जप तथा यज्ञ में ऐसे वस्त्र धारण किये जाते हैं जो शरीर से अधिक चिपके नहीं। प्राण तत्व को भीतर खींचने और कल्मषों को बाहर निकालने की उस समय की प्रक्रिया में बाधा न पहुंचायें। प्राचीन काल में धोती और दुपट्टा—दो ही वस्त्र इन प्रयोजनों में काम आते थे। शरीर पर न्यूनतम वस्त्र रहें, जो रहें वे ढीले हों, वायु के आवागमन में बाधक न होते हों, वही उपासना के समय धारण करने योग्य माने गये हैं। यज्ञ में यह बात विशेष रूप से ध्यान रखने योग्य है, क्योंकि अग्निहोत्र की उपयोगी ऊर्जा रोम छिद्रों के द्वारा भीतर प्रवेश करती है, त्वचा पर प्रभाव डालती है। उस गर्मी के भीतर प्रवेश करने पर भीतर से भाप, पसीना और साथ ही अनेक प्रकार की अशुद्धियां बाहर निकलती हैं। यदि कपड़े भारी, मोटे या कसे हुए रहेंगे तो उपरोक्त दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति में कठिनाई पड़ेगी और साधक घाटे में रहेगा।
धोती सबसे ढीला वस्त्र है। उससे लज्जा आच्छादन ठीक प्रकार होता है। कटि प्रदेश और जंघाएं लज्जा के अवयव माने गये हैं। वे पैजामे में भी उतनी अच्छी तरह नहीं ढकते जितना कि भारतीय संस्कृति के अनुसार आवश्यक है। इसी प्रकार पैजामे का कमरबन्द—नीचे की मुहरी, शरीर के साथ उसका चिपका रहना, यज्ञ के लाभों में बाधा उत्पन्न करता है। अधिक खुली हवा के आवागमन के अधिक अनुकूल होने के कारण धोती ही अधिक उपयुक्त है। भारतीय संस्कृति का यही प्रतीक परिधान भी है। जिसका अन्य समय में न सही धार्मिक कृत्यों में तो स्थान बना ही रहना चाहिए।
शरीर पर धारण किये जाने वाले वस्त्रों में कुर्ता सीधा, सरल, सादगी का प्रतीक एवं सस्ता है। वायु का आगमन निर्वाध रूप से होता रहे ऐसी ही उसकी बनावट है। भारत की सांस्कृतिक पोशाक की दृष्टि से भी कुर्ता ऐसा परिधान है जिसे धार्मिकता एवं सांस्कृतिक एकता के प्रतीक रूप में मान्यता मिल सकती है। वह आसानी से नित्य धोया जा सकने योग्य है।
ऐसे कपड़े जो शरीर पर चिपके रहते हैं—नित्य नहीं धुलते, उनको धार्मिक क्रिया-कृत्यों में धारण न किया जाय तो ही अच्छा है। मोजे हर हालत में उतार देने चाहिए, उनकी गन्दगी लगभग जूते के ही समतुल्य होती है।
जिन प्रदेशों में धोती कुर्ते का रिवाज नहीं है, बनाना भी कठिन है, वहां पाजामा के उपयोग की भी छूट मिल सकती है। पर वह भी धुला हुआ तो हो, यह ध्यान रखा जाय। जहां आसानी से धोती-कुर्ते का प्रबन्ध हो सकता है, वहां तो उसके लिए जोर दिया ही जाय। इस सन्दर्भ में आलस्य या उपेक्षा न बरतें। कंधे पर पीला दुपट्टा धर्मानुष्ठानों के लिए शास्त्रोक्त परिधान है। जहां तक सम्भव हो जप, साधना यज्ञ-प्रक्रिया आदि के अवसर पर कंधे पर पीला दुपट्टा रखा जाय। इसमें सांस्कृतिक एकता एवं भावनात्मक समस्वरता का समावेश है। इसलिए यथासम्भव सभी धर्मकृत्यों में धोती, कुर्ता, पीला दुपट्टा धारण करने पर जोर दिया जाय। पर इसे इतना कड़ा प्रतिबन्ध माना जाय कि किसी श्रद्धालु को मात्र इसी कारण सम्मिलित होने से रोका जाय। अच्छा यह है कि सामूहिक आयोजनों में कुछ सैट इस प्रकार के रखे जायें जिन्हें वे लोग प्रयोग कर सकें जो इस प्रकार के वस्त्र घर से लेकर नहीं आये हैं। महिलाएं प्रायः साड़ियां ही पहनती हैं। वे धर्मकृत्यों में पीली रंगी रहें। शरीर पर धारण करने के वस्त्र चिपके रहने वाले नहीं ढीले होने चाहिए।