय पाकर ईसाई चर्च कितनी प्रगति कर रहा है और मध्य युग में राज्याश्रय ने इस्लाम धर्म को विकसित होने में कितनी सहायता की? इन तथ्यों से कोई मूर्ख ही आंखें मींच सकता है।

इन तथ्यों के जानते हुए भी हम और हमारा संगठन राजनीति में क्यों प्रवेश नहीं करते, इसके संबंध में लोग हमें उलाहना देते और भूल सुधारने के लिये आग्रह करते हैं। वे जानते हैं कि हम लोग शासनतंत्र में प्रवेश करने में बहुत दूर तक सफल हो सकते हैं। इसलिये उनकी आतुरता आदि भी अधिक रहती है। कितनी ही राजनैतिक पार्टियों द्वारा अपनी ओर आकर्षित करने और प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में सम्मिलित होने के लिए डोरे डाले जाते रहते हैं और इसके बदले वे हमें किस प्रकार संतुष्ट कर सकते हैं, इसकी पूछ-ताछ करते रहते हैं? यह सिलसिला मुद्दतों से चलता रहा है और जब तक हम विदाई नहीं ले लेते तब तक चलता ही रहेगा और हो सकता है कि परिवार वर्तमान क्रम से आगे बढ़ता रहा और सशक्त बनता रहा तो इस प्रकार के दबाव उस पर आगे भी पड़ते रहें।

इस संदर्भ में हमारा मस्तिष्क बहुत ही साफ है। शीशे की तरह उसमें पूर्णतया स्वच्छता है। बहुत चिंतन और मनन के बाद हम एक निष्कर्ष पर पहुंचे हैं और बिना लाग-लपेट छिपाव व दुराव के अपनी स्वतंत्र नीति निर्धारण करने में समर्थ हुए हैं। हम सीधे राजनीति में प्रवेश नहीं करेंगे, वरन् राजनीति को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका संपादित करेंगे और यही अंत तक करते रहेंगे। अपना संगठन यदि अपने प्रभाव और प्रकाश को सर्वथा तिरस्कृत नहीं कर देता तो उसे भी इसी मार्ग पर चलने रहना होगा।

भारत की वर्तमान राजनैतिक रीति-नीतियों—शासन की गतिविधियों और तंत्र की कार्य प्रणाली पर आमतौर से सभी को असंतोष है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 53 वर्षों की लंबी अवधि में जो हो सकता था, वह नहीं हुआ। तथाकथित आर्थिक प्रगति की बात भी विदेशी ऋण और युद्ध स्थिति तथा बढ़ती हुई बेकारी, गरीबी को देखते हुए खोखली है। नैतिक स्तर ऊपर से नीचे तक बुरी तरह गिरा है। विद्वेष और अपराधों की प्रवृत्ति बहुत पनपी है। गरीब अधिक गरीब बने हैं और अमीर अधिक अमीर। शिक्षा की वृद्धि के साथ-साथ जो सत्प्रवृत्तियां बढ़नी चाहिए थीं, इस दिशा में घोर निराशा ही उत्पन्न हुई है। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश की साख बढ़ी नहीं, घटी है। मित्रों की संख्या घटती और शत्रुओं की बढ़ती जा रही है। शासन में कामचोरी और रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति बहुत आगे बढ़ गई है और भी बहुत कुछ ऐसा ही हुआ है, जो आंखों के आगे प्रकाश नहीं अंधेरा ही उत्पन्न करता है। अपनी इस राजनैतिक एवं प्रशासकीय असफलता पर हम में से हर कोई चिंतित और दुःखी है। स्वयं शासक वर्ग भी समय-समय पर अपनी इन असफलताओं को स्वीकार करते हैं। जिन्हें अधिक क्षोभ है, वे उदाहरण प्रस्तुत करके शासनकर्त्ताओं की कटु शब्दों में भर्त्सना करते सुने जाते हैं और अमुक पार्टी को हटाकर अमुक पार्टी के हाथ में शासन सौंपने की बात का प्रतिपादन करते हैं।

हमारे चिंतन की दिशा अलग है, हम अधिक बारीकी से सोचते हैं। शासन की असफलता से हम दुःखी हैं। हमें बहुत खेद है कि विगत 53 वर्षों में जितना बढ़ा जा सकता था, उतना नहीं बढ़ा गया। प्रगति कुछ भी न हुई हो सो बात नहीं, पर दूसरे देशों की तुलना में हमारी चाल इतनी धीमी है कि इस क्रम से हजार वर्ष में भी प्रगतिशील देशों की पंक्ति में भौतिक दृष्टि से भी खड़े न हो सकेंगे। गांधी जी के धर्मराज्य, रामराज्य और विश्व मंगल की आध्यात्मिक प्रगति तो अभी लाखों मील आगे की बात है।

इन परिस्थितियों के लिए किसी राजनेता या पार्टी को दोष देकर अपना जी हल्का नहीं कर सकते, वरन् गंभीरता से उन कारणों को तलाश करते हैं, जिनके कारण यह विकृतियां उत्पन्न हुई हैं। रोग का कारण प्रतीत होने पर ही उसका उपचार संभव है। दूसरों की तरह उथला नहीं अधिक गंभीर और दूरदर्शी होने की ही किसी दार्शनिक से आशा की जानी चाहिए। देखना यह होगा कि यह सब क्यों हो रहा है? अपना एक हजार वर्ष का इतिहास देशी और विदेशी सामंतवाद द्वारा प्रजा के उत्पीड़न का है। इस उत्पीड़न को सरल बनाये रखने के लिए जनता का मनोबल गिरा और बिखराव रखा जाना जरूरी था, सो तत्कालीन दार्शनिकों द्वारा ऐसी विचारधाराओं का प्रचलन किया गया, जो उपरोक्त प्रयोजन पूरा कर सकें। शासन की दृष्टि से प्रजा ने नृशंसता पाई एवं दर्शन की दृष्टि से भ्रांत ‘ब्राह्म’ और ‘क्षात्र’ दोनों ही अवांछनीय स्वार्थों की सिद्धि में लगे थे। प्रजा इस चक्की में भौतिक और आत्मिक दृष्टि से निरंतर पददलित होती रही। यही एक तथ्य है जिसने भारत जैसी उत्कृष्ट परंपराओं वाली प्रजा पर हजार वर्ष जितनी लंबी अवधि तक पददलित रहने का कलंक लगाया।

इन विपन्न परिस्थितियों से देश को उबारने के लिये यों छुट-पुट प्रयत्न बहुत पहले से चल रहे थे, पर उन्हें सुसंगठित और सुसंचालित होने का श्रेय गांधी जी के नेतृत्व को मिला। वे असली कारण जानते थे और प्रयत्नशील थे कि रचनात्मक कार्यों और बौद्धिक जागरण व स्वतंत्र चिंतन के माध्यम से प्रजा के मनोबल, चरित्र स्तर, स्वाभिमान एवं शौर्य को जगाया-बढ़ाया जाय। स्वतंत्रता संग्राम वे धीरे-धीरे चला रहे थे। क्रांतिकारियों से उनके मतभेद का मूल कारण यह था कि वे चाहते थे, स्वराज्य धीरे-धीरे उस क्रम से आये—जिस क्रम से देश उसे संभालने योग्य प्रतिभा अपने में पैदा कर ले। स्वतंत्रता संग्राम के साथ चर्खा, खादी, हरिजन सेवा, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, सफाई जैसी प्रवृत्तियों को जोड़ देना यों बहुत अटपटा लगता है। असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह की दार्शनिकता कितनी ही ऊंची क्यों न हो, पर उसका व्यावहारिक पक्ष यह था कि इन सरलतम उपायों द्वारा जनता अपनी मूल चेतना विकसित करे और स्वराज्य धारण कर सकने में समर्थ हो जाए।  वे जानते थे कि विभूति प्राप्त करने से अधिक कठिन उसे पचाना होता है। शक्ति की असली परीक्षा कोई सफलता प्राप्त कर लेना भर नहीं है, वरन् उसके सदुपयोग से ही प्राप्तिकर्ता का गौरव आंका जाता है। भागीरथ गंगा अवतरण की पृष्ठभूमि बनाने में सफल हो गये थे, पर उस धारा को सुव्यवस्थित रूप में प्रवाहित करने के लिए शंकर जी को अपनी जटायें फैलानी पड़ीं। यही सर्वत्र होता है। गांधी जी के मन में स्वराज्य प्राप्त करने की जल्दी नहीं थी, वे जनता को उस आंदोलन महायज्ञ से प्रबुद्ध, सतर्क और सक्षम बना रहे थे।

क्रांतिकारी कहते थे कि बिना शस्त्र धारण किये और मजबूरी प्रस्तुत किये बिना अंग्रेज जाने वाले नहीं हैं। बात उन्हीं की सच्ची निकली। सन् 1942 में क्रांतिकारी तोड़-फोड़ ने सिद्ध कर दिया कि असहयोग सत्याग्रह नहीं, शस्त्र धारण ही वर्तमान स्थिति में राजक्रांतियों की अनिवार्य आवश्यकता है। इस तथ्य को गांधी जी भी मानते थे। वे स्वराज्य की उतावली में न थे वे जनता की उन दुर्बलताओं को हटाने में लगे थे, जो पिछले हजार वर्ष के अज्ञानांधकार युग में पीढ़ी दर पीढ़ी के हिसाब से चलते रहने पर उसके स्वभाव में सम्मिलित हो गई थीं। अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने जब भारत को स्वराज्य दिला ही दिया था, तो वे इस असामयिक उपलब्धियों से जितने प्रसन्न थे उतने ही चिंतित भी। जन जागरण का प्रयोजन पूरा नहीं हो सका था इसलिए उन्हें चिंता थी कि इस गंगावतरण का सुसंचालन कैसे होगा? उन दिनों उन्होंने एक अति महत्त्वपूर्ण सुझाव रखा था कि—कांग्रेस लोकसेवा संस्था का रूप धारण करे और जनजागरण के नितांत आवश्यक कार्य में ही जुटी रहे। राजतंत्र चलाने के लिए एक उस स्तर के लोगों की पिछली पंक्ति बना दी जाय। प्रजा पर प्रभाव रखकर कांग्रेस, राजनेताओं की नियुक्ति एवं उनकी रीति-नीति पर नियंत्रण करे, पर स्वयं उससे पृथक् रहकर वह जनमानस के परिष्कार का मूल प्रयोजन पूरा करे, जो किसी राष्ट्र की सर्वतोमुखी प्रगति का—यहां तक कि सुशासन का भी मूल आधार है।

उन दिनों परिस्थितियां विचित्र थीं। कांग्रेस नेता गांधी जी से सहमत न हो सके। सारी शक्ति राजतंत्र को संभालने में लग गई। रचनात्मक कार्यों में विश्वास करने वाले लोकसेवी भी तंत्र में खप गये। सबका ध्यान सत्ता की ओर चला गया। सत्ता एक नशा है, उसका चस्का जिसे लगा कि फिर वह उसी घाट का हो लिया। कांग्रेस और उसका परिवार उसी दिशा में चल पड़ा। जनजागरण के लिए जिन रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों की जरूरत थी वे या तो विस्मृत हो गये या उनकी लकीर पिटती रही। अन्य छोटी-बड़ी राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर की संस्थाओं का भी यही हाल हुआ। उन्होंने भी अपनी बड़ी बहिन का अनुकरण किया। अपना बाहरी जामा वे कुछ भी बनाये रहीं हों, भीतर ही भीतर सत्ता-संघर्ष के लिए चल रही विभिन्न पार्टियों की प्रतिद्वंद्विता में ही वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में शामिल थीं। ध्यान बंटा सो बंटा। पिछले 53 वर्षों में जिस बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक क्रांति की जरूरत थी, शिक्षा और कला के महान् माध्यमों की सृजनात्मक दिशा किसी ने कुछ नहीं दिया। इस भूल को हम ईमानदारी से स्वीकार कर लें तो कुछ हर्ज नहीं है।

दिशा भूलने का—जनमानस में हजार वर्ष की गुलामी की कुसंस्कारी प्रक्रिया हटाने की उपेक्षा करने का जो परिणाम होना चाहिए था, वह सामने हैं। उन परिस्थितियों से उत्कृष्ट राज नेतृत्व एवं आदर्श शासनतंत्र की आशा रखना व्यर्थ है। राजनेताओं का चुनाव होता है। चुनावों द्वारा प्रतिनिधि चुने जाते हैं और उनके चुनाव से सरकारें बनती हैं। जनता का जो स्तर है, उसमें चुनाव जीतने के लिए पैसे को पानी की तरह बहाने की, जाति-पांति के नाम पर लोगों को बरगलाने की; व्यक्तिगत या स्थानीय लाभ दिलाने के सब्ज-बाग दिखाने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। जो यह सब तिकड़में भिड़ाने में समर्थ न हों उसका चुनाव जीतना कठिन है। जनता का स्तर ही ऐसा है कि वह वोट का मूल्य और उसके दूरगामी परिणामों को अभी समझ ही नहीं पाई। झांसेपट्टी और वास्तविकता का अंतर करना उसे आया नहीं। इसलिए चुनाव में वे लोग जीत न सके, जो रामराज्य स्थापित कर सकने में सचमुच समर्थ हो सकते थे। जनता ने अपने स्तर के विधायक चुने। उन विधायकों ने अपने स्तर की सरकारें बनाईं, उन सरकारों के संचालकों ने वही किया, जो जनता कर रही है या कर सकती है। जड़ के आधार पर पत्ते बनते हैं। धतूरे के बीज से उगे पौधे पर शहतूत कहां से लगें?

राज्य शासन के संचालन में जो व्यक्ति काम करते हैं, उनकी मनोभूमि एवं कार्यशैली ही शासन तंत्र के संचालन का स्वरूप निखारती है। कानून कितने ही अच्छे क्यों न हों, नीतियां कितनी ही निर्दोष क्यों न हों, योजनायें कितनी ही बढ़िया क्यों न हों, उनके संचालन का भार जिस मशीनरी पर है, उसके पुर्जे यदि घटिया होंगे तो सारा गुड़ गोबर होता रहेगा। सरकार कई योजनायें बनाती और चलाती है, पर उसका स्वरूप जनता तक पहुंचते-पहुंचते विकृत हो जाता है क्योंकि जिनके हाथ में उस प्रक्रिया के संचालन का भार है, वे उतने शुद्ध नहीं होंगे जितने होने चाहिए। अपराधों को रोकने और अपराधियों को पकड़ने की जिम्मेदारी जिस मशीन पर है। यदि वह ऊंचे स्तर की हो और भावनापूर्वक काम करे तो निस्संदेह अपराधों का उन्मूलन हो सकता है। उपयोगी कार्यों के लिये ऋण या अनुदान बांटने वाली मशीन यदि स्वच्छ हो तो वह धन खुर्द-बुर्द न होकर सचमुच संपत्ति और सुविधा बढ़ाने में समर्थ हो सकता है। शिक्षा देने वाली मशीन यदि भावनाओं से ओत-प्रोत हो तो छात्रों को ढालने में उन व्यक्तियों का जादू आश्चर्यजनक ढलाई का प्रतिफल प्रस्तुत कर सकता है। सरकारी कानूनों या योजनाओं में उतना दोष नहीं है, जितना कि प्रस्तुत प्रक्रिया का संचालन करने वाली मशीनरी की आदर्शवादी भावनाओं का न्यूनतम रूप है।

प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह शासन संचालन करने वाली मशीन कैसे उत्कृष्ट बने? तो फिर बात लौटकर वहीं आ गई। सरकारी कर्मचारी आकाश से नहीं उतरते। वे जनता के ही बालक होते हैं। उन्होंने अपने घर-परिवार से संबद्ध समाज में जो कुछ देखा, सुना, समझा, अनुभव किया है उसी के आधार पर उनका मानसिक स्तर एवं चरित्र ढला है। नौकरी पाते ही वे उन सारे संस्कारों को भुलाकर देवता बन जायें, यह आशा करना व्यर्थ है। उसी प्रकार पैसे लेकर वोट बेचने वाली, जाति-पांति का पक्षपात करने वाली, व्यक्तिगत या क्षेत्रीय लाभ के प्रलोभनों से आकर्षित होने वाली अदूरदर्शी जनता से यह आशा करना व्यर्थ है कि वे उन्हें चुनेगी जो सुयोग्य एवं एवं आदर्शवादी तो हैं, पर पैसा लुटाने या बहकाने वाले हथकंडे अपनाने में समर्थ नहीं। यह एक सच्चाई है कि प्रजातंत्र में जनता के स्तर की ही सरकार बनती है और उसी स्तर की सरकारी मशीन चलती है।

पार्टियों की सत्ता बदले, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। पिछले तीन-चार वर्षों में कांग्रेस का एकाधिकार नहीं रहा। कई पार्टियों की अलग या सम्मिलित सरकारें बनीं, उन्होंने भी कोई अलग आदर्श प्रस्तुत नहीं किया, जिस कीचड़ में कांग्रेस का छकड़ा घिसट रहा था, उसी में वे खड़खड़िया भी धंस गईं। सच्चाई यह है कि इन परिस्थितियों में कुछ हो ही नहीं सकता। प्रबुद्ध लोकमत जाग्रत हुए बिना—आया राम गया राम की हेराफेरी रुक ही नहीं सकती। अल्पमत को बहुमत में और बहुमत को अल्पमत में बदलने के लिए प्रलोभन और आतंक का वर्तमान दौर अनंत काल तक चलता रहेगा। यदि विधायकों को अपनी जनता के रोष एवं अवरोध का भय उत्पन्न न हुआ, तो इसी प्रकार जो भी सरकार सत्ता में आयेगी उसके मंत्री यदि अपने समर्थकों के, अपने क्षेत्र के लिये सरकारी मशीन से काम लेंगे, तो उन पुर्जों को अपने स्वार्थ साधने की भी छूट देती होगी, फिर प्रशासन शुद्ध कैसे होगा?

मूल समस्या यही है। किस पार्टी की सरकार बने? वह किन योजनाओं को कार्यान्वित करे? यह प्रश्न कम महत्व के हैं। अधिक महत्त्व के प्रश्न यह है कि चुनाव बिना खर्च कराये, उपयुक्त व्यक्तियों को चुनने का जनस्तर कैसे बने? और सरकारी मशीन में पुर्जे बनने वाले कर्मचारी घर से ही आदर्शवादी एवं भावनासंपन्न बनकर वहां तक कैसे पहुंचें? यह समस्या पर्दे के पीछे दीखती है, पर है यही सबसे महत्वपूर्ण। इसे हल किये बिना तथाकथित प्रगति में खोखलापन ही बना रहेगा। प्रजातंत्र की जड़ जनता है। जहां जनता का स्तर ऊंचा होगा, वहीं प्रजातंत्र सफल हो सकेगा। हमें यदि प्रजातंत्र पसंद है तो उसकी सफलता की अनिवार्य शर्त जनता का भावनात्मक एवं चारित्रिक स्तर भी ऊंचा उठाना ही पड़ेगा। अन्यथा शिकायतें करते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा। स्वराज्य प्राप्ति के समय गांधी जी इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिये चिंतित थे और जोर दे रहे थे कि कांग्रेस, शासन में न जाये, वरन् लोकमानस का निर्माण करने के अधूरे किंतु अति महत्त्वपूर्ण कार्य को संभालने में ही दत्त चित्त होकर जुटी रहे।

तथ्य, तथ्य ही रहेगा; आवश्यकता, आवश्यकता ही रहेगी। एक उसे पूरा नहीं करता तो दूसरे को अपना कंधा लगाना चाहिए। यही रचनात्मक तरीका है। स्वतंत्रता संग्राम में 12 वर्ष तक निरंतर मोर्चे पर लड़ते रहने वाले सैनिक के रूप अड़े रहने के उपरांत उस संग्राम की पूरक परिधियों के महत्त्व को हम समझते रहेंगे। हमारा विश्वास है कि बौद्धिक क्रांति, सामाजिक क्रांति एवं नैतिक क्रांति की त्रिवेणी बहाए बिना तीर्थराज न बनेगा और उसमें स्नान किये बिना हमारे पाप-ताप न कटेंगे। राजनैतिक स्वतंत्रता का लाभ तभी प्राप्त किया जा सकेगा, जब उसके साथ ही बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक क्षेत्रों के कालनेमि की तरह भ्रमे हुए पराधीनता पाश से मुक्त कराया जा सके। स्वतंत्रता का एक चरण अभी प्राप्त हुआ, तीन मोर्चों पर लड़ा जाना अभी भी शेष है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम उसी प्रयत्न में निरंतर प्रयत्नशील रहे हैं। दूसरे सैनिकों ने अपनी वर्दियां उतार दीं और राजमुकुट पहन लिये, पर अपने लिए आजीवन उस चिंतन-लक्ष्य की ओर चलते रहना ही धर्म बन गया है, जिसके ऊपर राष्ट्र की सर्वतोमुखी समर्थता निर्भर है। राष्ट्र की बात ही क्यों सोचें, विश्व कल्याण का मार्ग भी यही है जन जागरण और लोकमानस में उत्कृष्टता, आदर्शवादिता का बीजांकुर बोया जाना, वस्तुतः इस धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अभिनव प्रयोग है। हम इसी दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया को हाथ में लेकर धर्म साहस, निश्चय और प्रबल पुरुषार्थ के साथ आगे बढ़ रहे हैं और जहां तक हमारा प्रभाव क्षेत्र है, उसे उसी दिशा में घसीटते लिये चल रहे हैं।

हम जानते हैं कि जन मानस के अंतरंग का स्पर्श करने और कोमल भावनाओं को संवेदनशील बनाने की क्षमता राजतंत्र में नहीं है। उसकी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति दूसरी है। कूटनीति राजनीति का पर्यायवाची बन गया है। उस स्तर में जो कुछ होगा, लोग उसमें अकारण ही किसी कूटनीति या दुरभिसंधि की गंध सूंघेंगे। इसलिये राजतंत्र के द्वारा इस प्रकार के प्रयत्न या प्रयोग जब कभी हुए हैं, उन्हें असफलता ही हाथ लगी है। यह क्षेत्र वस्तुतः धर्म एवं दर्शन का है। बौद्धिक सामाजिक एवं नैतिक क्रांति के लिए विचारणा का स्तर बहुत गहराई में बदलना होगा। उथला बदलाव कोई स्थिर परिणाम उत्पन्न न करेगा। इस प्रयोजन की पूर्ति से केवल धर्मतंत्र ही समर्थ हो सकता है। राजनैतिक स्तर पर बाल विवाह, छूटा-छूत निवारण, दहेज उन्मूलन, व्यभिचार विरोधी कानून बने हुए हैं, पर उनको कितना माल मिला और कितना परिणाम निकला, यह सबके सामने हैं। भौतिक सुधार करना राजतंत्र का क्षेत्र है। भावनात्मक सुधार के लिए प्रजातंत्र के वातावरण में केवल धर्मतंत्र ही समर्थ हो सकता है। प्रजातंत्र हटाकर अधिनायकवाद आना है तो आतंक के आधार पर विचार परिवर्तन भी संभव है, पर वह प्रयोग महंगा है। व्यक्ति का विचार स्वतंत्रता अपहृत हो जाने पर वह एक मशीन मात्र रह जाता है और सांस्कृतिक प्रगति की जिस महान् प्रक्रिया ने मानव जाति को यहां तक पहुंचाया है, उसका द्वार ही बंद हो जाता है। हम प्रजातंत्र पसंद करते हैं। उसमें बहुत खूबियां और संभावनायें सन्निहित हैं। फिर प्रजातंत्र की परिधि में जनमानस का निर्माण करना धर्म एवं अध्यात्म का ही क्षेत्र रहता है।

हम यही कर रहे हैं। धर्म और अध्यात्म को हमने मानव जाति की सामयिक प्रगति के लिये नियोजित किया है। पिछले दिनों उसमें जो अवांछनीयता घुस पड़ी थी, उसे सुधारा है। धर्म मंच अब तक प्रतिगामियों का दुर्ग समझा जाता है; हमने उसे नई दिशा दी है और उसकी मूल प्रवृत्ति प्रगतिशीलता को उभारा है। धार्मिक प्रथा-परंपराओं, रीति-रिवाजों, कर्मकांडों और मान्यताओं के बाह्य स्वरूप को यथावत् रखते हुए उनकी दिशा और प्रवृत्ति में क्रांतिकारी परिवर्तन प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि जिस क्षेत्र की ओर से नाक-भौं सकोड़ी जाती थीं और निराशाजनक माना जाता था, अब उसे मानवीय प्रगति की निर्णायक भूमिका संपादन करने में समर्थ माना जाने लगा है। पिछले दिनों कुछ क्षुब्ध वर्ग तोड़-फोड़ में लग गये थे। वे दीर्घकालीन परंपराओं को उखाड़कर आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहते थे। वे भूल जाते थे कि 80 प्रतिशत देहातों में बसे हुए और 70 फीसदी अशिक्षित देश के लिये धर्म परंपराओं में क्रांतिकारी तोड़-फोड़ सरल नहीं है। वे प्रयत्न भी लगभग असफल हो गये। अपनी सुधारात्मक प्रक्रिया, आंधी-तूफान की तरह इसलिए सफल होती चली जा रही हैं कि हमने धर्म-प्रथाओं एवं कलेवरों के बाह्य स्वरूप में हेर-फेर किये बिना उनके मूल प्रयोजन में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया है।

इस प्रकार परोक्ष रीति से हम राजनीति में भाग ले रहे हैं और राजनैतिक शुद्धता एवं प्रखरता की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। प्रत्यक्ष राजनीति में बहु लोग घुसे पड़े हैं, वहां इतनी भीड़ है जिसे बढ़ाया नहीं, घटाया जाना चाहिए। प्रजातंत्र की मूल शक्ति जनता में निर्धारित रहती है। जनता अपना बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक स्तर ऊंचा उठाये बिना ऊंचे स्तर का शासन एवं राजनेतृत्व प्राप्त कर नहीं सकेगी।

हम राजनीति से अलग नहीं हैं, न उसका मूल्य कम कर रहे हैं, बात इतनी भर है कि हम जड़ में खाद, पानी डालने वाले माली बने रहना चाहते हैं। फूल और फल का व्यापार दूसरे लोग करें, इसमें न हमें कोई आपत्ति है और न ईर्ष्या। हम अनुभव करते हैं उथले राजनीतिज्ञों की अपेक्षा हम अधिक ठोस और अधिक महत्त्वपूर्ण राजनीति अपना रहे हैं और हमारे प्रयत्नों का फल किसी भी राजनैतिक पार्टी या उसकी सरकार की अपेक्षा सत्परिणाम उत्पन्न करेगा। गांधी जी का जनमानस निर्माण का काम अधूरा रह गया था। हमें उनके शेष को पूरा करने वाली कुली, मजूर की तरह जुटे रहना मंजूर है। दूसरे लोग उनके तप का प्रतिफल चखे—चखते रहें। अपने मुंह से उनके लिए लार टपकने वाली नहीं है। हम स्वस्थ राजनीति के विकसित हो सकने की संभावना वाला भवन बनाने में नींव के पत्थर मात्र बनकर रहेंगे और जो भी हमारे प्रभाव संपर्क में आवेगा, उसे इसी दिशा में प्रेरित, आकर्षित करते रहेंगे।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118