राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

प्रगति की दिशा में सही प्रयत्न

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सभी क्षेत्रों में आज यह अनुभव किया जा रहा है कि एक ओर जितने प्रयत्न उन्नति के लिये किये जा रहे हैं, उतना ही दूसरी ओर अवनति का द्वार प्रशस्त हो रहा है। आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये उद्योग-धंधे बढ़ाये जा रहे हैं, कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने की व्यवस्था की जा रही है, शिक्षा की प्रगति के लिये स्कूल-कॉलेजों की संख्या बढ़ रही है, चिकित्सा के लिये अस्पतालों और डॉक्टरों की संख्या वृद्धि की जा रही है, अपराध रोकने के लिये, कानून, पुलिस और अदालत पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है, यातायात की सुविधा बढ़ाने के लिये रेल, मोटर, जहाज, स्कूटर, सड़कें आदि के निर्माण का विशाल कार्यक्रम चल रहा है। मनोरंजन के लिये सिनेमा, सर्कस, नाटक, खेल-कूद, पार्क आदि का विकास हो रहा है। इन्हें देखते हुए सहज ही यह अनुभव होता है कि प्रगति के इन भारी साधनों द्वारा मनुष्य जाति की सुख-सुविधाओं में अवश्य ही वृद्धि होगी।

लोकशिक्षण के प्रयत्न भी स्वल्प नहीं हैं। सरकार अपनी योजनाओं और सफलताओं से जनता को परिचित कराने के लिये भारी व्यय करके प्रदर्शनियां लगाती हैं, सिनेमा दिखाती है, ग्राम सेवक, ब्लाक-कर्मचारी, कल्याण-विभाग के कार्यकर्ता भारी संख्या में काम कर रहे हैं। कृषि, स्वास्थ्य, सहयोग, शिक्षा आदि का प्रशिक्षण करने के लिए बड़े-बड़े विभाग बने हुए हैं और उनमें प्रचुर धन एवं जनशक्ति का उपयोग होता है। रेडियो द्वारा देशभक्ति, सदाचार, स्वास्थ्य आदि के अनेक प्रकार के कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं। राजनेता, मंत्री आदि के भाषणों की आये दिन धूम मची रहती है। राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र के कार्यकर्ता अपने-अपने ढंग से निरंतर प्रवचन करते रहते हैं। उनके विशाल प्रयत्नों को देखते हुये यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जनता को अवश्य ही उच्च भावनाओं से ओत-प्रोत, कर्तव्यपरायण, आदर्श प्रेमी और सुखी बन जाना चाहिये।

विकास और सुधार का, शिक्षा और समृद्धि का, चिकित्सा और सुविधाओं का जितना विशाल आयोजन आज हो रहा है उतना संसार के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। इसे देखते हुए जहां एक ओर आशा बंधती है, वहां दूसरी ओर देखते हैं तो निराशा से चित्त क्षुब्ध होने लगता है। इतनी चेष्टा करने पर भी स्थिति हर दिशा में बिगड़ती ही जा रही है। शारीरिक दृष्टि से लोग अपने को अशक्त, दुर्बल और रोगी ही अनुभव करते हैं। ऐसे भाग्यशाली विरले ही मिलेंगे, जो अपने को पूर्ण निरोग होने का भरोसा कर सकें। श्रद्धा, विश्वास और आत्मीयता का गृहस्थ-जीवन कोई विरले ही बिता पा रहे हैं। दांपत्य और पारिवारिक जीवन जहां भी देखिये वहां विषाक्त बना दिखाई देता है। आमदनी से खर्च सबका बढ़ा हुआ है। सभी अपने को गरीब, अभावग्रस्त अनुभव करते हैं। शिक्षितों को नौकरी न मिलने पर या ठीक वेतन न मिलने की शिकायत रहती है। गुंडागर्दी और अपराधों की तो बाढ़ ही आ गई है, जिससे हर व्यक्ति सदैव सशंकित बना रहता है। सरकारी क्षेत्रों में रिश्वतखोरी और लापरवाही बेहिसाब बढ़ गई है, जिससे न्याय और अधिकारों का प्राप्त होना दिन-दिन महंगा और कष्टसाध्य बनता चला जा रहा है। सार्वजनिक संस्थाओं के पोलखाते जब सामने आते हैं, तब और भी अधिक निराशा होती है। जिनकी स्थापना लोगों को उच्च आदर्श सिखाने के लिये की गई हो, उनके संचालक और पदाधिकारी ही यदि आदर्शहीनता का परिचय देने लगें, तो फिर कौन उनके उपदेशों को सुनेगा और कौन उन पर आचरण करेगा?

धार्मिक अनुष्ठानों की आये दिन धूम रहती है। कथा, हवन, कीर्तन, सम्मेलन रोज ही कहीं-न-कहीं होते रहते हैं। इन्हें देखते हुए यही जान पड़ता है कि धर्म का विस्तार हो रहा है। साधु-संतों की संस्था तक पहुंच जाने में एक सामान्य मनुष्य यह चाहता है कि उनके द्वारा जनता में ज्ञानवृद्धि और धर्म की जागृति होती ही होगी, पर जब वास्तविक परिणाम का पता लगाया जाता है तो आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है और यही प्रतीत होता है कि यहां तो मेंड़ ही खेत को खाये जा रही है।

प्रगति पर बाह्य आवरण दिन-दिन बहुत बढ़ता चला जा रहा है, आडंबर का घटाटोप बंध रहा है, पर भीतर सब कुछ खोखला है। मनुष्य का चरित्र, दृष्टिकोण एवं आदर्श पतित होने पर सभी ऊपरी उपचार निरर्थक सिद्ध होते हैं। रक्त-विकास से रुग्ण शरीर में जगह-जगह निकलते रहने वाले फोड़ों पर मरहम लगा देने मात्र से कोई स्थायी हल नहीं निकल सकता। जड़ के सींचे बिना केवल पत्तों पर छिड़काव कर देने से पेड़ की हरियाली कब तक बनी रहेगी?

संसार में दिन-दिन बढ़ती जाने वाली उलझनों का एक मात्र कारण मनुष्य के आंतरिक स्तर, चरित्र, दृष्टिकोण एवं आदर्श का अधोगामी होना है। इस सुधार के बिना अन्य सारे प्रयत्न निरर्थक हैं। बढ़ा हुआ धन, बढ़े हुए साधन, बढ़ी हुई सुविधाएं कुमार्गगामी व्यक्ति को और भी अधिक दुष्ट बनायेंगी। इन बढ़े हुए साधनों का उपयोग वह विलासिता, स्वार्थपरता, अहंकार की पूर्ति और दूसरों के उत्पीड़न में ही करेगा। असंयमी मनुष्य को कभी रोक-शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता, भले ही उसे स्वास्थ्य-सुधार के कैसे ही अच्छे अवसर क्यों न मिलते रहें?

कठिनाइयां, अभावों और विपत्तियों की जड़ मनुष्य के भीतर रहती है। जितना प्रयत्न संसार को सुखी और समृद्ध बनाने के लिये किया जा रहा है, यदि उसका सौवां भाग भी मनुष्यों के आंतरिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिये किया जाता तो आज स्थिति कुछ और ही होती। जब तक हम वास्तविक दशा को न समझेंगे तब तक असफलता और निराशा के अतिरिक्त और क्या हाथ लगने वाला है? जिन लोगों के कंधों पर जन-सेवा का भार है, वे ही यदि अपने कर्तव्य की उपेक्षा करके जैसे बने वैसे स्वार्थ साधने की ठान-ठान लें तो फिर उनके दिखावटी प्रयत्नों से किसी शुभ परिणाम की आशा कैसे की जा सकती है?

बाहरी आडंबरों के बढ़ने से किसी समस्या का हल न होगा। मानव-जीवन की दिन-दिन बढ़ने वाली समस्त आपत्तियों का समाधान करने का केवल एक ही मार्ग है कि मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर ऊंचा उठाया जाय और उसकी भावना, श्रद्धा तथा आकांक्षाओं को धर्म एवं सदाचार से नियंत्रित रखा जाय। जब मनुष्य अपने आत्म गौरव, कर्तव्य और लक्ष्य को भली प्रकार अनुभव कर सकेगा तभी प्रवृत्ति से ऊंचा उठकर मनुष्य के योग्य यशस्वी पथ का पथिक बन सकता है।

रोग का ठीक निदान हो जाने पर चिकित्सा संबंधी आधी कठिनाई हल हो जाती है। पेट में कब्ज रहने पर अनेक रोग उठ खड़े होते हैं, स्वभाव में क्रोध की मात्र बढ़ जाने से अनेक विरोधी तथा शत्रु पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार जिस राष्ट्र की जनता स्वार्थी, विलासी, कायर, आलसी और दुर्गुणी हो जाती है, वहां अगणित प्रकार के शोक-संताप बढ़ने लगते हैं। बाहरी उपचारों से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। रोग के कारणों को हटाने से ही व्यथा दूर होती है। व्यक्तियों का आंतरिक स्तर ऊंचा उठाने पर ही पतन का प्रत्येक दृश्य उन्नति में बदलने लगता है।
विश्वशांति की स्थिति उत्पन्न करने का कोई प्रयत्न तभी सफल होगा, जब व्यक्तियों की भावनाओं को ऊंचा उठाने को सर्वोपरि महत्त्व की बात मानकर योजना बनाई जाय। मुझे युग-निर्माण योजना में ऐसा ही सार्थक प्रयत्न प्रतीत होता है। उसके संयोजकों ने समस्या की जड़ ढूंढ़ने का प्रयत्न किया है और रोग के सही निदान के अनुरूप चिकित्सा आरंभ की है। सही दिशा में उठाये हुए कदम ही सही परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं। यदि इन प्रयत्नों को प्रोत्साहन मिला तो विश्वासपूर्वक यह आशा की जा सकती है कि राष्ट्रव्यापी अशांति की समस्या का हल निकलेगा और भारतवर्ष का भविष्य पुनः उज्ज्वल बनेगा।
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