राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

चुनाव की पद्धति बदली जाए

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जनतंत्र-शासन प्रणाली किसी भी देश के लिए एक वरदान है। कारण स्पष्ट है कि जनता के चुने हुए व्यक्ति ही शासन में पहुंचकर शासनसूत्र संभालते हैं। जब लोगों के मन चाहे प्रतिनिधि ही राजकाज संभालेंगे तो वे उनका हित ही करेंगे, जिन्होंने उन्हें अपना विश्वासपात्र समझकर शासन में भेजा है। जनतंत्र वास्तव में यह शासन है, जो जनता द्वारा जनता में ही संचालित हुआ करता है। इसमें परोक्ष रूप से हर आदमी स्वयं अपना शासक हुआ करता है। भला इससे अच्छा रामराज्य तथा सुखी राज्य क्या हो सकता है?

किंतु यही जनतंत्र एकतंत्र अथवा राजतंत्र से भी भयानक अभिशाप हो जाता है, जब अजागरूक जनता का मत प्राप्त कर गलत, गंदे और स्वार्थी व्यक्ति शासन में पहुंच जाते हैं। ऐसे चालाक लोग तरह-तरह के सब्जबाग दिखाकर और सौगंधें खाकर हित करने के नाम पर जनता के वोट मार ले जाते हैं और वे सत्ता में आते हैं तब सारे वचनों तथा सौगंधों को एक ओर रख देते हैं और आंख मूंदकर अपना स्वार्थ सफल करने में जुट जाते हैं। ऐसे विपरीत परिणाम उन जनतंत्रीय देशों में अधिक सामने आते हैं, जिनकी जनता अशिक्षित तथा राजनीतिक चेतना से शून्य हुआ करती है—जो न तो अपने वोट का मूल्य जानती है और न व्यक्त को पहचानती है। जिस किसी ने जिस तरह बहका लिया उसी को वोट दे दिया और बस!

भारत एक ऐसा ही जनतंत्रीय देश है, जहां की आम जनता राजनीतिक दृष्टि से न तो ठीक-ठीक जागरूक है और न पर्याप्त रूप से पढ़ी-लिखी ही है। यही कारण है कि भारतवासी जनतंत्र शासन प्रणाली का कोई विशेष लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।

जब तक प्रजातंत्र रहेगा, चुनाव होते रहेंगे। वोट दिये और लिये जाते रहेंगे। साथ ही अबोधता के कारण गलत और गंदे लोग शासन में पहुंचकर अभिशाप बनते रहेंगे। अब सिवाय इसके कि जब तक जनगण पूरी तरह शिक्षित तथा जागरूक नहीं होते, चुनाव के कोई ऐसे उपाय निकाले जायें, जिससे गलत और गंदे व्यक्ति शासन में न पहुंचकर अच्छे और ईमानदार लोग ही पहुंचें।

चुनाव की रीति में सुधार तो लोकसभा, विधान सभाओं के चुनावों में भी होने चाहिए—किंतु यह एक बड़ा काम है और जब तक कोई परखी हुई रीति-नीति हाथ न आ जाये तब तक इनकी निर्वाचन नीति में सुधार की कल्पना नहीं करनी चाहिए। हां, ग्राम-पंचायतों के छोटे चुनावों में कोई भी नीति प्रयोग करके देखी जा सकती है। ग्राम पंचायतों की चुनाव रीति में कतिपय सुधारों के सुझाव नीचे की पंक्तियों में दिये जाते हैं। इन सुधारों को ग्राम पंचायतों के निर्वाचन में प्रयोग करके देखा जा सकता है। यदि यह वास्तव में सार्थक उपयोगी तथा व्यावहारिक सिद्ध होते हों तो इनका प्रयोग लोक निर्वाचन में भी किया जा सकता है।

ग्राम पंचायतों के चुनाव में सबसे दुःखद बात यह होती है कि चुनाव का परिणाम एक स्थायी शत्रुता के रूप में सामने आते हैं। अधिकतर लोग अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी से प्रेरित होकर एक-दूसरे को हराने, नीचा दिखाने तथा अपमानित करने की नियत से चुनाव प्रतियोगिता में खड़े होते हैं, ग्रामों के विकास अथवा ग्रामीण जनता का हित करने के मंतव्य से नहीं। ‘वह खड़ा हुआ है तो मैं भी खड़ा होऊंगा’ इस प्रकार की स्पर्धा भावना जनतंत्रीय पद्धति के लिए बड़ी हानिकर है। उनमें से एक जीतता है, एक हारता है। जीता हुआ व्यक्ति अभिमान से भरकर पराजित प्रतिद्वंद्वी को विविध प्रकार से चिढ़ाने का प्रयत्न किया करता है। यह समझता है कि मैंने चुनावों में अमुक को हराकर अपनी दुश्मनी पूरी कर ली। पराजित व्यक्ति अपनी हार से इतना क्षुब्ध हो उठता है कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को अन्य अनेक प्रकार से अपमानित करने का प्रयत्न किया करता है। इसका परिणाम यह होता है कि उन दोनों प्रतिद्वंद्वियों का थोड़ा-सा भी मनोमालिन्य और अधिक गहरी तथा स्थायी दुश्मनी के रूप में परिणत हो जाता है।

जनतंत्रीय देशों की जनता को चुनावों की हार-जीत को अपने व्यक्तिगत मानापमान का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए। प्रत्याशियों की हार तो वास्तव में मतदाताओं की ही हार हुआ करती है और फिर दो में एक जीतेगा और एक हारेगा ही। प्रत्याशियों को चाहिए कि वे चुनावों को खिलाड़ी की भावना से हार-जीत से परे होकर लड़ें। किंतु खेद है कि अपनी मानसिक न्यूनता के कारण भारत की जनता चुनावों की हार-जीत को अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न ही बना लेती है।

चुनावों के कारण गांवों में जो दुश्मनी बढ़ती और अशांति फैलती है, इसे कम करने के लिए पंचायतों की चुनाव पद्धति में कुछ सुधार की नितांत आवश्यकता है। सबसे पहली जरूरत यह है कि चुनावों में निःस्वार्थी तथा सेवाभावी व्यक्ति ही सफल हों। किंतु यह हो कैसे? लोग चुनावों में ऐसे-ऐसे हथकंडे काम में लाया करते हैं, जिनको कोई भी भला, ईमानदार तथा इज्जतदार आदमी नहीं अपना सकता—अतः वह हार जाता है और धूर्त व मक्कार लोग जीत जाते हैं।

इस अभिशाप को कम करने के लिए एक बात तो यह हो सकती है कि कोई किसी के मुकाबले में खड़ा न हो। केवल एक आदमी ही खड़ा किया जाए और वह निर्विरोध चुन लिया जाए। निर्विरोध चुनाव से किसी को हार, जीत का घमंड व ग्लानि न होगी और न परस्पर शत्रुता ही बढ़ेगी।

केवल एक ही आदमी को निर्विरोध चुनने का तरीका यह हो सकता है कि किसी भी ग्राम पंचायत से असंबंधित कोई एक ऐसा बाहरी व्यक्ति मनोनीत कर लिया जाए, जो न तो किसी दल से संबंधित हो और स्वयं चुनाव लड़ने को उत्सुक हो, साथ ही जिसकी ईमानदारी तथा निष्पक्षता अधिक से अधिक सर्वमान्य हो। ऐसे किसी व्यक्ति को चुनाव के लिये मनोनीत नहीं किया जाता है। बल्कि यह व्यक्ति एक प्रकार से विश्वसनीय मध्यस्थ होगा। मध्यस्थ निश्चित हो जाने के बाद सारे मतदाता अपनी-अपनी रुचि के तीन-तीन नाम उक्त मध्यस्थ को चुपचाप दे दें। इन तीनों नामों को प्राथमिकता के क्रम से मतदाता तीन, दो तथा एक नंबर दे दें। इस प्रकार सारे मतदाताओं की ओर से नाम आ जाने वाले तीन व्यक्तियों को चुन लें। फिर क्रम से उन्हें बुलाकर पूछें कि क्या वे ग्राम पंचायत का सदस्य बनना स्वीकार करेंगे। पहले, पहले नंबर वाले से पूछा जाए—यदि वह तैयार न हो तो दूसरे से और यदि वह भी तैयार न हो तो तीसरे से। इस प्रकार प्राथमिक क्रम में जो खुशी से तैयार हो जाए उससे निःस्वार्थ सेवाभाव के एक प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करा लिए जायें और उसका नाम सार्वजनिक स्वीकृति के आधार पर चुनाव के लिए घोषित कर दिया जाये। इस सार्वजनिक घोषणा की सभा में मनोनीत व्यक्ति को भी अपना प्रतिज्ञापत्र पढ़कर सुनाना होगा और स्वीकार करना होगा कि वह पंचायत में पहुंचकर गांवों तथा ग्रामवासियों की हर संभव सेवा बिना किसी स्वार्थ के करेगा और कभी भी किसी स्थान अथवा प्रसंग में किसी प्रकार की बेईमानी अथवा गड़बड़ी नहीं करेगा।

इस प्रकार पहले से चुपचाप अपना प्रतिनिधि चुन लेने के बाद उक्त व्यक्ति को सार्वजनिक-सरकारी चुनावों में खड़ा किया जाए। स्वाभाविक ही है कि वह निर्विरोध में चुन जायेगा, उसके विरोध में कोई खड़ा ही न होगा और कोई हठपूर्वक खड़ा यदि हो भी जायेगा तो अवश्य ही हार जायेगा।

इस प्रकार पहले से ही चुपचाप गुप्त चुनाव हो जाने से सरकारी चुनावों के अवसर पर न तो प्रत्याशियों की भीड़ खड़ी होगी और न मतदान का हंगामा होगा और न हार-जीत की प्रतिक्रिया होगी। सारा काम शांतिपूर्वक सरलता से संपन्न हो जायेगा। मतदाताओं के प्रचार-प्रवाह में पड़कर बह जाने की भी शंका न रहेगी। जिससे कि नेक और निःस्वार्थ व्यक्ति ही पंचायतों में पहुंचेंगे और वे ईमानदारी से गांवों तथा ग्रामवासियों की सेवा करेंगे।

मत-पद्धति स्वशासन का प्रतीक है, यह निर्विवाद है, पर अभी अपने देश में इस उत्तरदायित्व को समझने के लिये स्वतंत्री व्यवस्था में हर व्यक्ति को, अपने को सरकार का अंग समझना चाहिए, उसे यह अनुभव करना चाहिए कि वह स्वयं अपना शासक है। वोट देते समय उसे इस जिम्मेदारी को अनुभव करना चाहिए। यदि देश में लोकतंत्र को सफल होना है और उसे अपनी यथार्थता सिद्ध करना है, वह सही निर्णय का उत्तरदायित्व वहन करे, साथ ही अधिकारी वर्ग उसे अपनी इच्छानुसार पालन करने दें। इस बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया जाना और चुनाव की पद्धतियों में आवश्यक परिवर्तन किया जाना ही जनता के लाभ की दृष्टि से भी उपयोगी है और लोकतंत्र का मूलभूत उद्देश्य भी इसी से सिद्ध हो सकता है।

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