कहा जा चुका है कि अभियान उन साधकों के लिए है जो अपने सामान्य उपासना क्रम का स्तर बढ़ाकर, उसे ऊंचा उठाकर और अधिक लाभ प्राप्त करना चाहते हों। एक-दो, तीन माला का जप और ध्यान आरम्भिक कक्षा है। यह उपासना आरम्भ करते समय साधक से कहा जाता है कि मन लगने न लगने पर भी ज्यों-त्यों इस अभ्यास को जारी रखा जाए, समय न मिले तो मानसिक जप किसी भी समय किया जा सकता है। लेकिन इतना ध्यान रखना चाहिए कि वह सब नियमित हो। यदि प्रयत्न किया जाय तो ऐसा समय आसानी से निश्चित किया जा सकता है कि उस समय अवकाश रहे और उपासना नियमित रूप से चल सके।
आरम्भिक कक्षा से आगे बढ़कर उच्च कक्षा में प्रवेश के लिए ही अभियान साधना का उपक्रम है। तितिक्षा, तप आदि नियमानुशासनों का नियमित रूप से पालन हो सके तो अच्छा ही है। पर जिन नियमों का अभ्यास ही नहीं है, उसके लिए आरम्भ छोटे रूप में किया जाना चाहिए और इसी के लिए सप्ताह में एक दिन इन व्रत-नियमों के पालन की बात कही गई है। पूरी दिनचर्या ही अनुशासित नियमबद्ध और तप परायण बन सके तो कहना ही क्या? लक्ष्य वही रखना चाहिए। गुरुवार को अनुष्ठान नियमों का पालन करना इसीलिए आवश्यक रखा गया है कि साधक ये नियमादि याद रखे तथा उनकी प्रेरणा, दिशा निरन्तर नियमित रूप से प्राप्त करता रहे। इन्हें सदैव पालन करना निषिद्ध नहीं है। सप्ताह में एक दिन इस चर्या का पालन न्यूनतम को आवश्यक समझते हुए निर्धारित किया है।
सर्वविदित है कि अनुष्ठानों में आहार-विहार के दोनों पक्षों पर नियन्त्रण, संयम करना पड़ता है। भोजन में पूरे या अधूरे उपवास की रीति-नीति का यथासम्भव समावेश, ब्रह्मचर्य का पालन, अपनी सेवाएं आप करने का प्राविधान है। तितिक्षा का अभ्यास करने के लिए भूमिशयन जैसी कठोरताएं अपनानी पड़ती हैं। इस तरह के और भी कितने ही तप-साधना, व्रत अनुशासन है जो जप-ध्यान जैसे सामान्य उपासनाक्रम को सशक्त एवं प्रभावोत्मक बनाने में समर्थ है। अभियान-साधना में भी इस प्रकार की कठोरताओं का यथासम्भव पालन करना चाहिए। इसी उद्देश्य से गुरुवार का दिन संयम साधना के लिए निर्धारित है ताकि साधक को अपनी जीवन-नीति का स्मरण ही नहीं अभ्यास भी बना रहे।
अभियान साधकों को गुरुवार के दिन प्रमुखतः तीन नियमों का पालन करना होता है उपवास, मौन और ब्रह्मचर्य। इन तीनों का जितनी ही कड़ाई के साथ पालन किया जाय उतना ही उत्तम है। उपवास में हो सके तो दूध, छाछ, रस जैसे पेय पदार्थ ही लिए जाएं तो सर्वोत्तम है। किन्तु इससे काम न चले तो शाकाहार भी लिया जा सकता है। इतना भी कठिन पड़े तो एक समय भोजन किया जा सकता है। उस एक समय के भोजन में अस्वाद व्रत का पालन अनिवार्य रूप से करना चाहिए। नमक और शक्कर दोनों में से एक भी न लिया जाय।
यह स्वाद संयम जिव्हा संयम का एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष है—संतुलित और सुसंस्कृत भाषण। इसके लिए पुराने अभ्यास को रोकने और नया अभ्यास आरम्भ करने का मध्यम उपाय मौन है। पूरे दिन मौन रखना तो कामकाजी व्यक्ति के लिए कठिन पड़ता है पर प्रातःकाल अथवा जब भी सुविधा हो दो घण्टे की मौन साधना बिना किसी अड़चन के की जा सकती है। जितने समय मौन रहा जाय, वह समय मनन, चिन्तन में लगाया जाय। मनन का अर्थ है—आत्मचिन्तन, अपनी वर्तमान स्थिति का आलोचक की दृष्टि से विवेचन। इस विवेचन से अपने भीतर जो दोष, दुर्गुण दिखाई दें, जो आदतें अनुपयुक्त जान पड़े, उनके निराकरण की योजना बनाना तथा जिन सत्प्रवृत्तियों का अपने में अभाव है, उनके अभिवर्धन की योजना बनाना, इसी का नाम चिन्तन है। अपना आत्म-विवेचन मनन है और त्रुटियों के निराकरण तथा सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन की योजना बनाना चिन्तन कहा जा सकता है। इन्हीं दो कार्यों में चित्त को मौन की अवधि में व्यस्त रहना चाहिए। स्मरण रखा जाय कि मौन का अर्थ मात्र चुपचाप बैठे रहना नहीं है। इस अवधि को एकांत में बिताना चाहिए। मुंह से कुछ न बोलकर जबान बन्द रखकर भी इशारेबाजी की जाती है तो उससे मौन का प्रयोजन पूरा नहीं होता। यह आत्मश्लाघा तो मौन न रखने से भी बुरी है।
जिह्वा की तरह ही जननेन्द्रिय पर भी अंकुश रखना आवश्यक है। क्रीड़ा, विनोद के सभी क्रिया-कलापों में यह सबसे महंगा खेल है। जीवनी शक्ति से खिलवाड़ करने वाली इस आदत से जितना छुटकारा पाया जा सके उतना अच्छा है। गुरुवार को ब्रह्मचर्य से रहने का नियम इसीलिए है कि इस संयम का महत्व समझा जाय और न केवल यौन क्रिया से वरन् कामुक चिन्तन से भी मन को विरत रखने का यथासम्भव प्रयत्न किया जाय। ब्रह्मचर्य में शारीरिक संयम जितना महत्वपूर्ण है, अश्लील वासनाओं और विचारों पर अंकुश रखना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। यही तथ्य अपने आपको समझाने के लिए ही गुरुवार को ब्रह्मचर्य का पालन प्रतीक रूप से अपनाया जाता है। स्वाद संभाषण और वासना पर नियन्त्रण की आवश्यकता अनुभव करने की दृष्टि से ही अस्वाद, मौन, ब्रह्मचर्य के तीन नियम बनाये गये हैं। अभियान साधना करने वाले साधक को गुरुवार के दिन तो करना ही चाहिए। ध्यान यह भी रखना चाहिए इन संयम का प्रति दिन, आजीवन पालन करने का अधिक से अधिक साधन जुटाया जाय और अधिक कदम बढ़ाये जा सकें उसके लिए प्रयत्नशील रहा जाय।