राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

व्यक्तिगत प्रगति और सामूहिक समृद्धि के लिए सामूहिकता अनिवार्य

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संगठन के सामूहिकता के बल पर ही मनुष्य ने इतनी प्रगति की है। अन्य कितने ही जीव-जंतुओं से, पशु-पक्षियों से कितनी ही बातों में पिछड़ा हुआ होने पर भी मनुष्य ने सृष्टि के शिरोमणि प्राणी का स्थान पाया है। इसका प्रधान कारण उसकी सामूहिकता—मिल-जुलकर रहने की वृत्ति को ही माना जाता है।

मनुष्य बुद्धिमान अवश्य है, पर अपने-अपने क्षेत्र में कितने ही जीव-जंतु भी बुद्धिमान् हैं। ऋतु बदलते ही अनुकूल प्रदेशों में हजारों मील की यात्रा करके जा पहुंचने वाली और ऋतु बदलते ही फिर लौट आने वाली चिड़िया क्या कम बुद्धिमान होती हैं? प्रजनन के समय अनुकूल वातावरण ढूंढ़ने के लिए हजारों मील लंबी यात्रा करने वाली और तूफान की संभावना प्रतीत होने से समुद्र के गहरे गर्त में जा छिपने वाली मछलियों को क्यों नासमझ कहा जाय? बया पक्षी कितना सुंदर घोंसला बनाता है, क्या उसे बुद्धिहीन कहा जायेगा? उसी प्रकार बारीकी से देखने पर अपनी-अपनी मर्यादाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप सभी जीवों में आश्चर्यजनक बुद्धिमत्ता दृष्टिगोचर होती है। फिर मनुष्य की बुद्धिमत्ता को ही क्यों विशेषता मिली? इसका एक मात्र उत्तर यह है कि उसने सामूहिकता का महत्त्व समझा, मिल-जुलकर रहना तथा जाना, एक-दूसरे को सहयोग दिया और अपनी अनुभूतियों एवं उपलब्धियों के लोभ का आपस में आदान-प्रदान करते हुए सर्वतोमुखी प्रगति एवं प्रतिभा का पथ प्रशस्त किया।

हमें जो ज्ञान-विज्ञान से उत्पन्न सुख-साधनों का लाभ उपलब्ध है। क्या वह हमारा अपना उपार्जित है? नहीं। उसे हजारों लाखों वर्षों से अनेक व्यक्तियों ने अपने-अपने अनुभव और अध्यवसाय का बल देकर आगे बढ़ाया है। आग जलाने और उसका उपयोग करने कला सीखकर मनुष्य ने जिस वैज्ञानिक सूझ-बूझ का परिचय दिया था, वह क्रमशः तेल, भाप, बिजली आदि द्वारा शक्ति प्राप्त करने की मंजिलें पार करती हुई इस एटम युग तक पहुंची हैं। सहस्रों वर्षों की इस लंबी यात्रा में अगणित विज्ञान प्रेमियों का योगदान रहा है। इसी प्रकार शिक्षा, संस्कृति, कला, संगीत, धर्म, चिकित्सा रसायन, भाषा, साहित्य, यंत्र, तंत्र आदि अनेकानेक विषयों में प्रगति करते हुए हमारे लिए वर्तमान स्थिति तक पहुंच सकना संभव हुआ है। उसकी पृष्ठभूमि में काम करने वाली सामूहिकता को यदि हटा दिया जाय तो फिर कुछ भी शेष नहीं रहता। अपनी जिस बुद्धिमत्ता पर हम गर्व करते हैं, वस्तुतः यह सामूहिकता की बेटी-पोती ही कही जा सकती है। यदि मानव-प्राणी ने भी एकाकीपन, स्वार्थपरता एवं व्यक्तिवाद ही अपनाया होता, सामूहिकता में उत्साह न दिखाया होता, तो निश्चय ही वह पिछड़ा हुआ प्राणी होता और हो सकता है उसकी दुर्बल काया, प्रकृति के किन्हीं आघातों की चपेट में आकर इस धरती पर से अपना अस्तित्व समाप्त कर लेने के लिये भी विवश हो गई होती।

सामूहिकता में ही हमारी प्रगति और समृद्धि की मूलभूत प्रतिभा एवं प्रेरणा विद्यमान है। भौतिक जगत् में अब अधिकांश कारोबार सम्मिलित के फलस्वरूप ही चल और फल-फूल रहे हैं। कल-कारखाने बहुसंख्यक मजदूरों के सम्मिलित श्रम के फलस्वरूप ही अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाते हैं। शासन, सेना, न्याय आदि के व्यवस्था तंत्र एक देशव्यापी सुसंगठित योजना के ही अंग हैं। सरकारें क्या हैं? जन-संगठन की एक विशाल संस्था ही तो उन्हें कहा जा सकता है? उसके द्वारा संचालित एवं नियंत्रित स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, शोध, अनेक कार्य व्यवस्थित तंत्रों के आधार पर चल पाते हैं। कृषि एवं छोटे-छोटे गृह-उद्योग तक पारस्परिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।

परिवार अपने आप में सामूहिकता की ओर एक प्रयोगशाला है। विवाह का उद्देश्य वासनापूर्ति नहीं, वरन् एक नए परिवार का शुभारंभ मात्र है। क्या किसी ऐसे परिवार की कल्पना की जा सकती है, जिसके सब सदस्य पूर्णतया स्वार्थी हों? कोई किसी के लिए त्याग, प्रेम, उदारता एवं सेवा का व्यवहार न करता हो। ऐसी स्थिति में परिवार का अस्तित्व ही दृष्टिगोचर न होगा। माता यदि अपना रक्त निचोड़कर बालक के मुख में अमृत न टपकाये, तो वह मांस का लोथड़ा कितने समय जीवित रह सकेगा? एक-दूसरे को सहयोग न करें तो बड़ों द्वारा छोटों की सेवा और बड़ों की आनंद उपलब्धि का क्रम टूट जाय और अंततः हर एक को अकेला रहने के लिए विवश होकर तथाकथित श्मशानवासी भूत-पिशाचों की तरह विक्षुब्ध एवं अभावग्रस्त नीरस जीवन व्यतीत करते हुए अपना अस्तित्व ही समाप्त करना पड़े।

हमारा आहार-विहार एवं दैनिक-जीवन का सारा क्रम पारस्परिक सहयोग पर निर्भर रहता है। क्या हममें से कोई ऐसा है, जो अपने लिए अन्न, वस्त्र, पुस्तक, वाहन, औषधि, मनोरंजन आदि प्रसाधनों को स्वयं उत्पन्न करता हो? सुई, दियासलाई जैसी छोटी वस्तुओं तक के लिए हम पराश्रित हैं। एकाकी रहकर न किसी का भौतिक विकास हो सकता है न आत्मिक। योगीजन जो एकांत में रहते हैं, अतीतकाल से मनीषियों द्वारा प्रस्तुत विचारणा की पूंजी की ही उलट-पलट करते रहते हैं। यदि उन्हें स्वाध्याय-सत्संग आदि के माध्यमों द्वारा आवश्यक मार्गदर्शन न मिला होता, तो वे योगी नहीं, एक वन्य पशु की स्थिति में दिन काटने वाले मात्र रह गये होते।

सामूहिकता के महत्त्व को हमें समझना होगा। उसे मानव-जीवन की सर्वोत्तम विभूति के रूप में हृदयंगम करना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि व्यक्ति का वैयक्तिक और समाज की सम्मिलित प्रगति केवल तभी संभव है जब सामूहिकता के प्रति अनन्य निष्ठा की भावनाएं समुचित रूप से विकसित की जा सके। व्यक्ति यदि अपने संकीर्ण स्वार्थ और लाभ की बात सोचता रहे और अपनी कार्य पद्धति को उसी सीमित दायरे में अवरुद्ध रखे तो वह जनसमाज के लिए निरुपयोगी तो हो ही जायेगी, अपनी निज की प्रगति संभावनाओं से भी वंचित हो जायेगा।

जब हम दूसरों का सहयोग करते हैं तो ही यह आशा की जा सकती है कि दूसरे हमारा सहयोग करेंगे। प्रेम के बदले प्रेम, उदारता के बदले उदारता, सहयोग के बदले सहयोग और सज्जनता के बदले सज्जनता की आशा की जा सकती है। दुष्ट दुरात्मा, स्वार्थी, संकीर्ण रहकर दूसरों की सद्भावना प्राप्त कर सकना असंभव है। आतंक, छल या दुरभिसंधियों से किसी के कुछ साधन छीने जा सकते हैं, पर उसका स्नेह-सहयोग नहीं मिल सकता और यह एक तथ्य है कि बड़े से बड़े साधनों की तुलना में सामान्य व्यक्तियों का सद्भाव भी सुख-सुविधाएं बढ़ाने में अधिक कारगर सिद्ध होता है। जो सामूहिकता पर विश्वास करता है, दूसरों की सहायता के लिए तत्पर है, उसे दूसरी ओर से भी वैसी ही प्रतिक्रिया प्राप्त होगी। उन्नति एवं सुख-शांति के अगणित मार्ग इसी आधार पर खुलते हैं। संसार में जितने भी प्रगतिशील महापुरुष हुए हैं उनकी सफलता का कारण दूसरों का भरपूर सहयोग ही कहा जा सकता है और इसी उपलब्धि को वे अपनी उदारता, सज्जनता की कीमत चुकाकर ही खरीद सके। हमें यदि व्यक्तिगत प्रगति एवं उन्नति अभीष्ट हो तो अन्य सद्गुणों के साथ-साथ हमें सामूहिकता का सद्गुण तो सीखना ही पड़ेगा। अन्य अच्छाइयां कुछ कम भी हों, तो काम चल सकता है; पर यदि संकीर्णता, संकोच, एकाकी एवं स्वार्थपरता ने मनोभूमि को अच्छादित कर रखा होगा—मतलब से मतलब रखने की नीति ने ही दूरदर्शिता एवं विचारणा को वंचित कर दिया होगा तो कोई आशाजनक संभावना शेष नहीं रह जायेगी? मन का कोई कृपण आदमी बाह्य-जीवन में कभी महान् बन पाया हो, ऐसा आज तक संभव नहीं हो सका। जिसे व्यक्तिगत स्वार्थपरता ने देश, धर्म, समाज और संस्कृति की बात सोच सकने में वंचित कर रखा होगा, वह शरीर से मनुष्य दिखाई पड़ते हुए भी वस्तुतः एक निकृष्ट प्राणी है। उसकी विकास संभावनाएं निकृष्टता तक ही सीमित रह जायेंगी। उसे कभी ऐसी प्रगति का अवसर न मिलेगा, जिसके लिये वह स्वयं आत्मसंतोष प्राप्त कर सके और दूसरे उसके प्रति श्रद्धा की अभिव्यंजना व्यक्त कर सकें।

अनेकों पाप, दोष इस संसार में होते हैं, पर सबसे बड़ा पाप यह है कि मनुष्य अपने आप तक ही सीमित हो जाय, दूसरों के दुःख-दर्द को घटाने और सुख-सुविधाओं को बढ़ाने के बारे में कुछ करना तो दूर—सोचना भी बंद कर दें। ऐसी स्वार्थपरता मनुष्य जीवन को कलंकित करने वाली है। असंख्य प्रकार के पाप ऐसे ही घृणित मनोभूमि उपजाते हैं। पापों की संख्या अगणित हैं, पर उनका उद्गम एक ही है और वह है—संकुचित स्वार्थपरता।

हमें अपनी समृद्धि और समाज की प्रगति यदि अभीष्ट होगी तो इस निष्कर्ष को हृदयंगम करना होगा कि प्रगति की सारी संभावनाएं सामूहिकता की प्रवृत्ति पर निर्भर रही हैं और रहेंगी। इस मार्ग पर चलते हुए हमारा व्यक्तिगत सर्वतोमुखी पथ ही प्रशस्त न होगा, वरन् उस समाज की सुख-शांति भी बढ़ेगी, जिसकी उन्नति-अवनति पर हमारे भविष्य का प्रकाश और अंधकार अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

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