गायत्री विषयक शंका समाधान

साधना की पूर्णाहुति

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
गायत्री और यज्ञ का अनिवार्य सम्बन्ध है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है तो यज्ञ को संस्कृति का पिता। भारतीय धर्मानुयायियों के जीवन में यज्ञ का बड़ा महत्व है। कोई भी कार्यक्रम बिना यज्ञ के पूरा नहीं होता। साधनाओं में तो हवन और भी अनिवार्य है। जितने भी पाठ, पुरश्चरण, जप, साधन किये जाते हैं वे चाहे वेदोक्त हों चाहे तांत्रिक उनमें किसी न किसी रूप में यज्ञ, हवन अवश्य करना पड़ता है। प्रत्येक कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, पर्व, त्यौहार, उत्सव, उद्यापन सभी में यज्ञ अवश्य करना पड़ता है। इस प्रकार गायत्री उपासना में भी हवन आवश्यक है। अनुष्ठान या पुरश्चरण में जप से दसवां भाग हवन करने का विधान है। यदि इतना न बन पड़े तो शतांश [सौवां भाग] हवन करना चाहिए। गायत्री उपासना के साथ यज्ञ का युग्म बनता है। गायत्री को माता और यज्ञ को पिता माना गया है। इन्हीं दोनों के संयोग से मनुष्य का आध्यात्मिक जन्म होता है, जिसे द्विजत्व कहते हैं। द्विज का अर्थ है दूसरा जन्म। जैसे अपने शरीर को जन्म देने वाले माता, पिता की सेवा पूजा करना मनुष्य का कर्तव्य है, उसी प्रकार गायत्री माता और यज्ञ पिता की पूजा भी प्रत्येक द्विज का आवश्यक धर्म कर्तव्य है। यह नहीं सोचना चाहिए कि सामान्य और नियमित उपासना क्रम में यज्ञ की कोई आवश्यकता नहीं है। यज्ञ को प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक नित्य कर्म माना गया है। यह बात अलग है कि लोग उसका महत्व एवं विधान भूल गये हैं और केवल चिन्ह पूजा करके काम चला लेते हैं। घरों में स्त्रियां किसी रूप में यज्ञ की चिन्ह पूजा करती हैं। त्यौहारों या पर्वों पर अग्नि को जिमाने या अज्ञारी करने का कृत्य प्रचलित है। थोड़ी-सी अग्नि को लेकर, घी डालकर उसे प्रज्वलित करना और उस पर पकवान के छोटे-छोटे ग्रास चढ़ाना तथा फिर अग्नि से जल की परिक्रमा करा देना, यही प्रक्रिया प्रत्येक घर में पर्व एवं त्यौहारों पर सम्पन्न होते देखी जा सकती है। शास्त्रों में बलिवैश्व का नित्य विधान है। प्रतिदिन भोजन बनने के बाद बलिवैश्व के लिए अग्नि में आहुति देनी होती है।

इस प्रकार यज्ञ को कहीं भी अनावश्यक नहीं माना गया है, बल्कि उसे तो और भी आवश्यक अनिवार्य बताया गया है। अस्तु अभियान साधना में निरत साधकों को अपने अनुष्ठान की पूर्णाहुति यज्ञ से करना चाहिए और फिर अगला अनुष्ठान आरम्भ करना चाहिए। यज्ञ छोटा करना हो तो उसमें अपने परिवार के लोगों को सम्मिलित किया जा सकता है और एक कुण्ड का अग्निहोत्र किया जा सकता है। सब लोगों द्वारा मिलकर की गई 2400 आहुतियां देने से भी काम चल सकता है। बड़ा रूप देना हो तो पड़ोसी सम्बन्धी मित्रों को भी सम्मिलित करके पांच कुण्डी आयोजन का रूप दिया जा सकता है। उसे हवन में सम्मिलित आहुतियां पांच हजार भी हो सकती हैं। अलग से प्रबन्ध न करना हो तो किसी बड़े सामूहिक आयोजन में भी पूर्णाहुति का नारियल चढ़ाया जा सकता है।

वस्तुतः अभियान साधना एक प्रकार का अनुष्ठान ही है, जो एक वर्ष की अवधि में पूरा होता है। अवधि लम्बी होने से उसमें अनुशासन की सफलताएं रखी गई हैं। सामान्य साधक इसे बिना किसी कठिनाई के सरलता पूर्वक पूर्ण कर सकते हैं। पूर्णाहुति के अवसर पर ब्रह्मभोज के रूप में अर्थदान का भी माहात्म्य है। मात्र शारीरिक और मानसिक श्रम ही पर्याप्त नहीं, उसके साथ अर्थदान भी आवश्यक है। यज्ञ के रूप में कुछ पैसा खर्च होता है, कुछ ब्रह्मभोज के रूप में करना चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में ब्रह्मदान ही ब्रह्मभोज का विकल्प हो सकता है। ब्रह्मदान अर्थात् गायत्री साहित्य का सत्पात्रों को प्रचार के रूप में वितरण। इसके लिए कुछ राशि श्रद्धापूर्वक संकल्पित करनी चाहिए। प्रसाद वितरण में मिठाई बांटने की अपेक्षा ज्ञान सामग्री देने की व्यवस्था अधिक उपयुक्त है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118