गायत्री विषयक शंका समाधान

गुरु की आवश्यकता

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गायत्री को गुरु-मंत्र कहा गया है। इसका एक अर्थ यह भी है कि इसकी उच्च स्तरीय उपासना के लिए अनुभवी मार्गदर्शक एवं संरक्षक आवश्यक है। कुछ शिक्षाएं ऐसी होती हैं, जो पुस्तकों के सहारे एकाकी भी प्राप्त की जा सकती हैं। पर कुछ ऐसी होती हैं जिनमें अनुभवी व्यक्ति के सान्निध्य सहयोग एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। संगीत, शिल्पकर्म, अक्षरारम्भ, उच्चारण जैसे कार्यों में दूसरों का प्रत्यक्ष सहयोग आवश्यक है। गायत्री-उपासना की नित्यकर्म विधि तो सरल है, किन्तु उच्चस्तरीय साधना में व्यक्ति की विशेष स्थिति के अनुरूप अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं और उसमें अनुभवी मार्गदर्शक की वैसी ही आवश्यकता रहती है जैसी कि रोग उपचार में चिकित्सक की। रोगी का अपने सम्बन्ध में लिया गया निर्णय प्रायः सही नहीं होता। इसलिए चिकित्सक का परामर्श एवं अनुशासन आवश्यक होता है। वही बात उपासना की उच्चस्तरीय प्रगति के सम्बन्ध में भी है।

गुरु की नियुक्ति अनिवार्य तो नहीं पर आवश्यक अवश्य है। इस आवश्यकता की पूर्ति मात्र उच्च चरित्र, साधन-विधान में निष्णान्त व्यक्ति ही कर सकते हैं। जब तक वैसा मार्गदर्शन न मिले तब तक प्रतीक्षा ही करनी चाहिए। उतावली में जिस-तिस को गुरु बना लेने से लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। एक कक्षा पूरी करके दूसरी में प्रवेश करने पर नये अधिक अनुभवी अध्यापक के सम्पर्क में जाना पड़ता है। इसी प्रकार सामान्य मंत्र दीक्षा लेते समय यदि सामान्य स्तर के गुरु का वरण किया गया हो तो उच्चस्तरीय साधना में अधिक योग्य गुरु का वरण भी हो सकता है। एक व्यक्ति के कई गुरु हो सकते हैं। संगीत, व्यापार शिल्प, शिक्षा आदि के लिए जिस प्रकार एक ही समय में कई गुरुओं की सहायता लेनी पड़ती है, उसी प्रकार एक व्यक्ति के कई गुरु भी हो सकते हैं। भगवान राम के वशिष्ठ और विश्वामित्र दो गुरु थे, दत्तात्रय के चौबीस थे। शिक्षा प्राप्त करने में नर-नारी दोनों को ही अध्यापक की सहायता आवश्यक होती है। उसी प्रकार अध्यात्म क्षेत्र के प्रगति प्रशिक्षण में भी बिना लिंग भेद के हर साधक को मार्गदर्शक का सहयोग लेना होता है। व्यवहार-व्यवस्था में स्त्रियों का गुरु पति-सास आदि भी हो सकते हैं, पर आत्मिक प्रगति में सहायता तो वही करेगा जो स्वयं उस विषय का निष्णान्त पारंगत हो। ऐसा व्यक्ति पति आदि भी हो सकता है, बाहरी भी।
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