राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

अनौचित्य के विरुद्ध समर्थ नैतिक क्रांति की आवश्यकता

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यह संसार पांच तत्वों का बनाया हुआ है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के सम्मिश्रण से यह विविधविध सृष्टि निर्मित हुई। चेतन जगत् को प्रतिध्वनित करने वाली पांच तन्मात्राएं हैं—गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द—क्रमशः इन्हीं पांचों का प्रतिनिधित्व ज्ञानेंद्रियां करती हैं। नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान इन पांचों की अनुभूतियों के आधार पर शरीर और मन का ढांचा खड़ा हुआ है। पूजनीय देवताओं में पांच प्रधान माने गये हैं—ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गौरी और गणेश। यह पृथ्वी पांच महाद्वीपों में बंटी हुई और समुद्रों का विभाजन भी पांच भागों में हुआ है। यहां पांच की संख्या में जुड़े हुए अनेक माध्यमों को इतना उत्कृष्ट कहा जा सकता है कि उनके लिये सृष्टि का प्राण संबोधन करना अनुचित न होगा। पंच परमेश्वर कहने का अर्थ यह है, जहां पांच श्रेष्ठ व्यक्ति उपस्थित हों, वहां परमेश्वर ही उपस्थित जाना जाय।

व्यक्ति और समाज को सुव्यवस्थित और समुन्नत स्थिति में बनाये रखने के लिए पांच शक्तियां ही प्रमुख हैं—(1) शासन, (2) धर्म, (3) विद्या, (4) कला, (5) धन। इन्हीं के आधार पर कोई देश या समाज ऊंचा उठता है और समर्थ बनता है। व्यक्ति का स्तर उठाने में भी इन पांचों की ही गरिमा सन्निहित है। इनका सदुपयोग जहां कहीं भी होगा, वहां सुख-शांति का वातावरण उत्पन्न होगा और जहां कहीं उनका दुरुपयोग हो रहा होगा, वहां पतन और विनाश की परिस्थितियां उत्पन्न हो रही होंगी।

स्वर्ग के देवता जो भी हों, सूक्ष्म जगत् में जिनका भी प्राधान्य हो, प्रत्यक्ष जगत् में पांच देवता ही प्रत्यक्ष हैं और उनकी कृपा एवं तत्परता का परिणाम ही आनंद और उल्लास के रूप में संपत्ति और प्रगति के रूप में दीख पड़ता है और उनका प्रकोप एवं रोष दसों दिशाओं में कुहराम उत्पन्न कर देता है और सर्वत्र नरक की सर्वभक्षी दावानल धधकने लगती है। इन पांच देवताओं के नाम हैं—(1) राजनेता, (2) धर्माचार्य, (3) बुद्धिजीवी, (4) कलाकार, (5) धनवान्। चूंकि पांचों शक्तियों के अधिपति यही लोग हैं। इसलिये इन पांचों वर्गों को प्रत्यक्षरूपेण व्यक्ति और समाज का कर्ता, भर्ता, हर्ता कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति न होगी। यह जिस दिशा में चलते हैं, सब उसी दिशा में चलने लगते हैं। पवन के प्रवाह के साथ पत्ते और रेत के कण उड़ते चले जाते हैं। जल का प्रवाह जिधर बहता है उसी दिशा में लहरों की गति होती है। इन पांचों सत्ताधारियों की दिशा जिधर भी चल रही होगी, साधारण जनता का, समाज के क्रियाकलाप का चिंतन और कर्तृत्व उसी दिशा में चलता, बढ़ता देखा जायेगा।

देवताओं को सम्मान मिलता है, क्योंकि उनके अनुग्रह पर सुख-शांति का आधार अवस्थित है। शक्ति की, शक्तिवान् की पूजा का होना स्वाभाविक भी है। वैभव और विनाश-शक्ति से संभव होता है, इसलिये जहां कहीं शक्ति-स्रोत होगा, वहां जन साधारण को मस्तक झुकाना ही पड़ेगा। आज भी इन पांच देवताओं को हर जगह सम्मान मिलते, पूजा-उपकरणों से अलंकृत देखते हैं। धन और यश इन पांच वर्ग के लोगों को ही मिलता है। विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व वे ही करते हैं। जनता उनका वर्चस्व भी स्वीकार करती है। अपने समय निर्माता वस्तुतः यह पांच ही हैं। परिस्थितियों का श्रेय इन्हें दिया जाना चाहिए, क्योंकि निर्माण की सर्वतोमुखी जिम्मेदारी इन्हीं की है। जब-जब इन पांच वर्गों ने अपना स्तर ऊंचा रखा है और क्रियाकलापों में अपने महान् गौरव एवं उत्तरदायित्व को ठीक तरह संभाला है, वहां स्वर्गीय वातावरण ही पैदा हुआ है।

साथ ही एक और बात भी जुड़ी हुई है कि यदि इन सत्ताधीशों ने अपनी क्षमता का दुरुपयोग किया, दुष्टता और दुर्बुद्धि का परिचय दिया, तो उसका दुष्परिणाम सारे समाज को भुगतना पड़ता है। शासन के सूत्र संचालक यदि व्यक्तिगत स्वार्थ साधन पर उतर आयें, सत्ता को अपने हाथ से न जाने देने के लिये हर बुरा-भला कदम उठाने को तत्पर हो जायें, पक्षपात बरतें और अनीति का समर्थन करें, तो समझना चाहिए कि सारा शासनतंत्र ही भ्रष्ट हो जायेगा और सत्तातंत्र के भ्रष्ट होने पर उनके प्रभाव और दबाव में रहने वाली जनता को भी भ्रष्टता की कीचड़ में धंसना पड़ेगा। राजनेता, जिन राज कर्मचारियों के माध्यम से स्वार्थ-साधन करते हैं, वे उस दुर्बलता को समझ जाते हैं। उनका जितना काम निकालते हैं, अपना उससे सौगुना अधिक काम बनाते हैं और जिन तरीकों से यह स्वार्थ-साधन की प्रक्रिया चलती है, उससे अधिकारी का जितना स्वार्थ सिद्ध होता है—उससे सौगुनी क्षति जनता की होती है।

मान लीजिए, एक मिनिस्टर हजार रुपये प्राप्त करना चाहता है। वह अपने संपर्क में रहने वाले इंजीनियर से लेगा। इंजीनियर ठेकेदार से एक लाख वसूल करेगा और ठेकेदार इस लाभ को देने के लिये जितना खराब और घटिया काम करेंगे, उससे जनता को एक करोड़ की क्षति उठानी पड़ेगी। घड़ी में चाबी एक मिनट में लग जाती है, पर उसका कसाव चौबीस घंटे उस मशीन को चलाता रहता है। शासन के सूत्र संचालक नेताओं की दिशा जिधर भी उठती है, आंधी के साथ उड़ने वाले पत्तों की तरह परिस्थितियों का प्रभाव उधर ही दौड़ने लगता है।

राजतंत्र भौतिक जगत् पर शासन करता है और धर्म भावना के अंतरंग जगत् पर। धर्माचार्य जनता की आस्था, श्रद्धा, भावना, आकांक्षा, मान्यता एवं दिशा का निर्माण करते हैं। वे सही हों तो बुद्ध, गोविंद, विवेकानंद, गांधी की तरह कोटि-कोटि मानवों की चिंतन प्रक्रिया को उत्कृष्टता की दिशा में भेज सकते हैं, पर यदि वे भ्रष्ट हों तो वह अनाचार उत्पन्न करते हैं, जो धर्म के क्षेत्र में फैले हुए अंधेर के रूप में हमारे सामने हैं। पाखंड, प्रवंचना, प्रमाद, भ्रांति, संकीर्णता, परावलंबन, अकर्मण्यता एवं मिथ्या काल्पनिकता के जंजाल में जनमानस को, जनता को किस बुरी तरह उलझाया जा सकता है, यह सम्मुख है। यदि धर्माचार्यों का स्तर ऊंचा रहे और वे लोकमंगल के अनुरूप कार्य पद्धति अपना लें तो आज भी ऋषियों का यह देश पूर्वकाल की तरह महामानवों ही का भांडागार दीख पड़े।

तीसरा वर्ग शिक्षकों का है। इसमें केवल अध्यापक ही नहीं आते, वे लोग भी आते हैं, जो लोगों के सम्मुख सोचने की सामग्री प्रस्तुत करते हैं। इन्हें बुद्धिजीवी कहा जाना चाहिए। ज्ञान का विस्तार जिन लोगों के द्वारा होता है, जनसाधारण की समझ को जो प्रभावित करते हैं, वे सभी लोग शिक्षक वर्ग में आते हैं। इतिहास, भाषा, भूगोल पढ़ा देना तो पढ़ाने वालों का काम है, यह अध्यापक वर्ग भी छात्रों के संपर्क में रहने के कारण, उनके चिंतन को परिष्कृत बना सकता है और शिक्षक की भूमिका भी संपादित कर सकता है। इसके अतिरिक्त साहित्यकार इस वर्ग में आते हैं। पत्रकार, संपादक, लेखक आदि इसी श्रेणी में आते हैं। उनकी रचनाएं स्वांतः सुखाय लिखी भले ही गई हों, पर जब वे प्रकाशित होती हैं तो लोकमानस को प्रभावित करती हैं। किसी समाज के साहित्य को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समाज में सर्वसाधारण की मानसिक स्थिति किस स्तर की रही होगी? व्याख्यानदाता, समाजसेवी, आंदोलनकारी, रचनात्मक कार्यों में संलग्न संस्था संचालक एवं अनय प्रकार के लोकसेवी वर्ग को भी बुद्धिजीवियों की ही श्रेणी में गिना जाना चाहिये। बुद्धिजीवी का अर्थ बुद्धि के द्वारा आजीविका कमाने वाले नहीं हो सकते—इस परिभाषा के अनुसार तो दलाल, वकील, बाजीगर, क्लर्क, मुंशी से लेकर ठगी तक का धंधा करने वालों तक सभी लोग बुद्धिजीवी कहलायेंगे। बुद्धि को जीवंत प्रेरणा देने वालों को बुद्धिजीवी कहा जाना चाहिए। इस वर्ग में ही वे सब लोग सम्मिलित किये जा सकते हैं, जो किसी न किसी प्रकार जनसाधारण की भावना, विचारशीलता, चिंतन-प्रक्रिया एवं मनोदशा को प्रभावित करते हैं। पढ़ने-सुनने और देखने की प्रभावपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करके यही वर्ग जनसाधारण के मस्तिष्क को गति देता है और उसी से प्रेरणा लेकर लोग अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करते हैं। आज की पथभ्रष्टता एवं विकृतियों के लिये यह बुद्धिजीवी वर्ग भी जिम्मेदार है। यदि उनकी रचनाओं, अभिव्यंजनाओं, उपदेशों, प्रतिपादनों में जनमानस का स्तर ऊंचा उठाने वाली प्रखरता भरी रहती, उनके चरित्र और आदर्श ऊंचे होते तो कोई कारण नहीं जनता नीचे स्तर का चिंतन करे और निकृष्ट कर्तृत्व को निर्लज्ज होकर अपनाये।

चौथा वर्ग कलाकारों का आता है। संगीत, गायन, वाद्य, अभिनय और चित्रकला, मूर्तिकला आदि इसी श्रेणी के क्रियाकलाप हैं। इन सबका समन्वय सिनेमा और टेलीविजन में हो गया है। इन दिनों लोकरंजन के पुराने माध्यम प्रायः समाप्त हो गये। कठपुतली, रीछ, वानर, नट, बाजीगर, सर्कस, नाटक, अभिनय आदि के मनोरंजन यदा-कदा ही दीख पड़ते हैं और उनका भी स्तर तथा विस्तार दिन-दिन घटता जा रहा है। इन दिनों एक प्रकार से राष्ट्रीय सर्वमान्यता संपन्न मनोरंजन एक ही रह गया है—सिनेमा और दूरदर्शन! कलाकारों को आश्रय अब इसी वृक्ष के नीचे मिलता है। जनता की कला और विनोद की रुचि भी यहीं पूरी होती है। चित्रकला, मूर्तिकला आदि का तो अस्तित्व मात्र ही बाकी है। मूर्तियों में देवी-देवता और चित्रों में अर्धनग्न वेश्या जैसी भाव-भंगिमा वाली कामिनी और रमणी की फूहड़ तस्वीरें ही जहां-तहां छपती-बिकती देखी जाती हैं। नर और नारी की शालीनता और गरिमा को प्रस्तुत करने वाले चित्र तो समुद्र में बूंद जैसे जहां-तहां दीख पड़ते हैं।

आज कला का केंद्र बिंदु सिनेमा और टी.वी. ही रह गया है। लोकरंजन के साथ लोकशिक्षण को मिलाकर बहुत ही महत्त्वपूर्ण ढंग से जनमानस का निर्धारण किया जा सकता है। इस दिशा में सिनेमा और दूरदर्शन बहुत काम कर सकता था। प्रगतिशील देशों में उसने भारी काम किया भी है। जर्मनी ने अपने देशवासियों को किसी समय फासिस्ट बनाने में सिनेमा से बड़ी सहायता ली थी। रूस, चीन आदि साम्यवादी देशों ने सिनेमा और टेलीविजन से प्रजा के मस्तिष्क को अपने आदर्शों के अनुकूल ढालने में एक महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में प्रयुक्त किया है। अपने देश में जो शिक्षण टेलीविजन और सिनेमा से मिल रहा है, उसे हम दुःख और निराशा की दृष्टि से ही देख सकते हैं। कलाकार भावनाओं को स्पर्श करता है। गायन, वाद्य, अभिनय की अपनी सामर्थ्य है। चित्र (सिनेमा-टी.वी.) जनमानस का स्पर्श करते हैं। कला की सामर्थ्य का यदि सदुपयोग किया जा सकता तो जन साधारण में निकृष्ट चिंतन और घृणित कर्तृत्व के दृश्य कहीं देखने को न मिलते। संसार में उत्कृष्ट जीवन की हरियाली ही लहरा रही होती।

पांचवीं शक्ति धन की है। धनी लोग अपने वैभव, ठाट-बाट और ऐश-आराम का जो स्वरूप बनाते हैं, उनसे जन साधारण की लालसा भड़कती है और हर व्यक्ति वैसे ही उपयोग के लिये लालायित होता है। सीधा रास्ता धनी बनने का कठिन है। जल्दी का रास्ता अनीति और बेईमानी का ही दीख पड़ता है, सो धन से उपलब्ध ठाट-बाट प्राप्त करने के लिये सर्वसाधारण का जी ललचाता है, वह अपराधों का रास्ता अपनाकर धनी बनने के लिये अग्रसर होता है। धन उपार्जन बुरा नहीं, संपत्ति बढ़ने से देश की समृद्धि बढ़ती है और लोगों को काम मिलता है, पर उसका उच्छृंखल उपयोग बुरा है। घर का कमाऊ व्यक्ति उपार्जन तो बहुत करता है, पर उसका लाभ सब लोग समान उठाते हैं और उपयोग मिल-जुलकर समान रूप से करते हैं। कमाऊ व्यक्ति अधिक उपयोग करने लगे तो उसे पारिवारिक भावना के विरुद्ध एवं अनैतिक माना जायेगा। अधिक उपार्जन करने वालों को भी अपना जीवन-यापन का स्तर तथा खर्च उतना ही रखना चाहिए, जैसा कि अपने देश वासियों का जन स्तर है। अधिक उपार्जन को सहयोगी श्रमिकों में तथा लोककल्याण के कार्यों में दान स्वरूप वापस कर देना चाहिए। धन का यही उपयोग न्यायोचित है।

बेटे-पोतों के लिये दौलत जमा करने और स्वयं उच्छृंखल विलासिता का ठाट बनाने का परिणाम सब प्रकार बुरा ही बुरा होता है। ईर्ष्या भड़कती है, लोग उस संग्रहीत धन के लिये ललचाते हैं। अपने में विलासिता, व्यसन, भय आदि की दुष्प्रवृत्तियां बढ़ती हैं। लोभ बढ़ते जाने से अनीति-उपार्जन में उत्साह बढ़ता है, पास में होते हुए भी दूसरों की सहायता से हाथ सिकोड़ना पड़ता है, उदार हृदय वाले के लिये तो संपत्ति-संग्रह को सुरक्षित रखने के लिये समाज की आवश्यकताओं की ओर से निष्ठुरता धारण करनी पड़ती है, बेटे-पोतों को हराम की कमाई मिलने से वे आलसी, व्यसनी और अपव्ययी बन जाते हैं, जो परिश्रमपूर्वक कमाया नहीं गया है उसे फिजूलखर्ची में उड़ाते हुए भी बेटे-पोतों को दर्द नहीं आता, वे आपस में धन के वितरण पर लड़ते-मरते भी देखे गये हैं। गिनाये जायें तो ऐसे-ऐसे हजारों दुष्परिणाम धन के संग्रह करने एवं ठाट-बाट बनाने से होते हैं। एक के अमीर बनने में सौ को गरीब रहने की प्रत्यक्ष या परोक्ष विवशता उत्पन्न होती है। एक दीवार तभी ऊंची उठेगी, जब उतनी ईंट-मिट्टी उपलब्ध करने के लिये कहीं गड्ढा बनाना पड़ेगा। अनेकों को निर्धन रखने की विवशता उत्पन्न करके ही एक की अमीरी रूपी दीवार खड़ी होती है।

जिन्हें धन की शक्ति प्राप्त हो गई है उनके लिये उसके सदुपयोग का एक ही मार्ग है, कि समाज के पिछड़ेपन को दूर करने के लिये उसे मुक्त हस्त से देने के लिये तत्पर बने। आज जितना धन लोगों की तिजोरियों में, बैंकों में, जमीन-जायदादों और ठाट-बाटों में रुका पड़ा है, यदि वह उस अनुदार निष्ठुरता को, लालच और लिप्सा के चंगुल में से निकालकर—लोकमंगल की सत्प्रवृत्तियां उत्पन्न करने एवं बढ़ाने में लगाया जा सके, तो इतने रचनात्मक कार्यों का उद्भव हो सकता है, जिससे जनसाधारण का आर्थिक और नैतिक अभाव पूरा कर सकना कुछ भी कठिन न रहे। इन दिनों घायल मानवता को बल देने वाले ऐसे अनेकों बौद्धिक प्रेरणा प्रदान करने वाले निर्माणों की जरूरत है, जो पतन को उत्थान में परिणत कर सकें। प्रेरणाप्रद साहित्य, प्रेरणाप्रद फिल्में और टी.वी. सीरियल, भावपूर्ण ग्रामोफोन रिकार्ड, गोरस व्यवसाय, जड़ी-बूटियों का उत्पादन, फल-पुष्पों की पौध और बीज बेचने वाली नर्सरी, गृह उद्योगों की उपकरण आदि अनेकों वस्तुएं ऐसी हैं, जिनकी आज देश को भारी आवश्यकता है और उनके बिना हर्ज भी बहुत हो रहा है, पर चूंकि कम लाभ के व्यवसाय में धनियों की रुचि नहीं, इसलिये वे सभी उपयोगी कार्य एक प्रकार से रुके ही पड़े हैं। यदि धनपतियों में उदारता नहीं होती, तो उन्होंने स्वल्प लाभ या बिना लाभ के अपनी पूंजी को संरक्षित रहने मात्र के संतोष पर ऐसे अनेक कार्यों को संचालित किया होता, जो देश के पिछड़ेपन को दूर करने में सहायक हो सकते थे।

इसी प्रकार विभिन्न क्षेत्रों में पिछड़ेपन को दूर करने के लिए संलग्न होने वाले लोकसेवियों के निर्वाह व्यय के लिये पैसा देकर कार्यकर्ताओं की एक बड़ी सेना खड़ी की जा सकती थी और जो लोग परिवार का पोषण-व्यवस्था न होने के कारण अपनी प्रतिभा सिकोड़े बैठे हैं, उन्हें आगे बढ़कर जौहर दिखाने का अवसर मिल सकता था। विचार क्रांति, नैतिक क्रांति और सामाजिक क्रांति का रथ साधनों के भाव की कीचड़ में धंसा अवरुद्ध खड़ा है, इसे अधिक सहायता देकर आगे बढ़ाया जा सकता था।

समुद्र मंथन के समय उपलब्ध अमृत का लाभ उठाने के लिये देवताओं की पंक्ति में कुछ असुर देवताओं का वेष बनाकर सम्मिलित हो गये थे। यह अनर्थ भगवान् ने देखा तो वे सोचने लगे अमृत का लाभ असुरों को मिला तो वे उस उपलब्ध अमरता का दुरुपयोग करेंगे और संसार में कुहराम मचा देंगे, इसलिये उन्हें हटा देना ही उचित समझा और चक्र सुदर्शन से उन देव वेष में छिपे बैठे असुरों का सिर काटकर फेंक दिया। पौराणिक गाथा—‘‘आज की विभिन्न परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए?’’ इसका ठीक सा पथ प्रदर्शन करती हैं। शक्तियों का पंचामृत देवताओं के पास रहना चाहिए, क्योंकि वे ही उसका सदुपयोग कर सकते हैं। असुरों का काम दुरुपयोग करना ही है। उनके पास अमृत जैसी वस्तु पहुंच जाय तो भी वे उसका लाभ न स्वयं उठा सकेंगे और न किसी को चैन से रहने देंगे। उनके पास जाकर श्रेष्ठ वस्तु भी कलंकित हुए बिना न रहेगी, अस्तु उचित यही है कि यदि उनके पास नहीं गई है, तो जाने न दी जाए और चली गई है, तो छीन ली जाए। राहु-केतु को इसीलिये अमृतत्त्व से वंचित किया गया था। यदि वह देव होता, तो भगवान् प्रसन्नतापूर्वक उसे वह लाभ उठाने ही न देते, वरन् उसकी सहायता करते। कुपात्रों को तो वंचित किया जाना ही उचित है। सो उस छद्म वेषधारी असुर का सिर इसी आधार पर काटा गया था। आज भी उसी प्रक्रिया की पुनरावृत्ति आवश्यक है। शक्तियां देवत्व हैं। वे तो हमारे जीवन-मरण की सहचरी हैं। शक्ति के बिना प्रगति नहीं, शांति नहीं, स्थिरता नहीं; सो शक्तियों की निंदा नहीं की जा सकती, न उपेक्षा की जा सकती है और न दुरुपयोग सहन किया जा सकता है।

आज असुरता के साम्राज्य ने संसार की प्राणदेव शक्ति को भी अपने लोहपाश में कस लिया है। राहु द्वारा सूर्य-चंद्र को ग्रस लेने पर अंधकार छा जाता है और घुटन पैदा हो जाती है। इन दिनों में देवत्व का दम घुट रहा है और अशक्त बना जन समाज त्राहि-त्राहि कर रहा है। इस स्थिति का अंत होना ही चाहिए।

शासन सत्ता उनके हाथ रहनी चाहिए, जो उसका उपयोग विशुद्ध रूप से प्रजापालन के लिए कर सके। अश्वघोष, जनक आदि की तरह जो निःस्पृह रह सके, नासिरुद्दीन की तरह जो टोपियां सींकर अपना पेट पाले और शासन का कार्य परमार्थी लोक सेवक की तरह साधन-तपश्चर्या की तरह संपन्न करें। हमें चाणक्य जैसे शासन सूत्र संचालक चाहिए, जो पैदल चलकर फूंस की कुटिया में निवास करने जाया करे और शासन व्यवस्था चलाने का कार्य किसी अनुष्ठान की तरह संपन्न किया करे। धर्माचार्यों के पद पर वशिष्ठ, व्यास, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, शुकदेव, कपिल, कणाद, जैमिनी जैसे परखे हुए लोग ही आसीन होने चाहिए। बुद्धिजीवी वर्ग को शंकराचार्य, बादरायण, चरक, पाणिनि, सूर, तुलसी, कबीर जैसों का अनुकरण करना चाहिए। कलाकार, नारद और मीरा से प्रकाश ग्रहण कर सकते हैं। धनवानों को वाजिश्रवा, हरिश्चंद्र, भामाशाह जैसे आदर्श प्रस्तुत करने के लिए आगे आना चाहिए।

समय आ गया है कि देव और असुरों को अलग-अलग पंक्तियों में खड़ा किया जाय। शक्तियों को प्राप्त कर जो उनका सदुपयोग करते रहें, उन देवताओं को जनता का भी पूरा सम्मान मिलना चाहिए और उनकी महानता को पग-पग पर सराहा जाना चाहिए। साथ ही जिन्होंने इन्हें पाकर दुरुपयोग किया है, उन्हें उनकी संकीर्ण स्वार्थपरता के लिये लज्जित किया जाना चाहिए।

भ्रष्टता इसलिए फैलती रही है कि देव शक्तियों का दुरुपयोग करने वाले भी सम्मानास्पद माने जाते रहे और उन्हें सहयोग-समर्थन मिलता रहा। साधुता इसलिये मरती गयी कि उसे उपहास मिला और उपेक्षित माना गया। किसी ने उसे सराहा नहीं और सहयोग दिया। अब जब कि नया निर्माण करना ही है, तो उन पुराने मूल्यांकनों को बदलना पड़ेगा, जो इस दुरुपयोग को प्रोत्साहित करने का उत्तरदायी है। अनाचार को पदच्युत करने और सदाचार को पदासीन करने के लिये चाहे कोई प्रत्यक्ष शस्त्र-साधन भले ही अपने पास न हों, पर एक बड़ा अप्रत्यक्ष शस्त्र जनता के पास अभी भी है कि वह भले और बुरे का अंतर करना सीखे, देव और दानव को अलग-अलग पंक्तियों में खड़ा करे। देवताओं की हम प्रत्यक्ष सहायता न कर सकें तो भी उन्हें श्रद्धा, प्रशंसा, सम्मान, सहयोग, समर्थ तो प्रदान कर ही सकते हैं, असुरों का दमन करना यदि अपने हाथ में न हो तो कम से कम उन्हें निरुत्साहित-लज्जित तो किया ही जा सकता है। सहयोग, समर्थन और सम्मान से उन्हें वंचित किया ही जा सकता है। जनता जब भले और बुरे का, उदार और निष्ठुर का, स्वार्थी और सज्जन का अंतर करने लगेगी और तदनुसार ही उसका मूल्यांकन करेगी तो उस अंधेर में तिरोहित होने में देर न लगेगी, जिसकी आड़ में निशिचर फल−फूल रहे हैं और देवी को निराश्रित होकर ठोकर खाते हुए भटकना पड़ रहा है।

लोकमत की शक्ति अपार है। लोकमानस जब तक मूर्च्छित पड़ा है, तब तक मृतक है, उसे कोई भी पददलित करता रह सकता है। पर जब वह सजग होकर उठ खड़ा होता है, तो फिर उसका सामना कर सकने में संसार की कोई सत्ता समर्थ नहीं हो सकती। शस्त्रों से व्यक्ति मरते हैं, पर लोकमत की जिस पर बात पड़ती है, वह विडंबना कितनी बड़ी क्यों न हो, देखते-देखते जल कर नष्ट हो जाती है। लोकमत का सींचा हुआ सूखा वृक्ष भी हरा और मरा हुआ आधार भी जीवित हो जाता है। इस मर्म को समझते हुए हमें ऐसा प्रचंड लोकमत जाग्रत करना चाहिए, जिसमें अनाचार को जीवित रह सकना असंभव हो जाय। उन शक्तियों को पाकर जिन्होंने उनका सदुपयोग किया, उनकी प्रशंसा और प्रतिष्ठा के लिए चर्चा और अनुकरण के लिए एक सुव्यवस्थित अभियान चलाया जाना चाहिए। वैसे भारतीय संस्कृति में इन पांच प्रयोजनों के लिये पांच त्यौहार भी पहले से निर्धारित हैं—(1) विजया दशमी आश्वन सुदी 10 राजपर्व (2) दिवाली—कार्तिक बदी 30—धनपर्व (3) वसंत पंचमी—माघ सुदी 5—बुद्धिपर्व (4) होली फाल्गुन पूर्णिमा—कलापर्व (5) गायत्री जयंती-गंगा दशहरा—ज्येष्ठ सुदी 10—धर्मपर्व। इन पांच अवसरों पर ऐसे समारोह किये जा सकते हैं, जिनमें इन शक्तियों से संपन्न व्यक्तियों द्वारा उन्हें लोकमंगल के लिये, परमार्थ प्रयोजनों के लिये किस प्रकार प्रयुक्त किया? इसके देशी-विदेशी उदाहरणों की चर्चा की जानी चाहिए, उनके चित्रों की प्रदर्शनी, प्रतिष्ठा-कार्यक्रमों के साथ उन प्रसंगों को गायनों, भाषणों, अभिनयों द्वारा जन साधारण के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए। साथ ही इन शक्तियों का संकीर्ण स्वार्थपरता के लिये दुरुपयोग करके किस प्रकार स्वयं पतित बने और उस लिप्सा ने जनता को कितनी हानि पहुंचाई? इसकी भी विवेचना की जानी चाहिए। यों यह सदुपयोग-दुरुपयोग की चर्चा प्रत्यक्ष तथा दिवंगत लोगों की हो, पर उनका संकेत आज के लोगों पर भी ढाला जा सकता है। पौराणिक, ऐतिहासिक ही नहीं, सामान्य स्तर के अप्रसिद्ध और गरीब लोगों की प्रतिष्ठा-प्रशंसा को इन पर्वों में स्थान दिया जा सकता है, जिसने स्वल्प शक्ति होने पर भी उदारता और परमार्थ वृत्ति का बढ़कर परिचय दिया हो। उपरोक्त पर्वों के अतिरिक्त कभी भी सुविधानुसार ऐसे आयोजन किये जा सकते हैं। जहां संभव हो वहां नाटक, अभिनय, प्रकाश चित्र स्लाइड प्रोजेक्टर, संगीत कला आदि के माध्यम से भी ऐसी व्यवस्था की जा सकती है, जिससे जनता के मन पर उपरोक्त पांच शक्तियों के सदुपयोग-दुरुपयोग करने वालों के लिये श्रद्धा और घृणा विकसित करने का, दोनों को भले-बुरों की दो अलग-अलग पंक्तियों में खड़ा करने का अवसर मिल सके।

सही मूल्यांकन न कर सकने के भेड़िया धसान ने ही लोक मत की शुद्धता को विकृत कर दिया है। यदि भले-बुरे के बीच स्पष्टता और प्रखरता के साथ अंतर किया जाता रहता, तो अवांछनीय आचरण करने वाले पग-पग पर तिरष्कृत और अपमानित होते; उनसे सीधे मुंह कोई बात न करता, न उनके साथ बैठता, न उन्हें अपने पास बैठने देता; सर्वत्र उन्हें असहयोग, विरोध और घृणा का ही उभार दीखता, तो उस लोकमत के  आगे उन्हें अपनी गतिविधियां बदलने के लिए विवश होना ही पड़ता; नहीं बदलते तो कम से कम दूसरे विचारशील लोग उनका अनुकरण करने की तो हिम्मत नहीं करते।

आज तो यह होता है कि उपलब्ध शक्तियों को सार्वजनिक सुविधा के लिये मिली हुई अमानत न समझकर जो उनके द्वारा स्वार्थ-साधने के दुरुपयोग में ही संलग्न हैं, वे समाज में लज्जित किये जाने के स्थान पर उलटा सम्मान पाते हैं। चापलूस और स्वार्थी लोग उनसे कुछ पाने या पाने की आशा होने से उनकी चापलूसी और प्रशंसा करते रहते हैं। किसी सभा-संस्था को थोड़ी-बहुत सहायता करके वे अखबारों में अपना नाम छपा लेते हैं, नाम के पत्थर जड़वा लेते हैं, अभिनंदन और मानपत्र ले लेते हैं और सभापति संरक्षक आदि का पद प्राप्त कर लेते हैं। पैसों से जब सम्मान भी खरीदा जाने लगा तो फिर पैसा ही सब कुछ हो गया। किसी भी तरह कितना ही पैसा कमाया जाय और अनुचित की निंदा होने की संभावना प्रतीत हो तो थोड़े से टुकड़े फेंककर उस निंदा का मुंह बंद कर दिया जाए, इतना ही नहीं, प्रशंसा खरीद ली जाए। आज यही अंधेर चल रहा है। लोकमत की दुर्बलता जब इतनी बढ़ जाय कि उसे भी मौत या भ्रमित कर सकना आसान हो जाय तब किसी समाज का ईश्वर ही रक्षक है।

मनुष्य का मूल्यांकन हमें पुनः विवेकशीलता और न्यायनिष्ठा के आधार पर कर सकने का साहसिक दृष्टिकोण विकसित करना चाहिये और लोकमत को बहकाया-खरीदा न जा सके ऐसी परिस्थितियां पैदा करनी चाहिये। खरीदे हुए चापलूसों द्वारा किसी अवांछनीय व्यक्ति का सम्मानित होना एवं विरोध से बचे रहना संभव न हो सके। ऐसे जागरूक प्रहरियों की एक सेना खड़ी की जानी चाहिये। चीन की तथाकथित बदनाम सांस्कृतिक क्रांति की नकल तो हमें नहीं करनी है, पर कुछ न कुछ नैतिक क्रांति की रूप-रेखा खड़ी जरूर करनी पड़ेगी। यदि कुछ भी न किया जा सका और प्रचलित अंधेरा ज्यों का त्यों चलता रहा, तो नैतिक मार्ग पर चलने वाले और आदर्श अपनाकर त्याग-बलिदान के उदाहरण प्रस्तुत करने वालों का हौसला टूट जायेगा; उन्होंने सांसारिक शान-शौकत खोई और समर्थन सहयोग सम्मान से भी वंचित रहे। दुहरा घाटा उठाकर सन्मार्गगामियों का साहस टूट रहा है। यदि उस दिशा में कुछ न किया जा सका, तो उनकी हिम्मत और कमजोर होती चली जायेगी, फलतः किसी भी रास्ते शक्तियां उपार्जित करना और उनका कैसा ही भला-बुरा उपयोग करना, आज की तरह आगे भी जारी रहेगा। सज्जनों के हाथ निराशा ही रह जायेगी।

सज्जनता और उदारता को सम्मानित करने का आंदोलन हमें पूरी शक्ति से चलाना चाहिए। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं निकालनी चाहिये, जिनमें आदर्श उपस्थित करने वाली घटनाओं का प्रभावोत्पादक वर्णन हो। ऐसे गीत लिखे और गाये जाने चाहिए, जिनमें शक्तियों को लोकमंगल के लिये प्रयुक्त किये जाने की प्रशंसात्मक चर्चा हो। यह भूलना नहीं चाहिए कि आगे प्रशंसा को ही रखा जाए, पर उसके साथ निंदा भी जुड़ी ही रहनी चाहिए। जिन लोगों ने इन पांच शक्तियों को मात्र स्वार्थों के लिये कैद रखा था, उनने जनता को हानि पहुंचाई; उनकी निंदा के लिये इसी सज्जन की प्रशंसा के नाम पर चलाये गये अभियान के साथ-साथ पूरी तरह समावेश होना चाहिये। सत्कर्मों के समर्थन के लिये ऐसे साहसी लोगों को मानपत्र देने, सार्वजनिक अभिनंदन करने, जनता के प्रेम के प्रतीक कुछ उपहार देने, प्रशंसात्मक कार्य करने वालों के चित्र और विवरण छापकर बांटने जैसे कार्य समय-समय पर किये जाने चाहिये। लोकसेवियों के नाम पर उनकी स्मृति के वृक्ष लगाये जा सकते हैं, या गली-मुहल्लों, सड़कों, विद्यालयों आदि के नामकरण किये जा सकते हैं। यदि वे व्यक्ति स्वर्गीय हैं तो उनके चित्रों को भी सार्वजनिक स्थानों में स्थापित किया जा सकता है।

लोकमत जागृत करने के लिये अभी इस प्रकार का रचनात्मक आंदोलन ही चलना चाहिये, पर जब आंदोलनों में परिपक्वता आ जाये तो स्वार्थी लोगों को लज्जित करने को अभियान भी चलाया जा सकता है। इसमें कुछ बैर-विरोध होने की संभावना है, जो उसके लिये भी आगे चलकर ऐसी मंडलियां स्थापित की जा सकती हैं, जो बैर-विरोध के कारण होने वाली हानि को सहने के लिए तैयार हों। मारपीट से लेकर उन्हें इल्जामों में फंसाने और मानहानि के मुकदमे चलने तक की स्थिति पैदा हो सकती है; आगे चलकर आंदोलन अनुचित का विरोध करने और अवांछनीयता को नंगा करने की स्थिति में मजबूत होते-होते पहुंच जाए। समयानुसार उस हानि को उठाने की क्षमता भी अपने में पैदा करने की आवश्यकता अनुभव होने लगे, तब असहयोग, बहिष्कार, सत्याग्रह, घेराव जैसे कदम भी बढ़ाये जा सकते हैं और उसके लिये एक स्वयंसेवकों की सेना खड़ी की जा सकती है।

स्मरण रखा जाए—लोकमत की शक्ति कम नहीं है, वह अभी प्रसुप्त, मूर्छित और निष्क्रिय पड़ी हुई है और उसमें कुछ बनाने-बिगाड़ने की शक्ति नहीं है। लोकमत को जाग्रत और समर्थ बना लिया जाय और उसमें परिपक्वता, न्यायनिष्ठा, वास्तविकता एवं दूरदर्शिता के आधार पर मूल्यांकन करने की, उचित का समर्थन, अनुचित का विरोध करने—क्षमता उत्पन्न कर दी जाए, तो निस्संदेह यह एक कारगर हथियार होगा और जो काम कानून द्वारा या दूसरे तरीकों से नहीं हो सका, वह इस उपाय से सरल एवं संभव हो जायगा।
पांचों देव शक्तियों का उपभोग उनके उपार्जनकर्ता न्यूनतम मात्रा में ही अपने लिये कर सकें। उनका अधिकतम अंश लोकमंगल के लिये प्रयुक्त हो, ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिए। शांति और सुव्यवस्था का यही तरीका है। अन्यथा दुरुपयोग का वर्तमान क्रम जो विद्रोह उत्पन्न करेगा, उसे नकसलवाद से लेकर गुंडावाद तक कुछ भी पनप सकता है और स्वार्थों से बेतरह चिपके हुए लोगों को इतनी हानि उठाने के लिये विवश होना पड़ सकता है, जिससे उनके हाथ रुदन और पश्चात्ताप ही शेष रह जाए वैसी स्थिति न आने देने के लिये हमें लोकमत जाग्रत करके सत्ता-संपन्नों को सदुपयोग के लिये प्रेरित करना चाहिए। यही जनता के हित में है और इन सत्ता-संपन्नों के हित में भी।
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