गायत्री जप बिना स्नान किये भी हो सकता है या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर में समझा जाना चाहिए कि प्रत्येक अध्यात्म प्रयोजन के लिए शास्त्रों में शरीर को स्नान से शुद्ध करके और धुले हुए कपड़े पहन कर बैठने का विधान है। अधिक कपड़े पहनने पर सभी कपड़े नित्य धुले हुए हों, यह व्यवस्था करना कठिन पड़ता है। इसलिए धोती-दुपट्टा पहन कर बैठने की परम्परा है। ठंड लगती हो तो बनियान आदि पहन सकते हैं। पर वे भी धुले ही होने चाहिए। यह पूर्ण विधान हुआ।
अब कठिनाई वश इस व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न होने पर क्या करना चाहिए? इसका उत्तर यह है कि शास्त्रकारों ने कठिनाई की स्थिति में लचीली नीति रखी है। ऐसे कड़े प्रतिबन्ध नहीं लगाये जिनके कारण स्नान एवं धुले वस्त्र की व्यवस्था न बन पड़ने पर जप जैसा पुनीत कार्य भी बन्द कर दिया जाय। इसमें तो दुहरी हानि हुई। नियम इसलिए बने थे कि उपासना काल में अधिकतम पवित्रता रखने का प्रयत्न किया जाय। यदि नियम इतना कड़ा हो जाय कि स्नानादि न बन पड़ने पर जप, साधना का पुण्य उपार्जन ही बन्द हो जाय तब तो बात उलटी हो गई। नियमों की कड़ाई ने ही साधना, उपासना कृत्य से वंचित करके कठिनाई का हल निकालने के स्थान पर, रही बची संभावना भी समाप्त कर दी। जो आधा-अधूरा लाभ मिल सकता था उसकी सम्भावना भी समाप्त हो गई।
शास्त्र-विधान यह है कि शरीर, वस्त्र, पात्र, उपकरण, पूजा सामग्री, देव प्रतिमा, आसन, स्नान आदि सभी को अधिकतम स्वच्छ बनाकर उपासना कृत्य करने पर जोर दिया जाय। इसमें आलस्य, प्रमाद को हटाने और स्वच्छता को उपासना का अंग मानने की बात कही गई है। फिर भी कारणवश ऐसी कठिनाइयां हो सकती हैं जिनमें साधक की मनःस्थिति और परिस्थिति पर ध्यान देते हुए विधान-प्रक्रिया को उस सीमा तक ढीला किया जाय, जितना किये बिना गाड़ी रुक जाने का खतरा हो। स्वच्छता की नीति पूरी तरह तो समाप्त नहीं करनी चाहिए, पर जहां तक अधिकाधिक सम्भव हो उतना करने-कराने की ढील देकर क्रम को किसी प्रकार गतिशील रखा जा सकता है।
रुग्णता, दुर्बलता से ग्रसित व्यक्ति स्नान की सुविधा न होने पर हाथ-पर, मुंह धोकर काम चला सकते हैं। गीले तौलिये से शरीर को पोंछ लेना भी आधा स्नान माना जाता है। वस्त्र धुले न हों तो ऊनी कपड़े पहन कर यह समझा जा सकता है कि उनके धुले न होने पर भी काम चल सकता है। यों मैल और पसीना तो ऊन को भी स्पर्श करता है और उन्हें भी धोने की या धूप में सुखाने की आवश्यकता पड़ती है। पर चूंकि उनके बाल गन्दगी को अपने अन्दर नहीं सोखते वह बाहर ही चिपकी रह जाती है। इस दृष्टि से उसमें अशुद्धि का सम्पर्क कम होने के कारण बिना धुले होने पर भी ऊनी कपड़े पवित्र माने जाते हैं। यो स्वच्छता की दृष्टि से वे भी ऐसे नहीं होते कि बिना धुले होने पर भी सदा प्रयुक्त किये जाते और स्वच्छ माने जाते रहें। इसलिए इतना ही कहा जा सकता है कि व्यक्ति की असुविधा को ध्यान में रखते हुए शरीर और वस्त्रों की स्वच्छता के सम्बन्ध में उतनी ही छूट देनी चाहिए जिसके बिना काम न चलता हो। अश्रद्धा, उपेक्षा, आलस्य, प्रमाद वश स्वच्छता को अनावश्यक मानना और ऐसे ही मनमानी करना उचित नहीं।
रेशमी वस्त्रों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही मान्यता है कि उन्हें धोने की आवश्यकता नहीं। वे बिना धोये ही शुद्ध होते हैं यह मान्यता गलत है। सूत जितनी सोखने की शक्ति न होने से अपेक्षाकृत उसमें अशुद्धि का प्रवेश कम होता है, यह तो माना जा सकता है पर उसे सदा सर्वदा के लिए पवित्र मान लिया जाय और धोया ही न जाय, यह गलत है। धोने के समय को सूती कपड़े की अपेक्षा कुछ अधिक किया जा सकता है, इतना भर ही माना जाना चाहिए। धोया उसे भी जाय।
रेशम के कपड़े पूजा में प्रयुक्त करते समय प्राचीन काल की और आज की परिस्थिति के अन्तर को भी ध्यान में रखना होगा। प्राचीन काल में कीड़े बड़े होकर जब उड़ जाते थे तब उसके छोड़े हुए खोखले ही से रेशम निकाला जाता था। यह अहिंसक उपलब्धि थी। पर आज तो अधिकांश रेशम जीवित कीड़ों को पानी में उबाल कर उनका खोखला उपलब्ध करके प्राप्त किया जाता है। इसमें मारने वालों की तरह पहनने वाले भी अहिंसा के नियम का उल्लंघन करने के दोषी बनते हैं। इस प्रकार अहिंसा युक्त तरीके से प्राप्त हुआ रेशम पूजा उपचार में तो निषिद्ध ही माना जाय। अच्छा तो यह है कि उनका उपयोग सामान्य पहनने के लिए भी न किया जाय।
पशु चर्म के आसनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि जंगलों में रहते थे। वहां अपनी मौत से मरे हुए वन्य पशुओं का चमड़ा जहां-तहां आसानी से उपलब्ध होता रहता था। आच्छादन के अन्य साधन उन दिनों वनवासी लोगों के लिए सहज उपलब्ध भी न थे। ऐसी दशा में उनके लिए आच्छादन में मृग, सिंह, व्याघ्र आदि का आसन, आच्छादन प्रयुक्त करना उचित था। पर आज तो जितना भी पशु चर्म उपलब्ध होता है उसमें 99 प्रतिशत वध किए गये पशुओं का ही होता है। इस प्रकार हिंसा पूर्वक प्राप्त किये गये चमड़े और मांस में कोई अन्तर नहीं पड़ता। आज जब आसन के लिए ऊनी, सूती, कुशा, चटाई आदि के अनेक प्रकार के बिना हिंसा के प्राप्त आसन सर्वत्र उपलब्ध हैं, तो फिर पशुचर्म का उपयोग करने की क्या आवश्यकता? अहिंसक विधि से बनने वाले आसन ही उपयुक्त हैं। इस दृष्टि से कुशासन को अधिक पवित्र मानने की परम्परा ही अधिक उपयुक्त है। धोना न बन पड़े तो भी धूप में सुखाकर आच्छादनों को पवित्र करने का शुद्धि कृत्य तो चलते ही रहना चाहिए। स्नान में जितनी शिथिलता अनिवार्य हो उतनी ही कमी करना चाहिए। जितना अधिक बन पड़े उसी का प्रयत्न करना चाहिए।
उपासना काल के मध्य में यदि मूत्र विसर्जन के लिए जाना पड़े तो हाथ-पैर धोकर फिर बैठा जा सकता है। छींक, अपानवायु, जम्हाई आदि आने पर तीन आचमन कर लेने से शुद्धि हो जाती है। बीच में शौच जाना पड़े तो स्नान अनिवार्य नहीं। जितना बन पड़े हाथ, पैर, मुंह धो लेने आदि से भी काम चल सकता है।