गायत्री विषयक शंका समाधान

अनुष्ठान के नियमोपनियम

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
साधारण स्तर का जीवनक्रम अपनाकर की गई उपासना नित्य नियम है। अनुष्ठान का स्तर विशेष है—उसके साथ अनेकों प्रतिबन्ध, नियम, विधान जुड़े रहते हैं। अतएव उसका प्रतिफल भी विशेष होता है। पुरश्चरण का विशेष विधि-विधान है। उसमें अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक मन्त्रों एवं कृत्यों का प्रयोग करना पड़ता है। वह कर सकना उसे प्रयोजन के लिए, प्रशिक्षित संस्कृतज्ञों के लिए ही सम्भव है। साधारणतया अनुष्ठानों का ही प्रचलन है सर्वसाधारण के लिए वे ही सरल है। अनुष्ठान तीन स्तर के हैं। लघु, चौबीस हजार जप का 9 दिन में सम्पन्न होने वाला। मध्यम, सवालक्ष जप का 40 दिन में होने वाला। उच्च, 24 लाख जप का—1 वर्ष में होने वाला। लघु में 27 माला, मध्यम में 33 और उच्च में 66 माला नित्य जपनी होती हैं। औसत एक घंटे में 10-11 माला जप होता है। इस हिसाब से लघु और मध्यम में प्रायः तीन घंटे और उच्च में छह घंटे नित्य लगते हैं। यह क्रम दो या तीन बार में भी थोड़ा-थोड़ा करके पूरा हो सकता है। यों प्रातःकाल का ही समय सर्वोत्तम है। शरीर, वस्त्र, तथा उपकरणों की शुद्धता, षट्कर्म, पंचोपचार, जप, ध्यान, सूर्यार्घदान—यही उपक्रम है। पूजा वेदी पर छोटा जलकलश और अगरबत्ती रखकर (जल, अग्नि की साक्षी मानी जाती है), चित्र, प्रतिमा का पूजन, जल, अक्षत, चन्दन, पुष्प, नैवेद्य से किया जाता है। आवाहन, विसर्जन के लिए आरम्भ और अन्त में गायत्री मंत्र सहित नमस्कार किया जाता है।

जप के साथ हवन जुड़ा हुआ है। प्राचीन काल में जब हर प्रकार की सुविधा थी तब जप का दशांश हवन किया जाता था। आज की स्थिति में शतांश पर्याप्त है। चौबीस हजार के लिए 240, सवा लक्ष के लिए 1250, चौबीस लक्ष के लिए 24 हजार आहुतियां देनी चाहिए, यह एक परम्परा है। स्थिति के अनुरूप आहुतियों की संख्या न्यूनाधिक भी हो सकती हैं। पर होनी अवश्य चाहिए। अनुष्ठान में जप और हवन दोनों का ही समन्वय है। गायत्री माता और यज्ञ पिता का अविच्छिन्न युग्म है। दो विशिष्ट साधनाओं में दोनों को साथ रखकर मिलाना होता है। हवन हर दिन भी हो सकता है और अन्तिम दिन भी। हर दिन न करना हो तो जितनी माला हों उतनी आहुतियां। अन्तिम दिन करना हो तो समूचे जप का शतांश। यज्ञवेदी पर कई व्यक्ति बैठते हैं तो सम्मिलित आहुतियों की गणना होती है। जैसे हवन पर 5 व्यक्ति बैठे हों तो उनके द्वारा दी गई 100 आहुतियां 500 मानी जायेंगी। 240 आहुतियों के लिए 6 व्यक्ति एक साथ बैठकर हवन करें तो 40 बार आहुतियां प्रदान से ही वह संख्या पूरी हो जायगी। पुरश्चरणों में तर्पण, मार्जन, न्यास, कवच, कीलक, अर्गल आदि के कितने ही विशिष्ट विधान हैं। अनुष्ठानों में इनमें से किसी की भी आवश्यकता नहीं है। जप, हवन के उपरांत ब्रह्मभोज ही पूर्णाहुति का अन्तिम चरण पूरा करने के लिए आवश्यक होता है। यह कार्य ब्राह्मणों या कन्याओं को भोजन कराने के साथ पूरा होता है। सच्चे ब्राह्मण ढूंढ़ पाना अति कठिन है। जो है वे परान्न खाने को तैयार नहीं होते। कन्याओं को मातृशक्ति का प्रतीक मानकर भाव-पवित्रता का संवर्धन करने के लिए भोजन कराया जा सकता है। पर उसमें भी यही व्यवधान आता है। स्वाभिमानी अभिभावक इसके लिए तैयार नहीं होते। ढूंढ़ निकाली भी जायें तो दान की प्रतिक्रिया का अनुमान लगाने पर उसका परिणाम भी कुछ उत्साहवर्धक नहीं दीखता। इन परिस्थितियों में ब्रह्मभोज का सही स्वरूप ब्रह्मदान ही सकता है। ब्रह्मदान अर्थात् सद्ज्ञान का दान। यह युग निर्माण द्वारा पूरा हो सकता है। एक-एक आहुति पर एक नया पैसा ब्रह्मदान के लिए निकाला जाय। 240 आहुतियां 24 हजार के अनुष्ठान के लिए देनी है तो 240 पैसे का प्रसार साहित्य भी सत्पात्रों को वितरण करना चाहिए। इससे सद्ज्ञान का बीजारोपण अनेक अन्तःकरणों में होता है और उसका सत्परिणाम पढ़ने और पढ़ाने वाले दोनों को ही समान रूप से मिलता है।

अनुष्ठान में अधिक अनुशासन पालन करना पड़ता है। जप का समय, संख्या, दैनिक क्रम एक साथ बनाकर चलना पड़ता है। अनिवार्य कारण आ पड़े तो बात दूसरी है अन्यथा उपासना का निर्धारित क्रम आदि से अन्त तक एक रस ही चलते रहना चाहिए। उसमें उलट-पुलट अनिवार्य कारण होने पर ही करना चाहिए और वह भी न्यूनतम मात्रा में।

अनुष्ठान के दिनों में पांच तप-संयम साधने पड़ते हैं—[1] उपवास [2] ब्रह्मचर्य [3] अपनी सेवा अपने हाथ से [4] भूमिशयन [5] चमड़े का प्रयोग त्याग। अनुष्ठान के दिनों चमड़े के जूते आदि का प्रयोग न किया जाय। प्लास्टिक, रबड़, कपड़ा आदि की बनी वस्तुएं आजकल चमड़े के बजाय हर स्थान पर प्रयुक्त होती हैं। वही किया जाय। भूमि शयन सर्वोत्तम है। सीलन, कीड़े आदि का भय हो तो तख्त पर सोया जा सकता है। हजामत, कपड़े धोना जैसी दैनिक जीवन की शारीरिक आवश्यकताएं नौकरों से न करायें, स्वयं करें। भोजन अपने हाथ से बना सकना सम्भव न हो तो स्त्री, माता, बहिन आदि उन्हीं अति निकटवर्ती स्वजनों के हाथ का बनाया स्वीकार करें, जिनके साथ आत्मीयता का आदान-प्रदान चलता है। बाजार से पका हुआ तो नहीं ही खरीदें। ब्रह्मचर्य अनुष्ठान के दिनों में आवश्यक है। शारीरिक ही नहीं मानसिक भी पाला जाना चाहिए। कामुक कुदृष्टि पर नियन्त्रण रखा जाय। सम्पर्क में आने वाली नारियों को माता, बहिन या पुत्रीवत् पवित्र भाव से देखा जाय। यही बात पुरुषों के सम्बन्ध में नारियों पर लागू होती है। पांचवीं तपश्चर्या भोजन की है। यह उपवास काल है। उपवास कई स्तर के होते हैं—[1] छाछ, दूध आदि पेय पदार्थों पर रहना [2] शाक, फल के सहारे काम चलाना [3] नमक, शकर का त्याग अर्थात् अस्वाद [4] एक समय आहार [5] दो खाद्य पदार्थों पर अनुष्ठान की अवधि काटना।

अनुष्ठान के यही मोटे नियम हैं। इसके अतिरिक्त जो तरह-तरह की बातें कही जाती हैं और परस्पर विरोधी नियम बताये जाते हैं उन पर ध्यान न दिया जाय।

अनुष्ठान में कोई भूल हो जाने पर, त्रुटि रहने पर भी किसी अनिष्ट की आशंका न करनी चाहिए फिर भी उन दिनों कोई विघ्न उत्पन्न न होने पाये इसके लिए संरक्षण और ज्ञात-अज्ञात में रही हुई त्रुटियों का परिमार्जन करने के लिए अनुष्ठान साधना के लिए कोई समर्थ संरक्षक नियुक्त कर लेना चाहिए। यह सेवा शांतिकुंज हरिद्वार से भी ली जाती है। अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति का परिचय तथा समय लिख भेजने से संरक्षण, परिमार्जन सर्वथा निस्वार्थ भाव से होता रहता है। यह व्यवस्था करने पर साधना की सफलता और भी अधिक सुनिश्चित हो जाती है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118