जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने धन-साधनों का अनुदान दूसरे अभाव-ग्रस्तों को दे सकता है, उसी प्रकार उपासना द्वारा अर्जित तप भी दूसरों के निमित्त उदारतापूर्वक किया जाता है। इसी प्रकार तप देने वाला जो कोष खोले होता है वह बदले में मिलने वाले पुण्य से फिर भर जाता है। दानी को पुण्य मिलता है। इस प्रकार वह एक वस्तु देकर बदले में दूसरी प्राप्त कर लेता है और घाटे में नहीं रहता। कष्ट पीड़ितों की व्यथा हरने वाला कोई व्यक्ति सत्प्रयत्नों को सफल बनाने के लिए, अपने जप-तप का दान देता रहे तो उसकी यह परमार्थ परायणता आत्मोन्नति में बाधक नहीं, सहायक ही सिद्ध होगी। वरदान, आशीर्वाद देने की परम्परा यही है। इसमें इतना ही ध्यान रखा जाय कि मात्र औचित्य को ही सहयोग दिया जाय। अनाचार को परिपुष्ट करने के लिए अपनाई गई उदारता भी प्रकारान्तर से स्वयं अनाचार करने की तरह ही पाप कर्म बन जाती है। इसलिए किसी की सहायता करते समय यह ध्यान भी रखना चाहिए कि इस प्रकार की सहायता से अनीति का पक्ष पोषण तो नहीं होता।
पैसा देकर बदले में कल्याण के निमित्त कराये गये जप, अनुष्ठानों में सफलता तभी मिलती है जब कि फीस पारिश्रमिक के रूप में नहीं वरन् कर्ता ने अनिवार्य निर्वाह के लिए न्यूनतम मात्रा में ही उसे स्वीकार किया हो। व्यवहार या लूट-खसोट की दृष्टि से मनमाना पैसा वसूल करने वाले लालची अनुष्ठान कर्ताओं का प्रयत्न नगण्य परिणाम ही प्रस्तुत कर सकता है।
अनुष्ठान आदि की विशिष्ट साधनाएं, चाहे स्वयं की गई हों या दूसरे किसी से कराई गई हों, उनमें हर हालत में तपश्चर्या के नियमों का पालन करना आवश्यक है। आहार की सात्विकता—ब्रह्मचर्य पालन—अपनी सेवा आप करना जैसे नियम हर अनुष्ठान कर्ता के लिए आवश्यक हैं, भले ही वह अपने निमित्त किया गया हो या दूसरे के लिए। इन नियमों का पालन न करने पर, मात्र जप-संख्या पूरी करने पर से अनुष्ठान का लाभ नहीं मिलता।
जहां तक हो सके अपनी साधना स्वयं ही करनी चाहिए। विपत्ति के समय वह दूसरे से भी कराई जा सकती है। पर उसकी आन्तरिक भावना और बाह्य आचरण प्रक्रिया साधु ब्राह्मण स्तर की ही होनी चाहिए। प्राचीन काल में ऐसे कृत्यों के लिए ब्राह्मण वर्ग के लोगों को महत्व दिया जाता था। उन दिनों के ब्राह्मण—ब्रह्म-तत्व के ज्ञाता—उच्च चरित्र और आचरण-व्यवहार में देवोपम रीति-नीति अपनाने वाले थे। इसलिए उनकी श्रेष्ठता स्वीकार की जाती थी और उन्हें देव कर्मों का उत्तरदायित्व सौंपा जाता था। आज वैसे ब्राह्मण मिलने कठिन हैं जो वंश से नहीं गुण-कर्म-स्वभाव की कसौटी पर अपने स्तर के अनुरूप खरे उतरते हों। विशिष्टता न रहने पर विशिष्ट स्तर एवं विशेष अधिकार भी नहीं रहता। आज की स्थिति में ब्राह्मण-अब्राह्मण का अन्तर कर सकना कठिन है। वंश और वेष की प्रभुता प्राचीन काल में भी अमान्य थी और आज भी अमान्य ही रहेगी।
जहां तक अनुष्ठान का—उससे सम्बन्धित यज्ञादि कर्मों का सम्बन्ध है, उसे स्वयं ही करना सर्वोत्तम है। यदि दूसरे से कराना हो तो वंश-वेष को महत्व न देकर किसी चरित्रवान, निर्लोभ, निष्ठावान, साधक प्रकृति के व्यक्ति से ही उसे कराना चाहिए। ऐसा व्यक्ति किस वंश या कुल का है इसका महत्व नहीं।