प्रति दिन प्रातः सायं नियमित रूप से गायत्री उपासना का विधान है। उस नियमितता में कोई व्यतिरेक नहीं आने देना चाहिए। तन्मयता और एकाग्रता तो उपासना को सर्वांगपूर्ण बनाने के लिए अनिवार्य है ही। पर इतने मात्र से ही आत्मकल्याण की आवश्यकता पूरी नहीं हो जाती है। स्वास्थ्य संरक्षण के लिए दिन में दो या तीन बार भोजन करते हैं। शरीर के पोषण और स्वास्थ्य संरक्षण के लिए यह आवश्यक है, पर इतने मात्र से यह उद्देश्य पूर्ण नहीं हो जाता। इसके साथ ही श्रमशील जीवन जीने, दिनचर्या में और भी कई नियमों का समावेश करना आवश्यक हो जाता है। यदि इन आवश्यक बातों का ध्यान न रखा गया तो कितना ही पोष्टिक भोजन किया जाय, उससे पोषण और स्वास्थ्य संरक्षण की आवश्यकता पूरी नहीं होती। गायत्री उपासना थोड़े समय तक की जाती है लेकिन उसका पूरा लाभ तभी मिलता है जब जीवन-पथ में उपासना के साथ-साथ साधना का भी समावेश किया जाय।
पहलवान लोग शारीरिक शक्ति का संवर्धन करने के लिए पौष्टिक भोजन तो करते ही हैं लेकिन उसका अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए अधिकाधिक श्रम, व्यायाम, दण्ड, बैठक आदि भी करते हैं, तभी उसका समुचित लाभ मिलता है। जिन्हें गायत्री उपासना से अधिकाधिक लाभ उठाना है, उन्हें चाहिए कि वे उपासना के साथ साधनात्मक व्यायाम भी करें। यदि उपासना का स्तर अधिक ऊंचा कर दिया जाय, उसे साधना स्तर की बना दिया जाय तो उसका लाभ और भी अधिक मिलता है। साधना से आशय उपासना में निष्ठा का अधिकाधिक समावेश करना है। निष्ठा का समावेश संकल्प, दृढ़ता, अनुशासन और नियमितता के रूप में चरितार्थ होता है। निष्ठा के समावेश से संकल्प बढ़ता है, संकल्प से मनोबल, आत्मिक बल ऊंचा उठता है। यह मनोबल, संकल्प, दृढ़ता, समन्वित-निष्ठा साधक को कठोर अनुशासन में रहने के लिए प्रेरित और बाध्य करती है। यह अनुशासन, नियमानुवर्ती ही तपश्चर्या कहलाती है। अनुष्ठान साधनाओं में इन्हीं बातों की विशेष रूप से आवश्यकता पड़ती है। और यदि नियमित साधना में भी इन विशेषताओं का समावेश कर लिया जाय तो वह सामान्य उपासना क्रम भी अनुष्ठान स्तर का बन जाता है। अस्तु गायत्री उपासना का अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए उसमें नियम पालन, अनुशासन, निष्ठा, दृढ़ता और नियमितता का कड़ाई के साथ पालन करना चाहिए।