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खाद्यों में मिलावट की समस्या

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देश में भ्रष्टाचार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसने लोगों को विवश करके अपने आधीन बना लिया है। लोग इसके इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि मिली, अशुद्ध एवं नकली चीजों पर संतोष करने लगे हैं और संतोष भी क्यों न हों? जब जिंदगी की जरूरी चीजें अपने शुद्ध रूप में मिलना प्रायः असंभव-सा हो गया है, तब संतोष करने के सिवाय उनके पास दूसरा चारा ही क्या रह गया है?

गैर तो गैर, भ्रष्टाचारी अपने शिकार बनाने में सगे-संबंधियों को भी नहीं छोड़ते। विचार करने पर इसके दो कारण समझ में आते हैं। एक तो यह है कि भ्रष्टाचारी विक्रेता शायद ही कोई शुद्ध चीज अपने पास रखते हैं। दूसरा, मिलावट उनके विचार में गैर मिलावट जैसी रम गई है। अभ्यास होते-होते अशुद्ध चीज का महत्त्व उनके लिए एक जैसा हो गया है, जिससे अपने किसी संबंधी को भी अशुद्ध चीज देने में उन्हें ऐसा भान नहीं होता, कि वे कोई गलत काम कर रहे हैं। इसके साथ उनकी एक कमजोरी और भी है—वह यह कि—यदि वह संबंधी के हित में अपनी चीज की अशुद्धता उस पर प्रकट करके देने से इनकार करता है, तो एक तो उसे उसकी दृष्टि में गिर जाने की आशंका रहती है, दूसरा—यह डर रहता है कि कहीं उसके संबंधी को यह गलतफहमी न हो जाए कि वह उसे चीज न देने के लिये वैसा बहाना बना रहा है। यह सब मानव जीवन के लिये कितना बड़ा अभिशाप है? क्या किसी भ्रष्टाचारी को इसका एहसास हो पाता है?

जिन बच्चों ने इस नकली, मिलावटी और भ्रष्टाचारी समय में जन्म लिया है, उन्हें तो छोड़ ही दीजिये। जिन लोगों ने अभी असली, अच्छी चीजें देखी और उपयोग की हैं, उनकी भी अभिभूत बुद्धि और पराभूत स्वाद-शक्ति आज असली-नकली में पहचान नहीं कर पा रही है। लोग असली, शुद्ध और अच्छी चीजों के लिए प्रयत्न करते, रोते-झींकते, खीजते और शिकायत करते हैं, किंतु कितनों को इस क्षेत्र में कोई सुझाव मिल पाता है?

खाद्य-पदार्थ मनुष्य जीवन की सबसे सामान्य एवं अनिवार्य वस्तु है। इस पर ही जीवन की सारी गति निर्भर है। बल, बुद्धि, विद्या, ओज-तेज और शक्ति-सामर्थ्य का मूलभूत हेतु भोजन ही तो है। जितना शुद्ध, पौष्टिक और विश्वस्त आहार मिलेगा, मनुष्य उतना ही स्वस्थ एवं सामर्थ्यवान् बनेगा। उसका बल-वीर्य बढ़ेगा, बौद्धिक एवं मानसिक विकास होगा। जिससे तदनुरूप स्वस्थ एवं सुंदर समाज का निर्माण होगा, जो कि राष्ट्रीय हित में एक वरदान ही माना जाएगा। इस प्रकार जब खुले दिमाग से गहराई के साथ सोचते हैं, तब यही निष्कर्ष निकलता है कि, व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक की उन्नति एवं विकास का एक प्रमुख आधार शुद्ध भोजन भी है।

किंतु उसी भोजन के खाद्य-पदार्थों की आज भ्रष्टाचारी विक्रेताओं, व्यापारियों तथा व्यवसायियों ने क्या दुर्दशा कर दी है? इसको देखकर दुःख के साथ क्षोभ भी होता है। जब कभी बाजार में खरे दाम होने पर भी खोटी चीज ही हाथ आती है तथा आत्मा को असहनीय क्लेश होता है। किंतु व्यवसायिक वातावरण कुछ इस प्रकार का हो गया है कि भ्रष्टाचार की पीड़ा को सहन करने की निरुपायता के अतिरिक्त इससे छुटकारे का कोई सीधा-सरल रास्ता ही समझ में नहीं आता।

खाद्यान्नों तथा अन्न जिन्सों में जो कूड़ा-करकट, ईंट-पत्थर, धूल-मिट्टी एवं अन्य बनैले बीज मिलाये जाते हैं और वस्तु के मूल्य पर ही दिये जाते हैं। वे किसी प्रकार परेशानी उठाकर श्रम और समय के मूल्य पर साफ भी किये जा सकते हैं। इससे आर्थिक हानि अवश्य होती है, किंतु स्वास्थ्य हानि से बचा जा सकता है। किंतु कुटी, पीसी, बनी तथा तरल पदार्थों की मिलावट से तो किसी प्रकार भी नहीं बचा जा सकता।

आटे में लकड़ी का बुरादा, सेलखड़ी अथवा अन्य प्रकार की मिलती-जुलती मिट्टी आदि मिलाकर पिसवा देने में भ्रष्टाचारियों को इस बात का जरा भी विचार नहीं है कि उनके इस दूषित आटे को खाकर उपभोक्ता परिवारों के स्वास्थ्य का क्या हाल होगा? चने के साथ मटर और मटर के साथ मक्का पिसवाकर जनता को मूर्ख बनाने और उसको ठगने में भ्रष्टाचारी लज्जा के स्थान पर प्रसन्नता का अनुभव किया करते हैं। शक्कर तथा खांड़ अथवा बूरे में सफेद मिट्टी तथा गन्ने की खोई को पिसवाकर मिला देना तो बुद्धिमानी समझी जाने लगी है।

लाल मिर्च, काली मिर्च, सफेद मिर्च, धनिया, जीरा, हल्दी आदि मसालों में मिलाने के लिये मकोय आदि जैसे न जाने कितने जंगली बीजों, बेरों तथा कंकर-पत्थरों की खोज कर ली गई है, जो इन चीजों में मिलकर बिल्कुल अभिन्न हो जाते हैं।

पिसे मसालों के रूप में तो जनता को पचास प्रतिशत से अधिक जंगली बीजों, बेरों, पीली व काली मिट्टी का चूर्ण ही खाना पड़ रहा है। नमक के साथ पत्थर तो अक्सर आये दिन खाने पड़ते हैं।

घी, तेल, दूध, दही और इनसे बनी हुई चीजों में मिलावट तो भ्रष्टाचारियों का एक साधारण अधिकार बन गया है। दूध में पानी मिलाना, मक्खन निकालकर गाढ़ा करने के लिए अरारोट अथवा ऐसी ही कोई दूसरी चीज मिला देना तो मामूली बात बन गई है। रबड़ी में शकरकंद और मलाई के स्थान पर स्याही सोखता इस्तेमाल कर देना—कोई विशेष चिंता की बात नहीं रह गई है।

सरसों के तेल के साथ अलसी का और अलसी के साथ रेंडी का तेल मिला देना तो भ्रष्ट व्यापारियों ने अपना अधिकार मान लिया है। सरसों के साथ भटकटैय्या के बीज तो इस मात्रा में मिलाये जाने लगे हैं कि तेल की असलियत पर से जनता का विश्वास पूरी तरह से उठ गया है।

इसके अतिरिक्त अब तो भ्रष्ट व्यवसायियों ने मुनाफाखोरी-अक्ल के बल पर खाद्य तेलों के रंग और एसेंस तक का आविष्कार कर लिया है, जो न केवल अलसी के तेल में देकर सरसों का तेल बनाने के काम में आते हैं, बल्कि रिफाइंड आदि तेलों में देकर किसी प्रकार का भी तेल तैयार कर लिया जाने लगा है।

पृथ्वी पर अमृत कहे जाने घी को विष ही बना दिया गया है। अच्छे घी में डालडा, मूंगफली का तेल, चर्बी एवं अन्य जंगली जड़ों तथा वनस्पतियों का घी मिलाना कोई पाप नहीं माना जाता है। इसके साथ देशी घी के भी ऐसे-ऐसे एसेंस बना लिये गये हैं, जिनको मिला देने पर डालडा, चर्बी अथवा मूंगफली का तेल असली घी को मात कर देता है। अच्छे से अच्छे बुद्धिमानों की घ्राण शक्ति उसका पता लगा लेने में असफल हो जाती है।

इस प्रकार भ्रष्टाचारियों ने कोई भी तो खाद्य पदार्थ ऐसा नहीं छोड़ा है, जिसमें मिलाने के लिये उसी प्रकार की चीजों की खोज न कर ली हो! एक तोला शुद्ध खाद्य पदार्थ मिल सकना असंभव बात हो गई है। इस कुकृत्य के साथ जो बात सबसे अधिक खतरनाक है वह यह है, कि मिलावट करने वाले रूप-रंग में मिलती-जुलती कोई भी चीज में निर्भयता के साथ मिला देते हैं। फिर चाहे वह चीज विष की तरह प्राणघातक ही क्यों न हो?

खाद्य पदार्थों की इस दशा को देखते हुए आज भारतीय समाज की स्वास्थ्य-रक्षा की कल्पना कर सकना व्यर्थ जैसी बात मालूम होती है। भ्रष्टाचारियों, मुनाफाखोरों के धन-लोलुपों का यह भयंकर राष्ट्रघात कहां तक उन्हें ले जायेगा और कहां समाज को पहुंचा देगा? यह सोचने-समझने की आज जैसे किसी को फुरसत ही नहीं रह गई है।

एक तो यों ही सदियों की गुलामी ने राष्ट्र के स्वास्थ्य को चौपट कर दिया था और जो कुछ बचा भी था—उसे यह भ्रष्टाचारी ठिकाने लगाये दे रहे हैं। सरकार बहुत कुछ नियंत्रण करती, दंड देती, लगाम लगाती है, किंतु समाज एवं राष्ट्र के शत्रु ये निर्लज्ज भ्रष्टाचारी ‘मुंह जोर तुरंग’ की भांति कोई नियंत्रण मानते ही नहीं।

किंतु वह दिन दूर नहीं जब इनकी आंखें पूरी तरह खुल जायेंगी। जब वक्त का तमाचा इनके मुंह पर लगेगा और जनता इनका बहिष्कार करके नैतिक न्यायालय में इनको दंड देगी। इसलिए उचित यही है कि वक्त का तमाचा मुंह पर लगने से पहले भारत के भ्रष्टाचारी सोचें, समझें और राष्ट्रीय कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करें।

इसके साथ जनता के सामने इस मिलावट के अभिशाप से अपने स्वास्थ्य की रक्षा करने का केवल एक ही उपाय है। वह यह कि वह किसी भी प्रकार की पिसी, कुटी चीजें इस्तेमाल करना छोड़ दें। हल्दी, मिर्च, धनिया आदि मसाले अच्छी तरह से देखभाल कर लायें और उनको घर पर कुटवायें। आटों के स्थान पर गल्ला-मोल लें और जहां तक हो सके घर पर हाथ की चक्की से पिसवाकर प्रयोग करें अन्यथा बाजार वाली चक्कियों पर अपने सामने पिसवाया करें।

जहां तक दूध, दही, घी तथा तरल एवं स्निग्ध पदार्थों का प्रश्न है, इनके लिए छोटे-मोटे जानवर पालें और जिन चीजों के बिना काम चल सकता हो, उनका प्रयोग करना त्याग दें। साथ ही भ्रष्टाचारियों का अधिक से अधिक बहिष्कार करें और अपनी स्वाद वृत्ति पर अंकुश लगायें।

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