केवल पुरुष ही गायत्री-उपासना के अधिकारी हैं, स्त्रियां नहीं—ऐसा कई व्यक्ति कहते सुने जाते हैं। इसके समर्थन में वे जहां-तहां के कुछ श्लोक भी प्रस्तुत करते हैं।
इन भ्रान्तियों का निराकरण करते हुए हमें भारतीय संस्कृति के मूल स्वरूप को समझना होगा। वह विश्वधर्म—मानवधर्म है। जाति और लिंग की अनीतिमूलक असमानता का उसके महान सिद्धान्तों में कहीं भी समर्थन, प्रतिपादन नहीं है। समता, एकता, आत्मीयता के आदर्शों के अनुरूप ही उसकी समस्त विधि व्यवस्था विनिर्मित हुई है। ऐसी दशा में स्त्रियों के मानवोचित नागरिक एवं धार्मिक अधिकारों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाने जैसी कहीं कोई बात नहीं है। नारी को नर से कनिष्ठ नहीं वरिष्ठ माना गया है। इसे हेय ठहराने और आत्मकल्याण की महत्वपूर्ण साधना न करने जैसा प्रतिबन्ध लगाने की बात तो तत्त्वदर्शी ऋषि सोच भी नहीं सकते थे। भारतीय दर्शन की आत्मा ऐसे भेदभाव को सहन नहीं कर सकती। इसलिए धर्मधारण के किसी भी पक्ष से गायत्री उपासना जैसे अनुशीलन से उसे रोका गया है, ऐसी भ्रान्ति न तो किसी को फैलानी और न किसी को ऐसा कुछ कहने वालों की बात पर ध्यान देना चाहिए।
मध्यकाल के अन्धकार-युग में सामन्ती व्यवस्थाओं का बोलबाला था। वे सामर्थ्यहीन दुर्बलों का हर दृष्टि से शोषण-दोहन करने पर तुले हुए थे। उनका वैभव, वर्चस्व, विलास एवं अहंकार इसी आधार पर पुष्ट होता था कि दुर्बलों को सता सकने की आतंक-क्षमता का उद्धत प्रदर्शन करके अपनी बलिष्ठता का परिचय देते रहें। उन्हीं दिनों दास-प्रथा पनपी, रखैलों से, अन्तःपुर सजे—अपहरण हुए—युद्ध ठने—कत्ले-आम हुए। और न जाने कितने कुकृत्यों की बाढ़ आई। इन कुकृत्यों के समर्थन में आश्रित पंडितों से कितने ही श्लोक लिखाये और प्राचीन ग्रन्थों में ठुसवाये गये। नारी भी इस कुचक्र में पिसने से न बची। उसके यौवन, श्रम, तथा मनोबल के मनमाने उपयोग के लिए ऐसी व्यवस्थाएं गढ़ी गईं, जिससे पददलितों का मनोबल टूटे और वे सहज शरणागति स्वीकार करलें। सामन्तों और पंडितों की इस मिली भगत ने स्त्री, शूद्रों को कुचलने में ऐसे प्रतिपादन खड़े किये जिन्हें धर्म परम्परा का बाना पहनाया जा सके। देशी और विदेशी आततायी अपनी-अपनी गतिविधियों की निर्वाध गति से देर तक चलाने के लिए दमन और शमन के दुहरे आक्रमण करते रहे। नारी वर्ग को आसूर्यम्पश्या—पर्दे के भीतर रहने वाली कठपुतली, चरणदासी बनी रहने, सती होने, पति को ही परमेश्वर मानकर उसके हर अनौचित्य को शिरोधार्य करने जैसे शमन-प्रयोग उसी षड्यन्त्र के अंग हैं। स्त्रियों को जन्म जात निकृष्ट ठहराने का एक प्रमाण यह भी प्रस्तुत किया गया कि वे दीन-हीन होने के कारण ही गायत्री मंत्र जैसी श्रेष्ठ उपासना करने की भी अधिकारिणी नहीं हैं।
प्राचीन काल के इतिहास एवं शास्त्र अनुशासन को देखने से स्पष्ट है कि भारतीय धर्म में नर और नारी के अधिकारों में कहीं रत्ती भर भी अंतर नहीं है। यदि कहीं है भी तो उसमें नारी को नर से ही वरिष्ठ सिद्ध किया गया है और उसे पूजा योग्य ठहराया गया है। प्राचीन काल में ऋषियों की तरह ऋषिकाएं भी समस्त धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रयोजनों में समान रूप से सहभागिनी रही हैं। उनके द्वारा वेद संहिता की अनेकों ऋचाओं का अवतरण हुआ है। योग-तप एवं धर्म कृत्यों में उनके समान सहयोग के प्रमाणों से अतीत का समस्त घटनाक्रम एवं वातावरण पूरी तरह साक्षी है। यज्ञ में नारी का साथ होना आवश्यक है। विवाह आदि संस्कारों में यज्ञ भी होता है और मन्त्रोच्चार भी। इसमें नर-नारी दोनों का ही समान भाग रहता है।
गायत्री की प्रतिमा स्वयं नारी है। नारी की उपासना नारी नारी भी न करें—माता से बेटी दूर रखी जाय इसका किसी भी दृष्टि से औचित्य नहीं है। नर और नारी दोनों को ही समान रूप से गायत्री-उपासना समेत समस्त धर्मकृत्यों का अधिकार है। इसके विरुद्ध अनर्गल प्रलाप किये जाते हैं—काने, कुबड़े प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं, उन्हें भारतीय धर्म की आत्मा के सर्वथा प्रतिकूल ही माना जाना चाहिए। तथ्यहीन प्रतिगामिता की उपेक्षा करना ही श्रेयस्कर है। पुरुषों की भांति स्त्रियां भी गायत्री उपासना की परिपूर्ण अधिकारिणी हैं।