गायत्री-साधना के लिए यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, अथवा जो यज्ञोपवीत धारण करें वे ही गायत्री जपें, ऐसी चर्चाएं प्रायः चलती रहती हैं।
इस संदर्भ में इतना ही जानना पर्याप्त है कि यज्ञोपवीत गायत्री महामंत्र का प्रतीक है। उसके नौ धागों में, गायत्री मंत्र के नौ शब्दों में सन्निहित तत्वज्ञान भरा है। तीन लड़ें त्रिपदा गायत्री की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। तीन ग्रन्थियां तीन व्याहृतियां हैं। बड़ी ब्रह्मग्रन्थि को ऊंकार कहा गया है। इस प्रकार पूरा यज्ञोपवीत एक सूत का बना धर्मग्रन्थ है जिसको धारणकर्ता को मानवोचित रीति-नीति अपनाने का—अनुशासन सिखाने वाला अंकुश कह सकते हैं। इसे कन्धे पर धारण करने का तात्पर्य है गायत्री में सन्निहित सदाशयता को स्वीकार करना और उसे अपनाने की तत्परता का परिचय देना। शिवरात्रि पर गंगाजल की कांवर कन्धे पर रखकर चलने और शिव प्रतिमा पर चढ़ाने का उत्तर भारत में बहुत प्रचलन है। श्रवणकुमार ने अपने माता-पिता को कन्धे पर बिठाकर तीर्थयात्रा कराई थी। गायत्री-माता का अनुशासन कन्धे पर धारण करना—अपनाना ही यज्ञोपवीत धारण है। प्रकारान्तर से इसे शरीर पर गायत्री की सूत निर्मित प्रतिमा को धारण करना भी कह सकते हैं।
देव प्रतिमा के सान्निध्य में उपासना करने का अधिक महत्व है। किन्तु यदि कहीं देवालय न हो तो भी उपासना करने में कोई निषेध नहीं है। इसी प्रकार यज्ञोपवीत धारण करते हुए गायत्री जप किया जाय तो देव प्रतिमा के सान्निध्य में की जाने वाली उपासना की तरह अधिक उत्तम है। पर यदि किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण करना न बन पड़े, तो भी इस उपासना के करने में किसी प्रकार की रोक-टोक या अड़चन नहीं है।