गायत्री मंत्र का किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार उच्चारण करें इस सन्दर्भ में कई बातें जानने योग्य हैं। गायन उच्चारण सस्वर किया जाता है। प्रत्येक वेद मन्त्र के साथ स्वर विधान जुड़ा हुआ है कि उसे किस लय, ध्वनि में,, किस उतार-चढ़ाव के साथ गाया जाय। वेद-मन्त्र को छन्द भी कहते हैं। वे सभी पद्य में हैं और गायन में जो स्वर लहरी उत्पन्न करते हैं उसका प्रभाव ध्वनि-तरंगें उत्पन्न करता है। वे तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में परिभ्रमण करती और सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। इसलिए सहगान में—यज्ञ-हवन में, मंगल प्रयोजनों में, शुभारम्भ में, गायत्री मन्त्र उच्चारण सहित—निर्धारित स्वर विधान के साथ—निर्धारित ध्वनि प्रक्रिया के साथ गाया जाता है। तीन वेदों में गायत्री मन्त्र का उल्लेख है। तीनों में स्वर-लिपी अलग-अलग है। इनमें से एक ही चुनना ठीक है। यजुर्वेदीय गान उच्चारण सर्व साधारण के लिए अधिक उपयुक्त है।
नियमित जप मन्द स्वर से किया जाता है। उसमें होंठ, कण्ठ, जीभ में स्पन्दन तो रहना चाहिए पर ध्वनि इतनी मन्द होनी चाहिए कि अन्य कोई उसे सुन समझ न सके। मात्र हलका गुंजन जैसा कुछ अनुभव कर सके।
यदि रास्ता चलते, बिना नहाये—काम-काज करते अनियमित जप करना हो तो होंठ, कण्ठ, जीभ सभी बन्द रखने चाहिए और मन ही मन ध्वनि-ध्यान की तरह उसे करते रहना चाहिए। ऐसी स्थिति में जो जप किया जाता है, उसकी माला के समान गणना नहीं की जाती। घड़ी देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी जप-गति क्या थी और कितने समय में कितना मानसिक जप हो गया होगा।