राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

छूत-अछूत का भेद क्यों

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चीन देश का एक लुहार ढालें और भाले बनाने का काम करता था। उसकी ढाल बड़ी मजबूत बनती थी। वह प्रायः कहता कि—‘‘दुनिया का कोई भाला उसकी ढाल को नहीं छेद सकता।’’ गर्व करना अनुचित न था, उसकी ढाल बनती भी इतनी मजबूत थी। यही दशा भालों की भी थी। वह कहता था कि—‘‘दुनिया में ऐसी कोई ढाल नहीं, जिसे मेरे भाले न छेद सकें।’’ बात बहुत दूर तक फैली। एक गांव का मामूली किसान उसके पास जाकर बोला—‘‘भाई, तुम्हारे ही भालों से कोई तुम्हारी ही ढाल छेदना चाहे तो क्या होगा?’’ लुहार के पास भला इसका क्या उत्तर हो सकता था?

ढालों और भालों का यह दृष्टांत सच है या झूठ, यह तो अज्ञात है, पर हम हिंदुओं के साथ यह कक्षा अक्षरशः सत्य उतरती है। हमारा जातीय संगठन जब तक अभेद्य रहा, तब तक संसार की कोई भी शक्ति हमारा विच्छेदन नहीं कर सकी, किंतु जब से हमारे बीच पारस्परिक भेदभाव का व्यवहार प्रारंभ हुआ कि हमारा जातीय जीवन विशृंखलित हो गया। संगठन की ढाल को ऊंच-नीच के भेद के भाले ने छेदकर रख दिया और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम पराजित होते चले गये।

जातियों का संगठन जो कभी सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से बना था, छूत-अछूत का भेदभाव पड़ने के कारण अपने मूल उद्देश्य से विचलित हो गया, फलतः हिंदुओं की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग अपने आपको निराश्रित समझने में लगा। उपेक्षा का भाव सबको बुरा लगता है। अपने ही आदमियों द्वारा तिरस्कार मिले तो वह और भी दुःखदायी बात होती है। जिन्हें हमारा समाज अछूत मानता है, उन्होंने इस प्रकार की पीड़ा अनुभव की और इस संगठन से विलग हो जाना ही अच्छा समझा। परिणाम आज सामने हैं। लाखों अछूत ईसाई-धर्म में दीक्षित होते जा रहे हैं। विकास की दृष्टि से भी हिंदुओं का एक बहुत बड़ा भाग उपेक्षित पड़ा हुआ है।

धर्म के नाम पर सेवा कार्य करने वालों को अछूत मानना धर्म की अवहेलना है। जिन्हें हम अछूत समझते हैं, वे मल आदि साफ करने का कार्य करते हैं, किंतु इसके लिए वे घृणा नहीं श्रद्धा के पात्र होने चाहिए। जिस कार्य को हम स्वयं नहीं कर सकते, उसे वे लोग पूरा करते हैं, इसके लिए हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिए। कदाचित् वे ऐसा करने से इनकार कर दें तो दूसरे लोगों को कितनी कठिनाइयां उठानी पड़े, इसका सहज में अनुमान लगाया जा सकता है। हमारे कार्य में हाथ बंटकर वे हमें सुख-सुविधायें प्रदान करते हैं, इसके लिए क्या उन्हें घृणित दृष्टि से देखना चाहिए?

मनुष्य-मनुष्य के बीच परमात्मा की दृष्टि में कोई भेद नहीं। शरीर प्रायः सभी एक जैसे ही मिले हैं। अन्न, जल, वायु, प्रकाश आदि का उपभोग सभी लोग स्वच्छंद रीति से करते हैं, फिर क्या यह अनुचित नहीं कि कुछ व्यक्तियों को जो समाज के आवश्यक अंग हैं उन्हें मानवोचित अधिकारों से वंचित रखा जाए? हमारी इस कमजोरी का लाभ दूसरों ने उठाया, यह हम जान चुके, तो भी यह समस्या ज्यों की त्यों उलझी है। हरिजनों को लोग दूना तक पाप मानते हैं और यदि कोई गलती कर बैठे तो उसे समाज के कोप का भाजन बनना पड़ता है।

महापुरुषों तथा विचारवान् व्यक्तियों ने यह कभी अनुभव न किया कि सेवा कार्य करने वालों को अस्पृश्य समझा जाए। भगवान् कृष्ण ने दासी कुब्जा का आतिथ्य स्वीकार किया था और उसके घर जाकर भोजन किया था। भगवान राम ने भीलनी के जूठे बेर खाये थे। महात्मा गांधी के हृदय में तो हरिजनों के प्रति इतनी श्रद्धा थी कि, वे जहां कहीं भी जाते थे—हरिजन बस्तियों में ठहरना अधिक पसंद करते थे। अछूतोद्धार का उन्होंने आंदोलन भी चलाया था, जिसका प्रायः सभी विचारवानों ने स्वागत किया। बापू जी के प्रयत्नों का ही फल है कि हरिजनों के उत्थान को राष्ट्रीय महत्त्व मिला, जो सर्वथा उचित और उपयुक्त भी है।

ऋषियों ने छूत-अछूत का कभी भेदभाव नहीं रखा। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब उन्होंने अछूतों से शारीरिक संबंध तक स्थापित किया। वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती का नाम सभी आदर के साथ लेते हैं। ऋषि-पत्नी हरिजन कन्या थीं। शकुंतला, मेनका वेश्या की संतान थी, जिसके पुत्र भरत के नाम पर देश का नामकरण हुआ। शांतनु ने धींवर-कन्या से पाणिग्रहण किया था। ऐसी अनेक कथायें शास्त्रों और पुराणों में हैं, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि अछूतों के साथ भेद-भाव रखना धर्म और मानवता की किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, वरन् यह हिंदू संस्कृति का एक बड़ा अभिशाप है, जिसे लोग छाती से चिपकाये बैठे हैं।

लोग यह कभी नहीं सोचते कि—अछूत कहलाने वाले अपना कार्य करना बंद कर दें तो सामाजिक जीवन में कितनी कठिनाइयां उत्पन्न हो जायें? सफाईकर्मी मल की सफाई न करें तो सारा वातावरण दुर्गंध से भर जाए और लोगों का जीवन भी खतरे में पड़ जाय। मल की दुर्गंध से बीमारियां उठ खड़ी हो सकती हैं धोबी कपड़े धोने का काम बंद कर दें तो अन्य आवश्यक कार्यों से समय निकालकर कपड़ों की सफाई में लगना पड़े। इस अवस्था में आजीविका कमाने के लिए पर्याप्त अवकाश भी न मिले। चमार मरे हुए जानवरों को न उठायें तो मुर्दों की दुर्गंध कौन बरदाश्त करे? यह सभी सफाई के कार्य इतने आवश्यक है कि उनमें से कोई एक बंद हो जाय तो सामाजिक जीवन में बड़ी गड़बड़ी फैल जाय। खेद है, फिर भी इस महत्त्वपूर्ण वर्ग को लोग अछूत मानकर उनसे दूर भागते हैं।

घर की माता भी तो वैसे ही कार्य करती है। बच्चे का मैल धोती हैं। उनके मल-मूत्र वाले कपड़े साफ करती है, इसके लिए क्या वह अछूत हो जाती है? माता को जो सम्मान उसकी सेवा भावना के लिए, कर्तव्यपरायणता के लिए मिलता है, वह इन अछूत कहे जाने वाले व्यक्तियों को भी मिले, तो यह उचित ही होगा।

अछूतों के मैले-कुचैले रहने, व्यसनी होने, बुरे कार्य करने की दृष्टि से उन्हें हीन मानें तो यह मान्यता सवर्ण हिंदुओं पर भी तो लागू होनी चाहिए। तथाकथित उच्च जातियों में लोग कम गंदे नहीं होते, मांस, मदिरा, नशे आदि का प्रयोग कुलीन ब्राह्मण तथा क्षत्रिय भी करते हैं। सामाजिक अपराध करने वाले सवर्ण अधिक होते हैं। इस सबको ही अछूत क्यों न माना जाय? यदि समाज इन्हें क्षमा कर सकता है, तो सेवा-निष्ठ अछूतों से भेद-भाव रखने का कोई कारण न होना चाहिए।

ईसाइयों की संख्या संसार भर में दो अरब से अधिक है, उनमें छूत-अछूत का कोई प्रश्न नहीं उठता। दिन भर काम करने के बाद जिले का कलक्टर जिस गिर्जाघर में पहुंचकर परमात्मा की इबादत करता है, उसी में शहर का भंगी भी शान के साथ ईश-उपासना करता है। कोई भेद नहीं, कोई विलगाव नहीं। काम के समय अपने-अपने स्थान पर, शेष सारे समय आपस में मिलने-जुलने, उठने-बैठने, खाने-पीने में सब एक। इसी आत्म-भावना के कारण सबसे बाद में स्थापित ईसाई धर्म आज संसार के प्रत्येक भाग में फैला हुआ है।

जनसंख्या की दृष्टि से मुसलमानों का दूसरा नंबर है। हिंदुओं की तरह उनमें भी अनेक उपजातियां हैं, किंतु छूत-अछूत का उनमें भी कोई भेदभाव नहीं है। मुसलमान चाहे वह नाई का कार्य करता हो, चाहे धोबी, मोची या अन्य कोई, सब एक साथ बैठकर भोजन कर जाते हैं। इनसे उनकी धर्मनिष्ठा कम नहीं होती, वरन् वे और भी अधिक विकसित हुए हैं। संगठित होने के कारण ही थोड़े से मुसलमानों ने भारत पर चढ़ाई की और छूत-अछूत का भेद करने वाले करोड़ों हिंदुओं को दास बना लिया। फिर भी हिंदुओं की आंखें न खुलीं। लोग अभी भी इस भेद को मिटाने के लिए तैयार नहीं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान में हरिजनों को अन्य सवर्णों जैसे अधिकार दिये गये हैं। देश के अनेक भागों में उन्हें मंदिरों, तालाबों आदि सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश पाने का अधिकार भी प्राप्त हुआ है। पर सवर्णों की रूढ़िग्रस्त विचारधारा के फलस्वरूप अभी छुआछूत की समस्या पूर्ण रूप से सुलझी नहीं है। दूसरे धर्म वाले अब भी इसका लाभ उठा रहे हैं और प्रति वर्ष लाखों अछूत दूसरे धर्मों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। यह देखकर हिंदू-धर्म में आस्था रखने वालों का चिंतित होना आवश्यक है। यह धार्मिक कर्तव्य भी है और राष्ट्रीय दायित्व भी कि हम अपने संगठन को कमजोर न होने दें।

भारतवर्ष की जनसंख्या का एक तिहाई भाग हरिजनों का है। यह लोग उस संगठन से संबंध विच्छेद कर लें, तो हिंदू-समाज बिन हड्डियों की लोथ बनकर रह जायगा। उसका अस्तित्व और प्रभाव दिन पर दिन कमजोर होता चला जायगा। अतः अब हम उस स्थल पर आ पहुंचे हैं, जहां पर हमें यह निश्चय कर लेना है कि इन महत्त्वपूर्ण जनसंख्या को छोड़ा नहीं जा सकता। ऐसा निश्चय हो तो छूत-अछूत के भेदभाव को भुलाना ही पड़ेगा। अपने ही भाले से अपनी ही ढाल का उच्छेदन किसी प्रकार की हितकारक नहीं है।

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