राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

कृपया जनसंख्या और न बढ़ाइये

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


घर में थोड़े आदमी होते हैं तो उनके आहार, वस्त्र, आवास तथा शिक्षा-दीक्षा में कोई असुविधा नहीं पड़ती। सब सदस्यों की समुचित देख-रेख हो जाती है। सबका समुचित विकास होता है। सुसंतुलित परिवार बड़े सुख और शांति का जीवन जीते हैं। थोड़े व्यक्तियों का जीवन बड़ी शान से गुजरता है। सबमें पारस्परिक प्रेम, स्नेह, आत्मीयता और कर्तव्यपालन की भावना बनी रहती है।

बहुत व्यक्तियों में बहुत परेशानियां होती हैं। किसी को आहार मिलता है तो कपड़े नहीं मिलते। बच्चों को विद्यालय भेजने की व्यवस्था नहीं हो पाती। कोई इधर झगड़ रहा है, कोई उधर रो रहा है। सारा दिन हो-हल्ला मचा रहता है। इसी हाहाकार में घर की सुख और शांति नष्ट होती रहती है।

अंधाधुंध बच्चे पैदा करने और परिवार बढ़ाने के सामूहिक दुष्परिणाम आज सबके सामने हैं। स्वास्थ्य की समस्या, शिक्षा की समस्या, बेरोजगारी, भुखमरी, महंगाई की समस्या, निवास की समस्या। क्या व्यक्ति, क्या समाज और क्या राष्ट्र सब अगणित समस्याओं से ग्रस्त हैं। चैन तो किसी को है ही नहीं। कोई बीमारी से परेशान है, किसी का घर नहीं बन पाया। बे-रोकटोक बढ़ रही आबादी ने आज मनुष्य का संपूर्ण जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है, फिर भी आबादी उसी रफ्तार से बढ़ती जा रही है।

ईसवी सन् का प्रारंभ हुआ था, उस समय सारे संसार की आबादी लगभग 25 करोड़ थी। सन् 1800 तक यह संख्या अस्सी करोड़ तक पहुंची। इसे सौ वर्ष बाद यह संख्या एक अरब सत्तर करोड़ पहुंची। 1961 की गणना के अनुसार विश्व की आबादी ढाई और तीन अरब तक हो गई थी। यह शताब्दी पूर्ण होते तक अनुमान है कि संसार की आबादी 5 अरब तक हो गई थी। वैज्ञानिकों का मत है कि बढ़ोतरी का क्रम इसी अनुपात से चलता रहा तो जल्दी ही वह समय आ जायेगा—जब एक व्यक्ति के हिस्से में केवल 1 वर्ग फुट जमीन पड़ेगी। इसी में वह चाहे सो ले, उठ ले, बैठ ले, खाना पका ले या खेती कर ले। यह स्थिति कितनी विस्फोटक हो सकती है, इसकी कल्पना भी नहीं की जाती। संभव है—तब मनुष्य, मनुष्य को ही मारकर खाने लगेगा।

भारतवर्ष में यह समस्या और भी विकराल है। चीन को छोड़कर क्षेत्रफल के अनुपात से भारतवर्ष की जनसंख्या संसार में सबसे अधिक है। यहां पर विशेष रूप से पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों के घरों में बहुत बच्चे जन्म लेते हैं। भारतवर्ष में प्रति मिनट दो बच्चे जन्म ले लेते हैं। इस हिसाब से एक वर्ष में दस लाख चालीस हजार आठ सौ बच्चे जन्म लेते हैं, जबकि मरने का अनुपात घटता जा रहा है। समाज कल्याण बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार—1921 में शिशु मृत्यु संख्या 1 हजार में 195 और साधारण मृत्यु संख्या 31 प्रति हजार थी। 1941 में यह संख्या घटकर क्रमशः 158 और 22 ही रह गई। इस हिसाब से आबादी तेजी से बढ़ रही है। घटने का अनुपात तो बहुत ही थोड़ा है।

20 दिसंबर 1963 के एशियाई जनसंख्या के घातक प्रभाव के संबंध में विचार करते हुये पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था—

‘‘आबादी बढ़ने की समस्या को अपने आप हल हो जाने के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। हमें कुछ दूर दृष्टि और विशेष रूप से वैज्ञानिक सामाजिक तथा नैतिक आयोजनों के बल पर इस समस्या को हल करने का प्रयत्न करना होगा।’’

शिकागो विश्वविद्यालय के प्रमुख जनगणनाशास्त्री डॉ. फिलिप एम. हाउजर से लेकर डॉ. ल्योना बौमग टर्नर, डॉ. ट्यूबर, डा. जेम्स बोनर, सर जूलियस हक्सले, प्रो. हीजवान फोस्टेर, हर्मन बेरी आदि प्रमुख वैज्ञानिकों एवं जीवशास्त्रियों ने इस समस्या के लिए अपनी-अपनी तरह के अनेक सुझाव दिये हैं। सरकारी तौर पर भी परिवार नियोजन के लिए बहुत बड़ी धनराशि खर्च की जा रही है, किंतु समस्या अपने स्थान से टस से मस होती नहीं जान पड़ती। अन्य समस्याओं की विभीषिका भी इसी के साथ-साथ बढ़ रही है और मनुष्य के सर्वनाश की तैयारी कर रही है।

हमारे पूर्वज इस बात को बहुत पहले से ही जानते थे। उन्होंने मनुष्य की कामुक दुष्प्रवृत्ति के दुष्परिणामों का अनुमान उसी समय कर लिया था और उसका हल भी पूर्ण विचार के साथ खोज निकाला था। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी—

‘‘मरणं बिंदु पातेन जीवनं बिंदु धारणात् ।’’ ऐ मनुष्यों! वीर्य की बरबादी ही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगी। वीर्य रक्षा से ही जीवन धारण कर रखने में समर्थ हो सकोगे।

इन शब्दों की सत्यता अमित है। जनसंख्या की वृद्धि रोकने का इससे अतिरिक्त कोई इलाज भी नहीं है। मानवीय प्रकृति के विपरीत यदि कुछ प्रयोग हुए तो उनके और भी घातक परिणाम हो उठते हैं। कृत्रिम गर्भ निरोध के उपाय आज बरते जाते हैं, पर उससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर भी सामने आ रहे हैं। इस प्रयोग से वासनात्मक उच्छृंखलता को ही बल मिला, जबकि मूल समस्या ज्यों की त्यों है।

गृहस्थ धर्म में संतानोत्पादन का महत्त्व तो है, पर उसकी भी अपनी एक मर्यादा है। बच्चों को जन्म देते रहना ही काफी नहीं है, वरन् व्यक्तिगत एवं सामाजिक परिस्थितियों को दृष्टि में रखकर उसके लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा और निर्माण पर भी उतना ही ध्यान देना आवश्यक है इस पर अधिक दूरदर्शितापूर्वक किया गया विचार ही सही हो सकता है। प्रकृति का अपना भी एक विधान है। चाहे तो उसे ईश्वरीय अनुशासन कह सकते हैं। मनुष्य इसका व्यतिक्रम नहीं कर सकता। उन सीमाओं के अंदर रहकर सुख अनुभव करने में ही मनुष्य का कल्याण हो सकता है।

सृष्टि का क्रम बनाये रखने के लिये एक या दो बच्चों को जन्म देना पर्याप्त है। इसके बाद गृहस्थ पति-पत्नी संयम और ब्रह्मचर्य का जीवन जी सकते हैं। व्यक्तिगत स्वास्थ्य की सुरक्षा, दृढ़ता, पुष्टि, दीर्घजीवन, प्रतिभा, मेधा, स्फूर्ति आदि की प्राप्ति का मूल वीर्य संग्रह ही है। संयमी इस संसार के सुख अधिक मात्रा में भोगते हैं। क्षणिक वासना में वीर्य जैसी बहुमूल्य वस्तु को बरबाद करने में मनुष्य अपनी सफलता समझे, तो उसके इस पागलपन का उपहास ही किया जा सकता है। इस संबंध में मनुष्य को बहुत अधिक सजग, बहुत सावधान होकर सोचने की जरूरत है। इस बात को पूरी तरह जान लेना चाहिए कि सुसंतति भी केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं, जो वासनात्मक प्रवृत्तियों से बचकर अपने शरीर और मन को पुष्ट और प्राणवान् रख सकते हैं। निर्जीव बीज की फसल भी निर्जीव ही होती है। इस सिद्धांत के अनुसार संतानोत्पादन की आवश्यकता को ध्यान में ही रखकर ही गृहस्थ धर्म का पालन किया जाना चाहिए।

अपने व्यक्तिगत, समाज, राष्ट्र और विश्वहित की दृष्टि से जनसंख्या को सीमित एवं नियंत्रित रखा जाना आवश्यक है। अन्यथा प्रकृति को विवश होकर ध्वंसात्मक कार्य करना पड़ेगा। भुखमरी, अकाल महंगाई, भ्रष्टाचार, युद्ध आदि उसी के अभिशाप हैं। संसार को नियमित रखने के लिए प्रकृति जोर मारती है तो उससे विनाश के ही लक्षण दिखाई देते हैं। इसलिए मनुष्य स्वयं उस समस्या को सुधारने का प्रयत्न करें, यह सबसे अच्छी और फायदे की बात हो सकती है।

आज की स्थिति में यह बहुत आवश्यक हो गया है कि जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए कुछ किया जाय। अन्य जो भी साधन हैं, उन्हें हम बुरा नहीं बताते, किंतु एक बात विश्वासपूर्वक कही जा सकती है कि जनसंख्या बढ़ाने के अपराधी हम स्वयं हैं—परिस्थितियां नहीं, इसलिए यह प्रयत्न भी हमें ही करना होगा। संयम और सीमित संतानोत्पादन का कर्तव्यपालन करना होगा, इसमें सभी लाभ टिके हुए हैं। संयम सांसारिक सुख का भी मूल है, इसलिये यह किसी भी प्रकार घाटे का सौदा नहीं। हम चाहें तो थोड़े बच्चे पैदा कर अपनी शारीरिक शक्तियों को अक्षुण्ण रख सकते हैं, मस्ती और उल्लास का जीवन जी सकते हैं।

सरकार कोई मशीन नहीं, जो जनता की सब समस्यायें सुलझा दे। आपके सहयोग के बिना वह लंगड़ी, लूली और अंधी होती है। इस मामले में भी वह स्वतः निर्भर नहीं। सरकार कानून द्वारा चाहे तो रोक लगा सकती है, पर उससे आप मानवीय अधिकार से वंचित होंगे। यह कोई भी नहीं चाहेगा, पर साथ ही आज की समस्याओं से भी कोई शांति नहीं पा सकता।

इस स्थिति को देखते हुए कृपया अधिक जनसंख्या न बढ़ाइये। संयम से रहा कीजिये। ब्रह्मचर्य का पालन किया कीजिये। इससे आपकी शक्तियां प्रबुद्ध होती हैं। सफलता की संभावनायें बढ़ेंगी। सुसंतति को जन्म देने का राष्ट्रीय दायित्व, खाद्य समस्या से बचने का अंतर्राष्ट्रीय दायित्व भी आप इसी तरह निभा सकते हैं।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118