गायत्री विषयक शंका समाधान

साधना में त्रुटि

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गायत्री उपासना के क्रिया-कृत्यों में कोई त्रुटि रहने पर किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका तो नहीं है? इस आशंका को मन से पूरी तरह निकाल देना चाहिए। सौम्य उपासना में ऐसा कोई खतरा नहीं है। गायत्री उपासना सौम्य स्तर की है। उसे मातृभक्ति के समतुल्य समझना चाहिए। माता से भी शिष्टाचार बरतना चाहिए, यह उचित है। पर किसी लोकाचार में कमी रह जाने पर भी संतान के मन में मातृभक्ति रहती है और माता के मन में वात्सल्य बना रहने पर किसी अप्रिय घटना की कोई सम्भावना नहीं है। माता के मन में बच्चों के प्रति जो असीम वात्सल्य रहता है उसे देखते हुए कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वे मात्र क्रिया-कृत्य में कोई भूल या कमी रहने पर अपने उपासक का कुछ अहित करने की बात सोचेंगी भी। त्रुटि रहने पर इतना ही हो सकता है कि सत्परिणाम में कुछ कमी रह जाय।

गीता के अनुसार सौम्य उपासना में ‘प्रत्यवाय’ अर्थात् उल्टा परिणाम कभी नहीं हो सकता। उसका थोड़ा-सा अवलम्बन भी ‘त्रायते महतो भयात्’ अर्थात् अनिष्ट से रक्षा करता है। भगवान का नाम रुग्ण अवस्था में, विस्तर पर, अशुद्ध स्थिति में पड़े हुए भी लेते रहते हैं। भगवान इतना निष्ठुर नहीं है कि भक्त की भावना का ध्यान न रखे और विधि-विधान में कोई कमी रह जाने से रुष्ट होकर अपने भक्तजनों की ही हानि करने पर उतारू हो जाय। ऐसा तो कोई सर्प, बिच्छु, सिंह, व्याघ्र ही कर सकता है—भक्त वत्सल भगवान नहीं।

यह आशंका तांत्रिक विधानों में गलती करने पर उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों की बात के आधार पर की गई है। तांत्रिक विधानों में भावना का उपयोग नहीं होता। वे भौतिक उद्देश्यों के लिए किये जाते हैं। उनमें शरीर की हठ-साधना और प्रयोग सामग्री के उपचार ही प्रधान होते हैं। एक प्रकार से उन्हें भौतिक क्रिया-कृत्य कह सकते हैं। तांत्रिक देवी-देवताओं की उपासना इसी स्तर की है। तेजाब के रख-रखाव में बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है, तनिक भी भूल होने से खतरे का डर रहता है। आग या बिजली के उपयोग में भी सावधानी न बरतने पर हानि हो सकती है। किन्तु गौदुग्ध के प्रयोग में कोई खतरा नहीं है। इसमें पूरे लाभ की सम्भावना है। किन्तु किसी को भी यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि त्रुटि रहने पर माता के कोप का—प्रयोग के दुष्परिणाम का कोई संकट हो सकता है।
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