गायत्री विषयक शंका समाधान

गायत्री मंत्र कीलित है?

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गायत्री उपासना के दो मार्ग हैं एक देव-मार्ग, दूसरा दैत्य-मार्ग। एक को वैदिक, दूसरे को तांत्रिक कहते हैं। तंत्र-शास्त्र का हर मंत्र कीलित है—अर्थात् प्रतिबंधित है। इस प्रतिबन्ध को हटाये बिना वे मंत्र काम नहीं करते। बन्दूक का घोड़ा जाम कर दिया जाता है, तो उसे दबाने पर भी कारतूस नहीं चलता। मोटर की खिड़की ‘लौक’ कर देने पर वह तब तक नहीं खुलती जब तक उसका ‘लौक’ न हटा दिया जाय। तांत्रिक मंत्रों में विद्यातक शक्ति भी होती है। उसका दुरुपयोग करने पर प्रयोक्ता को तथा अन्यान्यों को हानि उठानी पड़ सकती है। अनधिकारी कुपात्र व्यक्तियों के हाथ में यदि महत्वपूर्ण क्षमता आ जाय तो वे आग के साथ खेलने वाले बालकों की तरह उसे नाश का निमित्त बना सकते हैं।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भगवान शंकर ने समस्त तांत्रिक मंत्रों को कीलित कर दिया है। उत्कीलन होने पर ही वे अपना प्रभाव दिखा सकते हैं। तांत्रिक सिद्धि-साधनाओं में उत्कीलन आवश्यक है। यह कृत्य अनुभवी गुरु द्वारा सम्पन्न होता है। किसी रोगी को—क्या औषधि—किस मात्रा में देनी चाहिए उसका निर्धारण कुशल चिकित्सक रोगी की स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन करने के उपरान्त ही करते हैं। यही बात मंत्र-साधना के सम्बन्ध में भी है। किस साधक को—किस मंत्र का उपयोग—किस कार्य के लिए—किस प्रकार करना चाहिए, इसका निर्धारण ही उत्कीलन है। यों प्रत्येक तंत्र-विधान का एक उत्कीलन प्रयोग भी है। ‘दुर्गा सप्तशती’ का पाठ आरम्भ करने से पूर्व कवच, कीलन, अर्गल अध्यायों का अतिरिक्त पाठ करना होता है। साधना के समय होने वाले आक्रमणों से सुरक्षा के लिए कवच, मंत्र सुषुप्त शक्ति को प्रखर करने के लिए कीलक एवं सिद्धि के द्वार पर चढ़ी हुई अर्गला—सांकल—को खोलने के लिए ‘अर्गल’ की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है। ‘दुर्गा सप्तशती’ पाठ की तरह अन्यान्य तंत्र-प्रयोगों में भी अपने-अपने ढंग से कवच, कीलक, अर्गल करने होते हैं। इनमें से कीलक का विशेष महत्व है। वही प्रख्यात भी है। इसलिए उत्कीलन उपचार के लिए अनुभवी मार्गदर्शक की सहायता प्राप्त करने के उपरान्त ही अपने पथ पर अग्रसर होते हैं।

यह तांत्रिक साधनाओं का प्रकरण है। वैदिक-पक्ष में इस प्रकार के कड़े प्रतिबन्ध नहीं हैं, क्योंकि वे सौम्य हैं। उनमें मात्र आत्मबल बढ़ाने और दिव्य क्षमताओं को विकसित करने की ही शक्ति है। अनिष्ट करने के लिए उनका प्रयोग नहीं होता। इसलिए दुरुपयोग का अंश न रहने के कारण सौम्य मंत्रों का कीलन नहीं हुआ है। उनके लिए उत्कीलन की ऐसी प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ती जैसी कि तंत्र-प्रयोजनों में। फिर भी उपयुक्त शिक्षा एवं चिकित्सा के लिए उपयुक्त निर्धारण एवं समर्थ सहयोग, संरक्षण की तो आवश्यकता रहती ही है। उपयुक्त औषधियां उपलब्ध करने पर भी चिकित्सक के अनुभव एवं संरक्षण की उपयोगिता रहती है। रोगी अपनी मर्जी से अपना इलाज करने लगे—विद्यार्थी अपने मन से चाहे जिस क्रम से पढ़ने लगे, तो उसकी सफलता वैसी नहीं हो सकती, जैसी कि उपयुक्त सहयोग मिलने पर हो सकती है। बिना मार्गदर्शन, बिना सहयोग, संरक्षण के, एकाकी यात्रा पर चल पड़ने वाले अनुभवहीन यात्री को जो कठिनाइयां उठानी पड़ती हैं, वे ही स्वेच्छाचारी साधकों के सामने बनी रहती हैं। वे आश्रयहीन तिनके की तरह हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर भटकते छितराते रहते हैं।

इस दृष्टि से मार्गदर्शन इतनी मात्रा में तो सभी साधनाओं के लिए आवश्यक है कि उन्हें अनुभवी संरक्षण में सम्पन्न किया जाय। स्वेच्छाचार न बरता जाय। जो इस प्रयोजन को पूरा कर सकें, समझना चाहिए कि उनकी गायत्री-साधना का उत्कीलन हो गया और उनकी साधना सरल एवं सफलता सुनिश्चित हो गई।
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