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ग्रामोत्थान—राष्ट्र की आत्मा का उत्थान

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भारतवर्ष की आत्मा के दर्शन करने हों तो गांवों की ओर चलना चाहिए। शहरों में विभिन्न संस्कृतियों तथा सभ्यताओं के सम्मिश्रण से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जहां धर्म-प्राण भारतवर्ष के कठिनाई से दर्शन हो सकते हैं। यहां की आंतरिक सुदृढ़ता, ईश्वर-विश्वास, लोक-जीवन की वस्तुतः झांकी तो देहातों में ही होती है, जहां भोले-भाले ग्रामीण निवास करते हैं।

खेद की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्त किये हुए बहुत दिन हो गये, किंतु गांवों की अवस्था में किसी तरह का सुधार नहीं हुआ। भारतवर्ष में साढ़े पांच लाख से भी अधिक संख्या गांवों की है। शहरों की संख्या तो केवल ढाई हजार के लगभग ही है। इस अवधि में उद्योग, जल, विद्युत्, मकान आदि की जो अनेक सुविधाएं बढ़ी हैं और उससे यहां की आय और रहन-सहन के स्तर में कुछ सुधार हुआ है, उसका लाभ अधिकांश शहरों को ही मिला है। गांव अब तक नितांत उपेक्षित हैं। वहां के निवासियों की अवस्था पहले से भी गई बीती है, वहां के लोगों का जीवनस्तर अभी भी गिरा हुआ ही है।

गांवों की उपेक्षा का अर्थ है—भारतीय आत्मा की उपेक्षा। इसके कारण यहां की उन्नति का सही मूल्यांकन नहीं हो सकता। गांव हमारे देश के विकास की रीढ़ हैं। ग्रामीणों पर यहां की उन्नति-अवनति आधारित है। इसलिए इस दिशा में सरकारी अथवा सामाजिक संस्थाओं द्वारा विकास के हर संभव प्रयास किये जाने चाहिए। गांव जाग जायेंगे—तो भारतवर्ष जाग जायेगा। गांव उठेंगे—तो भारतवर्ष ऊंचा उठ जायेगा।

यह बात अब सरकार ने भी मान ली है कि ग्रामोत्थान राष्ट्र की प्रमुख समस्याओं में से हैं और इसके लिए वह प्रयत्नशील भी है, पर यह बात पूरे मन से समझ लेनी चाहिए कि इस समस्या का हल ग्रामीणों के पास है। वे स्वयं ही अपनी उन्नति कर सकते हैं। ग्रामोत्थान के लिए विशेष रूप से उन्हें कटिबद्ध होना पड़ेगा। यदि ऐसा न हुआ तो सरकारी साधन और प्रोत्साहन किसी काम न आयेगा। समस्या ज्यों कि त्यों उलझी पड़ी रहेगी।

पहली आवश्यकता जो गांव मांगते हैं, वह है आमदनी का बढ़ना। गांवों के लोग कठिन परिश्रम करते हैं, तो भी उन्हें उसका समुचित मूल्य नहीं मिलता। वे स्वयं कमाते हैं, पर उनका आहार नितांत अपौष्टिक पायेंगे। कपड़े फटे हुए, मकान गिरे-गिराये। इसमें उनकी व्यवस्था का, अशिक्षा का दोष प्रमुख है। गांवों में गोबर की खाद पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाती है, पर उसे इस्तेमाल में लाने का तरीका गलत है। अतः उन्हें कंपोस्ट खाद बनाना सीखना चाहिए। मजदूरों और किसानों में पारस्परिक सहयोग बना रहना चाहिए। यह न हो कि मौके पर मजदूर किसान को परेशान करे और किसान मजदूर को। इससे दोनों की ही कार्य क्षमता घटती है, समय का अपव्यय होता है।

खेती में उपयोग आगे वाले यंत्रों को आधुनिक रूप देने में भी कुछ हर्ज नहीं, न इससे किसी तरह की हानि ही है। साधन बढ़े तो ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, मॉडल की मशीनों को अकेले या सामूहिक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। इससे कम समय में काम अधिक होता है। आमदनी दो गुनी, तीन गुनी तक बढ़ सकती है। धन की कमी का रोना फिजूल बात है। जेवरों के रूप में अभी भी गांवों में सोना-चांदी कम नहीं है। बेकार में नष्ट करने की अपेक्षा उसे इन कार्यों में लगा देने में लाभ ही है।

पशुओं और आदमियों से खेतों की सुरक्षा के लिए कांटेदार तार या कांटेदार झाड़ियां मेडों में गाड़ी जा सकती हैं। जिनके पास काम न हो उन्हें पशुपालन, लकड़ी काटने, दूध बेचने आदि के सहायक धंधे खोल लेने चाहिए और भी किसी तरह का स्थानीय उद्योग पनप सकता हो, तो उसे भी चलाना चाहिए। सिंचाई आदि के साधनों के लिए जो सरकारी ब्याज की व्यवस्था की गई है, उनका भी लाभ लेना चाहिए। संक्षेप में आमदनी बढ़ाने के जो भी तरीके हो सकते हैं, उन सबका प्रयोग करना ही चाहिए।

उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता यह तीनों ही अनिवार्य हैं। गांव वालों में अशिक्षा और अस्वच्छता तो एक प्रकार का रोग है। गांव के लोग मिलजुल कर ऐसी पाठशाला चला सकते हैं, जहां कामकाजी आदमी शाम को बैठकर कुछ पढ़-लिख सकें, सत्संग कर सकें, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं की जानकारी प्राप्त करते रहा करें। भजन-कीर्तन की कुछ मनोरंजन व्यवस्था भी की जा सकती है। स्वास्थ्य के लिए हर गांव में अखाड़े रहें। चिकित्सा की भी व्यवस्था बहुत जरूरी है। अपने शरीर-वस्त्र घर-बाहर की स्वच्छता और सफाई भी अनिवार्य है। आमतौर से गांवों में नावदान का पानी बहुत अव्यवस्थित रहता है, उसके लिए ‘‘साकेटपिट्स’’ का निर्माण कराना ही उत्तम होता है। गांव की प्रकृति स्वच्छ होती है, ग्रामीण अपनी स्वच्छता पर भी थोड़ा ध्यान दें लें, तो उससे ‘सोने में सुहागे’ की कहावत फलितार्थ हो सकती है।

ग्रामीणों की अवनति का एक कारण रूढ़िवादिता भी है। बहुत समय से ऐसे रीति-रिवाज चले आ रहे हैं, जिनसे लाभ की अपेक्षा हानि अधिक है। तिथि-त्यौहारों में भी विवेक का कोई स्थान नहीं। भूत-प्रेतों पर विश्वास, झाड़-फूंक, विशेष अवसरों पर जानवर सजाने, बलि देने आदि अनेकों ऐसी बुराइयां गांवों में प्रचलित होती हैं, जिनके कारण उनका समय, श्रम और धन बेकार में नष्ट होता है। इन रूढ़िवादिताओं को अब शहरों की तरह गांवों को भी बुद्धि विवेकी की दृष्टि से देखना चाहिए और घृणित कुरीति चाहे वह दहेज, मृत्युभोज आदि ही क्यों न हो, उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए। यह पैसा बड़े काम का है। इससे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था हो सकती है, अच्छे जानवर भी खरीदे जा सकते हैं, कोई सहायक धंधा भी चलाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि गांव वाले यह समझें और इस पर विचार करें कि कौन-कौन से काम हमारे भले के लिये हैं? कौन-कौन से नुकसान करते हैं? इन पर मिलजुल कर विचार करना चाहिए और उन्हें छोड़ने के लिये सामूहिक रूप से कटिबद्ध होना चाहिए।

भेद-भाव की बीमारी इस देश में बहुत काल से चली आ रही है। ब्राह्मण-ब्राह्मण में भी भेद है। जाति-पांति के झगड़े गांवों में विशेष रूप से चलते रहते हैं। इस कारण आपसी वैमनस्य का वातावरण हमेशा ही बना रहता है और आये दिन-सिर फुटौअल होती रहती है। जिस समाज में इस प्रकार अनात्मीयता का व्यापक विस्तार हो, वहां उन्नति की संभावनायें टिक भी नहीं सकती। अतः अब इस भेद-भाव को भूलकर अपना संगठन हिंदू की भावना से दृढ़ करने पर जोर देना चाहिए। खान-पान सब एक साथ बैठकर कर सकें तो इसमें हर्ज की कौन-सी बात है? इससे किसी का धर्म तो नहीं चला जाता। मुसलमान एक ही थाली में कई-कई बैठकर भोजन कर लेते हैं, फिर हिंदू क्यों वैसा नहीं कर सकते? किसी भी तरह हिंदुओं की अपने सामाजिक बंधन मजबूत बनाने के विशेष प्रयत्न करने ही चाहिए। मिलजुल कर काम करने से उनकी अनेक समस्यायें हल हो सकती हैं।

पंचायतें प्राचीन काल में जातीय एकता की प्रतीक थीं, किंतु अब उनमें भेद-भाव, पक्षपात और स्वार्थपरता चलती हैं। पंचायतों का संगठन सामाजिक आत्मीयता के आधार पर हो तो गांवों का बहुत बड़ा हित हो सकता है। इसी प्रकार विवाह-शादी में जाति-पांति तोड़ने की बात भी संभव है। कुछ दिन तक विरोध होगा, पर उसे भी धीरे-धीरे दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए।

ईमानदारी गांव वालों की मुख्य जायदाद है, क्योंकि वे आपस में इतने संबद्ध होते हैं कि एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। लोहार खेती के औजार बनाकर देता है, किसान बदले में उसे अनाज देता है। किसान-किसान का भी घनिष्ठ संबंध होता है। सब एक-दूसरे से इतने संबद्ध होते हैं कि एक के बिना दूसरे का काम ही नहीं चल सकता। समस्या का एक ही हल है सब ईमानदारी के साथ सामुदायिक भावना से काम करें। इसमें सबका हित, सबकी उन्नति है। जिन गांवों में, मिलजुल कर काम हो रहा है, वे उन्नति करते चले जा रहे हैं।

उपरोक्त पांच शुद्धियों से गांवों के स्वरूप का निखार संभव है। कुरीतियों को मिटाया जाए और उद्यम को बढ़ाया जाए तो हमारे गांव स्वर्गीय वातावरण में बदल सकते हैं। गांवों में भारतवर्ष की आत्मा निवास करती है, यह आत्मा जाग जाए तो सारे राष्ट्र का कल्याण हो सकता है।

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