कहा जाता है कि गायत्री का अधिकार ब्राह्मण वर्ग को है। कहीं-कहीं उसके द्विजातियों तक सीमित होने का उल्लेख है। इससे लगता है कि ब्राह्मणेत्तर अथवा द्विज वर्ग से बाहर के लोगों को—अस्वर्णों को गायत्री का अधिकार नहीं है।
यह शंका सर्वथा निर्मूल है। एक कारण तो यह है कि गायत्री ब्राह्मी शक्ति होने के कारण, उसका उपयोग करने का अधिकार, सूर्य, जल, वायु, पृथ्वी आदि की तरह सभी को है। प्रतिबन्ध मनुष्यकृत वस्तुओं पर उसके मालिक लगा सकते हैं। ईश्वरीय निर्मित वस्तुएं सभी के लिए उपलब्ध रहती हैं। गायत्री सार्वभौम है—सर्वजनीन है। उस पर किसी धर्म, जाति, वंश, वर्ग का आधिपत्य नहीं है। हर वर्ग, वंश का व्यक्ति इस कल्पवृक्ष का आश्रय बिना किसी हिचक के ले सकता है।
गायत्री गुरु मन्त्र है। विद्याध्ययन के लिए छात्र जब गुरुकुल में प्रवेश करते थे, तो सर्व प्रथम उन्हीं गायत्री मन्त्र ही गुरु द्वारा दिया जाता था। विद्यार्थी सभी वर्णों के होते थे और सभी को गायत्री मन्त्र मिलता था। भारतीय संस्कृति का प्रधान प्रतीक शिखा है, जिसे बिना किसी वर्ण भेद के सभी हिन्दू समान रूप से धारण करते हैं। शिखा गायत्री का स्वरूप है। मस्तिष्क पर सद्विवेक का अनुशासन स्थापित करने वाली इस ध्वजा को गायत्री की प्रतिमा ही कह सकते हैं। शिखाधारी तो अनायास ही गायत्री का अधिकारी बना होता है।
प्राचीन काल में वर्ण-व्यवस्था जन्म, वंश पर नहीं गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित थी। वर्ण बदलते रहते थे। वंश और वर्ण का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। उन दिनों की सामाजिक व्यवस्था में कुटिलता अपनाने और कुकर्म करने वालों का सामाजिक बहिष्कार होता होगा और उनके नागरिक अधिकार छिन जाते होंगे। ये बहिष्कृत लोग खुले हुए कैदियों की स्थिति में सुधरने तक अलग रखे, तिरष्कृत किये जाते होंगे। उसी सामाजिक वर्ण व्यवस्था में सम्भवतः उन अस्पृश्यों से गायत्री का अधिकार छिन जाता होगा। इसी स्थिति का उल्लेख अंत्यजों को गायत्री मन्त्र से वंचित करने के दंड-रूप में दिया जाता होगा।
जो हो आज वैसे सामाजिक दंड की व्यवस्था नहीं रही। फिर कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था का आधार भी नष्ट हो गया। ऐसी दशा में किसी वंश विशेष को अधिकारी—अनधिकारी ठहराने का कोई औचित्य नहीं हो सकता। सभी मनुष्य भगवान् के पुत्र हैं। सभी भाई-भाई हैं। जन्म के आधार पर कोई ऊंच-नीच नहीं हो सकता। उत्कृष्टता-निकृष्टता का एकमात्र आधार मनुष्य के सत्कर्म, दुष्कर्म ही हो सकते हैं। इन तथ्यों के रहते किसी वंश के ही लोगों को गायत्री का अधिकारी ठहराने की बात अनर्गल है। गायत्री उपासना सभी वर्णों के—सभी धर्म सम्प्रदायों के लोग बिना किसी भेदभाव के कर सकते हैं।
गायत्री को ब्राह्मण वर्ण तक सीमित करने वाली बात तो और भी अधिक उपहासास्पद है। गायत्री विनियोग में इस महामंत्र का ऋषि विश्वामित्र कहे गये हैं। विश्वामित्र जन्मतः क्षत्रिय थे। उन्हें ही इस महामन्त्र का साक्षात्कार और रहस्योद्घाटन करने का श्रेय प्राप्त है। यदि जाति-वंश की दावेदारी का झंझट खड़ा होता हो तो उसमें क्षत्रिय वर्ण के लोग अपने उत्तराधिकार का दावा कर सकते हैं। ब्राह्मण तो तब भी हार जायेंगे।
ब्रह्मपरायण—उत्कृष्ट व्यक्तित्व वाले साधक गायत्री उपासना से अधिक उच्चस्तरीय लाभ उठा सकते हैं। इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए गायत्री को ब्राह्मण की कामधेनु कहा गया है। इस प्रतिपादन में मात्र उत्कृष्टता की विशिष्टता को महत्व दिया गया है। अन्य वर्ग के लोगों को उससे वंचित करने जैसा प्रतिबन्ध उसमें भी नहीं है।
प्राचीन प्रचलन, शास्त्र का निर्देश और न्याय-नीति के आधार पर गायत्री उपासना सर्वजनीन ही ठहरती है। जाति, वंश, देश, सम्प्रदाय के कारण सार्वभौम उपासना पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं लगता। हर कोई प्रसन्नतापूर्वक इस महाशक्ति का अंचल पकड़ कर ऊंचा उठने और आगे बढ़ने का लाभ प्राप्त कर सकता है।