एक घण्टे में गायत्री मन्त्र की प्रायः ग्यारह मालाओं का जप सामान्य गति से पूरा हो जाता है। किन्हीं की गति कम हो सकती है और किन्हीं की ज्यादा भी, पर औसत गति यही मानी जा सकती है। इस प्रकार पन्द्रह माला जपने में लगभग डेढ़ घण्टा समय लगना चाहिए। यह सारा समय प्रातःकाल ही लग सके तो अधिक अच्छा है, अन्यथा इसे प्रातः सायं में दो बार भी पूरा किया जा सकता है। सायंकाल से तात्पर्य सूर्य अस्त होने का समय ही नहीं, उसके बाद में रात को सोते समय भी समझना चाहिए। काम पर लगने से पहले सुबह और काम से निवृत्त होने के बाद रात्रि को ही प्रायः समय मिलता है। यही दोनों समय उपासना के लिए सुविधाजनक हैं। अधिक रात्रि बीत जाने पर मुंह बन्द रखकर मानसिक जप द्वारा प्रातःकाल में बची हुई शेष मालाएं पूर्ण की जा सकती हैं। प्रयत्न यही करना चाहिए अधिकांश जप संख्या प्रातःकाल पूर्ण हो जाए। इसके लिए एक घन्टा सुबह और आधा घन्टा रात्रि में अथवा सवा घन्टा सुबह और पन्द्रह मिनट रात्रि में, इस प्रकार समय निर्धारित किया जा सकता है।
जप के समय गायत्री माता की छवि का अथवा निराकार साधक सविता देवता का मध्य भाग में ध्यान करे और भावना करे कि उसका दिव्य प्रकाश, स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर में प्रवेश कर उन्हें ज्योतिर्मय बना रहा है। उपासना के समय मन को पूरी तरह इष्ट छवि पर केन्द्रित रखना चाहिए, उसे इधर-उधर भटकने नहीं देना चाहिए और न ही दूसरे विचारों को मनःक्षेत्र में प्रविष्ट होने देना चाहिए।
इस प्रकार आत्म-कल्याण और आत्मोत्थान का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए की गई गायत्री साधना, अन्य साधनाओं की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली सिद्ध होती है। गायत्री साधना की विशेषता यह है कि उसके पीछे अगणित साधकों का तप बल छिपा हुआ है और साधक सूक्ष्म जगत के माध्यम से अनायास ही उनका सहयोग प्राप्त कर लेता है और सफलता की ओर अग्रसर होने लगता है। गायत्री साधना अपरा प्रकृति को पराप्रकृति में रूपांतरित करने के विज्ञान पर आधारित है। मनुष्य की पाशविक वृत्तियों के स्थान पर ईश्वरीय सत् शक्ति को प्रतिष्ठित करना ही अध्यात्म विज्ञान का कार्य है। तुच्छ को महान्, ससीम को असीम, अणु को विभु, बद्ध को मुक्त और पशु को देवत्व के स्तर तप पहुंचाना ही साधना का मुख्य उद्देश्य गायत्री के माध्यम से भली भांति निरापद ढंग से पूरा होता है।
पिछले जमाने में धार्मिक जगत में विकृतियों के बढ़ जाने तथा विज्ञान-जगत में नये-नये चमत्कार दृष्टिगोचर होने के कारण लोगों में अध्यात्म तथा ईश्वर पर अनास्था का भाव विशेष रूप से उत्पन्न हो गया था। कितने ही नव-शिक्षित व्यक्ति तो इसे मात्र अन्धविश्वास मानकर इसको देना बुद्धिहीनता का चिन्ह मानने लगे थे। पर अब विज्ञान के चरम सीमा पर पहुंच जाने के पश्चात् भी संसार की गतिविधियों में कोई आशाजनक कल्याणकारी लक्षण न देखकर उनकी विचारधारा बदलने लगी है। अब यह अनुमान किया जा रहा है कि संसार में केवल भौतिक-पक्ष ही सब कुछ नहीं है वरन् अध्यात्म-पक्ष को मान्यता मिलने से ही मनुष्य वास्तविक मानवता के समीप पहुंच सकेगा। गायत्री-साधना सर्वजनीन, सुगम, स्पष्ट और सरल है। इसका आश्रय लेकर हम अध्यात्म मार्ग में उल्लेखनीय प्रगति कर सकते हैं और मानवता के लक्ष्य को अपेक्षाकृत न्यून प्रयास से ही प्राप्त कर सकते हैं।