गायत्री विषयक शंका समाधान

अशौच में प्रतिबंध

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जन्म और मरण का सूतक तथा स्त्रियों का रजोदर्शन होने की अवधि को अस्पर्श जैसी स्थिति का माना जाता है। उन दिनों गायत्री उपासना भी बन्द रखने के लिए कहा जाता है। इसको औचित्य-अनौचित्य का विश्लेषण करने से पूर्व यह जान लेना चाहिए कि सूतक एवं रजोदर्शन के समय सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रथक रखने का कारण उत्पन्न हुई अशुद्धि की छूत से अन्यों को बचाना है। साथ ही इन अव्यवस्था के दिनों में उन्हें शारीरिक, मानसिक श्रम से बचाना भी है। यही सभी बातें विशुद्ध रूप से स्वच्छता-नियमों के अन्तर्गत आती हैं। अस्तु प्रतिबन्ध भी उसी स्तर के होने चाहिए, जिससे अशुद्धता का विस्तार न होने पाये। विपन्न स्थितियों में फंसे हुए व्यक्तियों पर से यथासम्भव शारीरिक, मानसिक दबाव कम करना इन प्रतिबन्धों का मूलभूत उद्देश्य है।

भावनात्मक उपासना क्रम इन अशुद्धि के दिनों में भी जारी रखा जा सकता है। विपन्नता की स्थिति में ईश्वर की शरणागति, उसकी उपासनात्मक समीपता हर दृष्टि से उत्तम है। उन दिनों यदि प्रचलित छूत परम्परा को निभाना हो तो इतना ही पर्याप्त है कि पूजा उपकरणों का स्पर्श न किया जाय। देवपूजा का विधान-कृत्य न किया जाय। मानसिक उपासना में किसी भी स्थिति में कोई प्रतिबन्ध नहीं है। मुंह बन्द करके—बिना माला का उपयोग किये, मानसिक, जप, ध्यान इन दिनों भी जारी रखा जा सकता है। इससे अशुद्धि का भाव हलका होने में भी सहायता मिलती है।

सूतक किसको लगा, किसको नहीं लगा, इसका निर्णय इसी आधार पर किया जा सकता है कि जिस घर में बच्चे का जन्म या किसी का मरण हुआ है, उसमें निवास करने वाले प्रायः सभी लोगों को सूतक लगा हुआ माना जाय। वे भले ही अपने जाति-गोत्र के हों या नहीं। पर उस घर से अन्यत्र रहने वाले—निरन्तर सम्पर्क में न आने वालों पर सूतक का कोई प्रभाव नहीं हो सकता, भले ही वे एक कुटुम्ब-परम्परा या वंश, कुल के क्यों न हों। वस्तुतः सूतक एक प्रकार की अशुद्धि-जन्य छूत है, जिसमें संक्रामक रोगों की तरह सम्पर्क में आने वालों को लगने की बात सोची जा सकती है यों अस्पतालों में भी छूत या अशुद्धि का वातावरण रहता है, पर सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों अथवा साधनों को उससे बचाने की सतर्कता रखने पर भी सम्पर्क और सामंजस्य बना ही रहता है। इतना भर होता है कि अशुद्धि के सम्पर्क के समय विशेष सतर्कता रखी जाय। जन्म-मरण के सूतकों के विषय में भी इसी दृष्टिकोण से विचार किया जाना चाहिए। पूजापरक कृत्यों में स्वच्छता का विशेष ध्यान रखने का नियम है। इसी से उन दिनों नियमित पूजा-उपचार में प्रतिमा, उपकरण आदि का स्पर्श न करने की प्रथा चली होगी। उस प्रचलन का निर्वाह न करने पर भी मौन-मानसिक जप, ध्यान आदि व्यक्तिगत उपासना का नित्यकर्म करने में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं पड़ता।

महिलाओं के रजोदर्शन काल में भी कई प्रकार के प्रतिबन्ध हैं, वे अछूत की तरह रहती हैं। भोजन आदि नहीं पकाती। उपासनागृह में भी नहीं जातीं। इसका कारण मात्र अशुद्धि ही नहीं, यह भी है कि उन दिनों उन पर कठोर श्रम का दबाव न पड़े। अधिक विश्राम मिल सके। नस-नाड़ियों में कोमलता बढ़ जाने से उन दिनों अधिक कड़ी मेहनत न करने की व्यवस्था स्वास्थ्य के नियमों को ध्यान में रखते हुए बनी होगी। इन प्रचलनों को जहां माना जाता है वहां कारण को समझते हुए भी प्रतिबन्ध किस सीमा तक रहें इस पर विचार करना चाहिये। रुग्ण व्यक्ति प्रायः स्नान आदि के सामान्य नियमों का निर्वाह नहीं कर पाते और ज्वर, दस्त, खांसी आदि के कारण उनकी शारीरिक स्थिति में अपेक्षाकृत अधिक मलीनता रहती है। रोगी परिचर्या के नियमों से अवगत व्यक्ति जानते हैं कि रोगी की सेवा करने वालों या सम्पर्क में आने वालों को सतर्कता, स्वेच्छा के नियमों का अधिक ध्यान रखना पड़ता है। रोगी को भी दौड़-धूप से बचने और विश्राम करने की सुविधा दी जाती है। उसे कोई चाहे तो छूतछात भी कह सकते हैं। ऐसी ही स्थिति रजोदर्शन के दिनों में समझी जानी चाहिए और उसकी सावधानी बरतनी चाहिए।

तिल को ताड़ बनाने की आवश्यकता नहीं है। कारण और निवारण का बुद्धिसंगत ताल-मेल विवेकपूर्वक बिठाने में ही औचित्य है। शरीर के कतिपय अंग द्रवमल विसर्जन करते रहते हैं। पसीना, मूत्र, नाक, आंख आदि के छिद्रों से निकलने वाले द्रव भी प्रायः उसी स्तर के हैं जैसा कि ऋतुस्राव। चोट लगने पर भी रक्त निकलता रहता है। फोड़े फूटने आदि से भी प्रायः वैसी ही स्थिति होती है। इन अवसरों पर स्वच्छता के आवश्यक नियमों का ध्यान रखा जाना चाहिए। बात का बतंगड़ बना देना अनावश्यक है। प्रथा-प्रचलनों में कई आवश्यक हैं कई अनावश्यक। कइयों को कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए और कइयों की उपेक्षा की जानी चाहिए। सूतक और अशुद्धि के प्रश्न को उसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए जिससे कि प्रचलन कर्ताओं ने उसे आरम्भ किया था। उनका उद्देश्य उपासना जैसे आध्यात्मिक नित्यकर्म से किसी को विरत, वंचित करना नहीं वरन् यह था कि अशुद्धता सीमित रहे, उसे फैलने का अवसर न मिले। आज भी जहां अशौच का वातावरण है वहीं सूतक माना जाय और शरीर से किये जाने वाले कृत्यों पर ही कोई रोकथाम की जाय। मन से उपासना करने पर तो कोई स्थिति बाधक नहीं हो सकती। इसलिए नित्य की उपासना मानसिक रूप से जारी रखी जा सकती है। पूजा-उपकरणों का स्पर्श न करना हो तो न भी करे।

यदि सूतक या अशौच के दिनों में अनुष्ठान चल रहा हो तो उसे उतने दिन के लिए बीच में बन्द करके, निवृत्ति के बाद, जिस गणना से छोड़ा था, वहीं से फिर आरम्भ किया जा सकता है। बिना माला का मानसिक जप-ध्यान किसी भी स्थिति में करते रहा जा सकता है।
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