राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

मालिकों को जगाओ—प्रजातंत्र बचाओ

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प्रजातंत्र संसार की सर्वोत्तम शासन पद्धति है। इसमें अपने भाग्य का निर्माण प्रजा के अपने हाथ में रहता है, अपनी मर्जी की व्यवस्था उसके हाथ में रहती है। बोलने, लिखने और करने की वहां तक आजादी रहती है, जहां तक कि सार्वजनिक सुविधा और राष्ट्र व्यवस्था में व्यतिरेक उत्पन्न न हो। इन गुणों के रहते हुए भी उसमें कमी इतनी ही है कि यदि मतदाता शिक्षित और सतर्क न हो तो चतुर लोग उन्हें बहकाकर वोट तो झपट ही लेते हैं, बल्कि लाभ भी वही लोग उठाते हैं, प्रजाजनों का हित उपेक्षित पड़ा रहता है। प्रजातंत्र का लाभ उठाने और उसका प्राण बनाये रखने के लिए मतदाता को दूरदर्शी, देशभक्त और उपयुक्त निर्णय कर सकने में समर्थ होना ही चाहिए, अन्यथा यह शासन पद्धति स्वार्थी के निहित स्वार्थ पूरे करते रहने का साधन मात्र रह जाती है। प्रजाजन कष्ट पीड़ित एवं पिछड़े ही बने पड़े रहते हैं।

प्रजातंत्री देश के असली मालिकों को, मतदाताओं को यह जानना चाहिए कि उन्हें अपने कर्मचारी कैसे रखने हैं और उनकी नियुक्ति से पूर्व क्या जांच-पड़ताल कर लेनी है? पांच रुपये की मिट्टी की हांडी खरीदते हैं, तब भी उसे ठोक-बजाकर खरीदते हैं, फिर इतनी बड़ी—देशव्यापी—अरबों-खरबों रुपये की संपत्ति की साज-संभाल और देखभाल करने के लिये जिसे ‘मुख्तार आम’ नियुक्त किया जाना है, उस प्रतिनिधि की योग्यता और ईमानदारी भी कसौटी पर कसी ही जानी चाहिए। यह पद इतना छोटा नहीं कि इस पर बिना समझे-बूझे किसी को भी नियुक्त कर दिया जाए। यह देशव्यापी संपत्ति जिसमें 100 करोड़ जनता के जान-माल, प्रभाव-स्तर आदि की समस्त संभावनायें भी जुड़ी हुई हैं। इतनी छोटी चीज नहीं है कि इस वैभव वसुधा को किसी के भी हाथ सौंप दिया जाय।

राष्ट्र की सर्वांगीण व्यवस्था एवं प्रगति के कार्य की विशालता और महत्ता को जब तक ठीक तरह समझा न जायेगा और प्रतिनिधियों द्वारा बिगाड़ने-बनाये जाने की संभावना पर जब तक दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए विचार न किया जायेगा, तब तक मत और मतदान की महत्ता का उत्तरदायित्व और प्रतिनिधि की नियुक्ति का क्रम जब ठीक से न बनेगा तब तक सारा गुड़-गोबर ही होता रहेगा और लोग स्वराज्य की अपेक्षा पर-राज्य को तथा आजादी से गुलामीयत को अच्छा बताने की खोज व्यक्त करते रहेंगे।

मतदाता को हजार-बार यह सोचना चाहिए कि राष्ट्र के विकास और विनाश का उत्तरदायित्व प्रजातंत्र ने उसके कंधे पर सौंपा है। उसे यह अद्भुत अधिकार मिला हुआ है, चाहे तो देश को ऊंचा उठाने, आगे बढ़ाने में योगदान करे अथवा उसे टांग पकड़ कर पीछे घसीटने एवं उसे पतन के गहरे गर्त में धकेल देने की प्रक्रिया पूरी करें। इस अधिकार को वह कई वर्ष बाद—चुनाव के समय पर एक बार ही उपयोग में ला सकता है। चैक पर दस्तखत पांच सेकिंड में हो जाते हैं, उतने से ही जिंदगी भर की कमाई का जमा पैसा बैंक से निकाला जा सकता है। किसी को अपनी जायदाद बेच देने के लिए रजिस्ट्रार के दफ्तर में पांच मिनट खड़े होना और दस्तखत कर देना काफी होता है। बाप-दादों की कमाई उतने भर से ही पराई हो जाती है। ठीक चैक पर दस्तखत करने और रजिस्ट्री ऑफिस में स्वीकृति देने जैसी क्रिया ही मतदान की है। यह चंद घंटे जो मतदान में लगते हैं इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि उसे खिलवाड़ नहीं समझा जाना चाहिए। उसमें अपने और अपने देश के भाग्य को बेच देने जैसी प्रक्रिया संपन्न होती है।

नशा पिला देने भर से प्रसन्न होकर जो जायदाद का बैनामा करदे, उसे क्या कहा जाय? जो थोड़ी चापलूसी से बहककर चैक पर दस्तखत कर दे, उसे समझदार कैसे कहा जायेगा? लड़की की शादी करते हैं तब लड़के तथा उसके खानदान की पूरी-पूरी जांच करते हैं। राष्ट्र-माता की गरिमा लड़की से भी बड़ी है, उसे किसी के हाथ सौंपना हो, तब क्या कुछ भी देखभाल नहीं की जानी चाहिए? धर्मभीरु लोग गाय को कसाई के हाथों नहीं बेचते। चाहे किसी भले मानस के हाथों कम पैसे में अथवा मुफ्त ही क्यों न देनी पड़े। भावनाशील लोग गौ माता के सुख-दुःख का भी ध्यान रखते हैं और उसका रस्सा किसी के हाथों में थमा देने से पहले हजार बार विचार करते हैं कि उसे किसके हाथ में सौंपा जाना ठीक होगा? भारत माता की महिमा गौ माता से भी बड़ी है। उसे किसी को सौंपने की प्रक्रिया का नाम ही मतदान है। इस धर्म कृत्य को एक प्रकार का यज्ञ समझा जाना चाहिए और उस पुण्य–प्रक्रिया को करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि देव भाग को कहीं श्वान-शृंगाल न खा जायें। भारत माता जैसी महान् गौ का दान करते समय प्रतिनिधि की पात्रता का ध्यान रखा ही जाना चाहिए। गलत कदम उठ जाने से ही सारे समाज का अहित होगा और उस दावानल की चपेट से बचेगा अपना भी घर नहीं। लोगों के बहकावे में आकर कोई अपने छप्पर में आग नहीं लगा लेगा। समझदार बच्चे किसी ठग द्वारा लेमनजूस की गोली देकर कोट उतरवा लेने की चालाकी को समझते हैं और बहकावे में नहीं आते। चिड़ियां तक बहेलिये का जाल और दाने का भेद समझती हैं और उनमें से जो होशियार होती हैं पकड़ में नहीं आतीं। चालाक चोर रखवाली वाले कुत्ते को पहले रोटी के टुकड़े देकर भौंकने से बंद रहने का प्रलोभन देते हैं कि वह चुप रहे और चोरी की घात लग जाय, पर समझदार कुत्ते उस भुलावे में नहीं आते। वोट मांगने और झपटने के समय ऐसी ही लाख चतुराई बरती जाती हैं, जिसमें भोले मतदाता की वस्तु स्थिति का पता ही न चले और छोटे प्रलोभनों और झूठे आश्वासनों के फेर में पड़कर उससे वह काम करा लिया जाये जो उसे नहीं करना चाहिए। अब मतदाता की बुद्धिमानी रह जाती है कि वह वस्तु स्थिति को समझे और निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह अपना फैसला उसी के पक्ष में प्रस्तुत करे, जो न्यायानुसार उसका अधिकारी है।

कितने वोट मांगने वाले, भोले-भाले मतदाता को दिग्भ्रांत करने के लिए क्या-क्या तरकीबें भिड़ाते हैं, उन्हें बारीकी से देखा जाय तो धूर्तता का लोहा मानना पड़ता है। जाति-बिरादरी का बहुत जोर उन दिनों दिखाई पड़ता है जिन दिनों वोट पड़ते हैं। अपनी बिरादरी वालों को कहा जाता है कि—अपने तो अपने ही होते हैं, हम आपकी बिरादरी, खानदान, रिश्तेदारी में से हैं, जो आपका भला करेंगे, सो दूसरों का थोड़ा ही कर सकते हैं। जो काम आपका हम से निकल सकता है, सो दूसरों से थोड़े से ही निकलेगा। चुन जाने से अपनी बिरादरी का सिर ऊंचा होगा और दूसरी बिरादरी वाले हम लोगों का मुकाबला न कर सकेंगे। इस प्रकार की बातें भावनाओं को भड़काने में जादू की तरह काम करती हैं और भोले लोग सहज ही उनसे बहकाये-भरमाये जा सकते हैं। इसी सिलसिले में एक और बात भी कही जाती है कि दूसरी बिरादरी वाले ने हम लोगों को चुनौती दी है, गाली दी है कि इस बिरादरी वाले को नीचा

दिखायेंगे। वे लोग अपनी बिरादरी वाले उम्मीदवार को जिताने में लगे हुए हैं और हम लोगों की हेठी करना चाहते हैं। अब आप लोगों का काम है कि उन लोगों को मुंह तोड़ जवाब दें या नहीं। अपने भाई की, अपनी बिरादरी की बात ऊंची करें या नहीं। इस प्रकार का जोश—दिलाकर—फूट पैदा करके—अपनी बिरादरी वालों का वोट इस बहकावे में और दूसरी बिरादरी वालों का वोट आदर्श, सिद्धांत, लालच, खुशामद, दोस्ती, दबाव आदि के आधार पर प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। आजकल यही हथकंडे प्रायः सारे देश में प्रयोग किये जाते हैं और इन्हीं धूर्तताओं से चुनाव जीते जाते हैं।

बिरादरी के हित के नाम पर उन्होंने कब क्या किया है? बिरादरी को कुरीतियों से छुड़ाने में उनका क्या योगदान रहा है? बिरादरी के दुःखी-दरिद्र लोगों की सुविधाओं के लिए उसने क्या किया है? इसका लेखा-जोखा मांगने से वे शून्य निकलते हैं। दूसरी बिरादरी वाले चुनौती देते हैं, यह बात भी प्रायः हर जांच-पड़ताल में झूठ निकलती हैं। कहीं सच भी होती है तो वह भी दूसरी बिरादरी वालों के मुंह से लोभ या दबाव देकर ऐसे शब्द कहलवा लिए जाते हैं, जिसमें अपनी बिरादरी वालों में तनाव पैदा हो और उसका लाभ अपने को मिले। फिर बिरादरी-बिरादरी के बीच कोई युद्ध तो नहीं चल रहा है, जिसमें अपनी जाति के लोगों की जीत आवश्यक हो। सरकारी कोई न्यायानुकूल विधान भी ऐसा नहीं है, जिससे किसी जाति विशेष वाला अपनी जाति वालों का फायदा करा सके। यदि वह अन्याय और पक्षपात से कोई अनुचित लाभ कभी छलबल से करा भी दें तो उससे बदनामी, गलत परंपरा का प्रचलन एवं इतनी गड़बड़ी फैल सकती है कि जातिवाद के नाम पर सर्वत्र पक्षपात चल पड़े और उससे जन-साधारण को न्याय मिलना ही कठिन हो जाय। इन सब बातों को देखते हुए शासन में बिरादरवादी का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है और यदि इस तरह के आधार स्थापित करने का प्रयत्न किया गया तो सबका द्वेष एवं विरोध लेकर वह पक्षपात करने वाला जातिवाद ही घाटे में रहेगा।

ठगों का धंधा सर्वत्र चलता है। ठगी के तरीके भी असंख्य है। ठग लोग पुरानी तरकीबें पकड़ में आ जाने पर नई तरकीबें निकालते रहते हैं, जो पिछली से अधिक अनोखी होती हैं, पर इस ठगी के व्यवसाय में पीछे काम करने वाले तीन मुख्य आधार ज्यों के त्यों रहते हैं। उनमें परिवर्तन कर सकना अभी तक किसी ठग विद्या के निष्ठावान् द्वारा भी संभव नहीं हो सका है। (1) मीठी बातें कहकर अपने को विश्वस्त और शुभ-चिंतक सिद्ध करना, (2) छोटा प्रलोभन-उपहार देकर अपने को उदार एवं सज्जन सिद्ध करना। (3) जल्दी ही कोई बड़ा फायदा करा देने का सब्जबाग दिखाना, इन्हीं तीन सिद्धांतों को विभिन्न रूप में प्रयुक्त करके ठग लोग भोले लोगों को आकर्षित करते हैं और जब वे इन तरकीबों से थोड़े नरम पड़ते, ललचाते दीखते हैं तभी उन्हें वे इस तरह ठगकर चारों खाने चित्त कर देते हैं।

दोस्ती की आड़ में दुश्मनी करने का आज एक फैशन ही हो गया है। पुराने जमाने में जिसे नुकसान पहुंचाना होता था, खम ठोककर सामने आते थे और अपने को खुले आम दुश्मन कहते थे तथा अपने इरादे खोल देते थे। अब फैशन दूसरे किस्म का है। नये जमाने की तरकीब यह है कि जिसे ठगना, सताना या गिराना हो, उससे पहले मित्रता गांठी जाय और जब वह भरोसा करने लगे तभी ऐसा पल्टा लिया जाए कि बेचारा दोस्त बना हुआ व्यक्ति भौचक्का ही रह जाय और इस अप्रत्याशित विश्वासघात के झटके से चित्त-पट्ट हो जाय। वोट मांगने के दिनों कितने ही निम्न स्तर पर चुनाव लड़ने वाले द्वारा प्रयुक्त इस हथकंडे को हर कोई समझदार व्यक्ति आसानी से देख सकता है। वोट लेने से पहले की मिठास, खुशामद और अपनेपन की जो वर्षा की जाती थी, कल्प-वृक्ष की तरह हर मनोकामना को पूरा करा देने की आशा दिलाई जाती थी, उसमें कितनी दम थी, इनका नग्न रूप देखना हो तो चुनाव के बाद उन चुने हुए सज्जन का रंग-ढंग, तौर-तरीका देखकर आसानी से वस्तु-स्थिति को समझा जा सकता है। यों सही तरीकों पर चुनाव लड़ने वाले सैद्धांतिक मतभेद या कार्यक्रमों संबंधी बातों को लेकर ही जनता के पास जाते हैं। वही तरीके काम में लाते हैं, जो ईमानदार प्रतिनिधि को लाने चाहिए; पर ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं होती।

समय आ गया है कि मतदाता अपने को इतना भोला या मूर्ख सिद्ध न होने दे कि उसे हर बार ऐसे ही किसी हथकंडे से ठगा जाय और प्रतिनिधित्व का सेहरा उन लोगों के सिर पर बंध जाय जिनसे लोकहित की ओर आशा नहीं की जा सकती। जो जुआ खेलता है, वह कई गुने लाभ की आशा से ही खेलता है। व्यापार तो कम लाभ पर भी किया जा सकता है, पर जुए का दाब तो तभी लगाया जा सकता है जब कोई गहरा लाभ हो। चुनावों में अंधाधुंध खर्च किया जाने वाला पैसा वस्तुतः जुआ है। जीतने की क्या गारंटी? जुआ उसे कहते हैं जिसके परिणाम पूर्ण अनिश्चित हो। चुनाव में जीत ही होगी, इसका क्या निश्चय है? इतने पर भी जो लोग अंधाधुंध पैसा लगाते हैं, उनका जरूर कोई बड़ा दाव होना चाहिए और वह दाव इतना फायदेमंद होना चाहिए कि यदि दाव हार भी जाया जाय तो उस सफलता से होने वाले लाभ को देखते हुए उस जोखिम को बर्दाश्त भी किया जाय। कुछ को छोड़कर चुनाव में अंधाधुंध खर्च करने वालों का दृष्टिकोण प्रायः ऐसा ही होता है। इसलिए जहां अंधाधुंध पैसा फूंका जा रहा है, वहां उसके पीछे किसी कुटिलता की संभावना तलाश की जानी चाहिए।

कोई ईमानदार व्यक्ति देशसेवा का अवसर पाने के लिए चुनाव में इतना खर्च करता हो तो भी यह न्यायानुकूल नहीं। समय के साथ-साथ इतना धन भी क्यों देना पड़े और क्यों खर्च का इतना स्तर बढ़े, जिसे गरीब प्रतिनिधि वहन ही न कर सके। होना यह चाहिए कि चुनावों में इतना खर्च होने की स्थिति ही न आवे। बहुत खर्च होने पर उसे पूरा करने की जो चिंता करनी पड़ती है—वह किसी को भी न करनी पड़े यही उचित है।

प्रश्न यह है कि क्या हो रहा है, होता रहा है, उसे ही होने दिया जाये या उसमें कुछ परिवर्तन लाया जाये? अधिनायकवाद में तो प्रजा के बस की कुछ बात नहीं रहती, पर जनतंत्र में यह गुंजाइश रहती है कि यदि प्रजा चाहे तो अच्छा शासन लाया जा सकता है और उसके माध्यम से व्यक्ति एवं समाज की सुख-शांति को सुरक्षित एवं समुन्नत किया जा सकता है। निस्संदेह ऐसा हो सकता है। पर वह हो तभी सकता है जब मतदाता अपनी जिम्मेदारी को अनुभव करे और यह सोचे कि मतदान के रूप में उसे कितना बड़ा अधिकार और उत्तरदायित्व मिला हुआ है। अपने और अपने देश के भाग्य-भविष्य का निर्माण कर सकने में उन्हें कितना बड़ा योगदान कर सकने का अवसर प्राप्त है। इतने बड़े अवसर के उपलब्ध होते हुए भी यदि उसका उपयोग करना न आया तो यही समझना चाहिए कि सोते समय सुरक्षा के लिए नियुक्त बंदर के हाथ में तलवार देकर राजा ने भूल ही की है। उसके मुंह पर मक्खी बैठी और उड़ाने के लिए बंदर ने तलवार चला दी, फलस्वरूप उसे नाक से ही हाथ धोना पड़ा। अनाड़ी वोटर उस बंदर की तरह है, जिसे तलवार चलाने के लिए उपयुक्त स्थान और अवसर ढूंढ़ने की समझ नहीं है। जलती दियासलाई डाल देने से विपत्ति ही उत्पन्न हो सकती है। भले ही खेल-खेल में या असावधानी से ही वह भूल क्यों न हो, पर उसका परिणाम तो भयावह हुए बिना रहेगा नहीं। छूटा हुआ तीर वापस नहीं आ सकता, दिया हुआ वोट लौटाया नहीं जा सकता, इसलिये जब तक उसका प्रयोग नहीं हुआ है, उससे पहले ही हजार बार सोचना चाहिए कि इस राष्ट्र की अमानत और समाज की पवित्र धरोहर की श्रद्धांजलि को कहां अर्पित किया जाय। यह देवता के चरणों में चढ़ाने योग्य है या असुर को सौंपा जाए? वोट किसे दिया जाये? किसे न दिया जाये? इसके संबंध में देश के हित और समाज के भविष्य का ध्यान रखते हुए उपयुक्त पात्र की तलाश की जाय, तभी यह संभव है कि देश के सुदिन आये और उसका सौभाग्य सूर्य का उदय हो।

राष्ट्र को पतन या उत्थान की ओर ले चलने को वोट के रूप में मिले हुए अधिकार और अवसर का दूरदर्शिता के साथ उपयोग किया जाना चाहिए। यह तथ्य हमें अपने देश के मालिकों को तत्परतापूर्वक समझाना ही चाहिए और उन्हें पूरे मनोयोग एवं गंभीरता के साथ इसे समझना चाहिए। प्रजातंत्र की सफलता के लिए यह नितांत आवश्यक है कि मतदाता दूरदर्शी एवं जिम्मेदार बनकर अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को समझे और उसे दृढ़ता के साथ निबाहें। वोट केवल उन्हें मिले, जो उसके हकदार हैं। चुनाव में वे जीतें—जिनके हाथ में न्याय और लोकहित सुरक्षित है। ऐसे लोग कथनी से नहीं करनी से परखे जाने चाहिए और उनके अब तक के क्रियाकलाप को सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखा जाना चाहिए कि इनके रक्त में अनैतिकता के विष बीजाणु तो नहीं है। जिस प्रकार किसी घातक रोग के रोगी से हम अपनी कन्या का विवाह करने से स्पष्ट इनकार कर देते हैं, उसी साहस और विवेक को अपनाकर हमें उन लोगों को वोट देने से स्पष्ट इनकार कर देने चाहिए, जो नीति, सदाचार और आदर्शों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।

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