कई जगह ऐसा उल्लेख मिलता है कि गायत्री-मंत्र को शाप लगा हुआ है। इसलिए शापित होने के कारण कलियुग में उसकी साधना सफल नहीं होती। ऐसा उल्लेख किसी आर्ष ग्रन्थ में कहीं भी नहीं है। मध्यकालीन छुट-पुट पुस्तकों में ही एक-दो जगह ऐसा प्रसंग आया है। इनमें कहा गया है कि गायत्री को ब्रह्मा, वशिष्ठ और विश्वामित्र ने शाप दिया है कि उसकी साधना निष्फल रहेगी, जब तक उसका शाप मोचन नहीं हो जाता। इस प्रसंग में ‘शाप मुक्तो भव’ वर्ग के तीन श्लोक भी हैं। उन्हें पाठ कर तीन वमची जल छोड़ देने भर से शाप-मोचन का प्रकरण समाप्त हो जाता है।
यह प्रसंग बहुत ही आश्चर्यजनक है। पौराणिक उल्लेखों के अनुसार गायत्री ब्रह्माजी की अविच्छिन्न शक्ति है। कहीं-कहीं तो उन्हें ब्रह्मा-पत्नी भी कहा गया है। वशिष्ठ वे हैं जिनने गायत्री के तत्वज्ञान को देवसत्ता से हस्तगत करके मनुष्योपयोगी बनाया। वशिष्ठजी के पास कामधेनु की पुत्री नन्दिनी थी। स्वर्ग में गायत्री को कामधेनु कहा गया है और उसके पृथ्वी संस्करण का नाम नन्दिनी दिया गया। वशिष्ठ की प्रमुख शक्ति वही थी। इसके आधार पर उन्होंने ऋषियों में वरिष्ठता प्राप्त की एक बार प्रतापी राजा विश्वामित्र से विग्रह हो जाने पर नन्दिनी के प्रताप से उनके धुर्रे बिखेर दिये। उसी ब्रह्मशक्ति से प्रभावित होकर राजा विश्वामित्र विरक्त बने और गायत्री की प्रचंड साधना में संलग्न रहकर गायत्री मन्त्र के दृष्ट्वा, साक्षात्कार कर्ता, निष्णान्त एवं सिद्ध पुरुष बने। गायत्री के विनियोग संकल्प में सविता देवता, गायत्री छन्द, विश्वामित्र ऋषि का वाचन होता है। इससे स्पष्ट है कि गायत्री विद्या के अन्तिम पारंगत ऋषि होने का श्रेय विश्वामित्र को ही प्राप्त है।
प्रस्तुत प्रतिपादनों में स्पष्ट है कि ब्रह्मा-वशिष्ठ और विश्वामित्र—तीनों की ही आराध्य एवं शक्ति निर्झरिणी गायत्री ही रही है। उसी के प्रताप से उन्होंने वर्चस्व पाया है। विष्णु के कमल नाभि से उत्पन्न होने के उपरान्त आकाशवाणी द्वारा निर्दिष्ट गायत्री की उपासना करके ही ब्रह्माजी सृष्टि निर्माण की शक्ति प्राप्त कर सके और उसी महाविद्या के व्याख्यान में उन्होंने चार मुखों से चार वेदों का सृजन किया। ब्रह्माजी गायत्री के ही मूर्तिमान संस्करण कहे जा सकते हैं।
ऐसी दशा में ब्रह्मा, वशिष्ठ और विश्वामित्र गायत्री की साधना के निष्फल चले जाने का शाप देकर अपने पैरों कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे? स्वयं हतवीर्य क्यों बनेंगे और समस्त संसार को इस कल्पवृक्ष का लाभ उठाने से वंचित क्यों करेंगे? यह ऐसी अनबूझ पहेली है, जिसका समाधान कही से भी नहीं सूझता।
लगता है मध्यकाल में जब चतुर धर्माध्यक्षों में अपना स्वतन्त्र मत चलाने की प्रतिस्पर्धा जोरों पर थी, तब उनने गायत्री की सर्वमान्य उपासना को निरस्त करके उसका स्थान अपनी प्रतिपादित उपासनाओं को दिलाने का प्रयत्न किया होगा। इसके लिए पूर्व मान्यता हटाने की बात मस्तिष्क में आई होगी। सीधा आक्रमण करने से सफलता की सम्भावना न देखकर बगल से हमला किया होगा। गायत्री की सर्वमान्य महत्ता को धूमिल करने के लिए, उसे शापित, कीलित होने के कारण निष्फल होने की बात कहकर लोगों में निराशा, अश्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न चला होगा और उस मनःस्थिति से लाभ उठा कर अपने सम्प्रदाय का गुरुमन्त्र लोगों के गले उतारा होगा।
इसके अतिरिक्त और कोई कारण समझ में नहीं, जिसके आधार पर गायत्री महाशक्ति के प्रमुख उपासकों द्वारा शाप देकर व्यर्थ कर दिये जाने जैसी ऊल-जुलूल बात कही जा सके। सूर्य को, बादलों को, पवन को, बिजली को, पृथ्वी को कौन शाप दे सकता है? इतना बड़ा शाप दे सकने की सामर्थ्य इस धरती के निवासियों की तो हो नहीं सकती। अस्तु, गायत्री को शाप लगने और उसके निष्फल होने की बात को किसी विकृत मस्तिष्क की उपज ही कहा जा सकता है। उसे मान्यता देने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। हर कोई बिना किसी शंका-कुशंका के गायत्री उपासना कर सकता है और उसके सत्परिणामों की आशा कर सकता है।
शाप लगने की बात को एक बुझौअल के रूप में अधिक से अधिक इतना ही महत्व दिया जा सकता है कि वशिष्ठ जैसे विशिष्ठ और विश्वामित्र जैसा विश्व-मानवता का परिपोषक व्यक्ति सहयोगी, मार्गदर्शक मिलने पर इस महान साधना के अधिक सफल होने की आशा है। जिसे ऐसा गुरु न मिलेगा उसे अंधेरे में टटोलने वाले की तरह असफल रह जाने की भी संभावना हो सकती है। गायत्री को गुरुमन्त्र कहा गया है। उसकी सफलता ब्रह्मविद्या में पारंगत वशिष्ठ स्तर के एवं तपश्चर्या की अग्निपरीक्षा में खरे उतरे हुए विश्वामित्र स्तर के गुरु मिल जाने पर सुनिश्चित होती है। अन्यथा शाप लगने और निष्फल जाने का भय बना ही रहेगा।