कहीं-कहीं ऐसे विधान मिलते हैं कि गायत्री मंत्र के साथ एक से अधिक ॐकारों का प्रयोग करना चाहिए। कोई तीन और कोई पांच ॐकार लगाने की भी बात कहते हैं। आदि में, मध्य में—अन्त में, तीन चरणों में से प्रत्येक के पहले—व्याहृतियों के बाद एक या अधिक ॐकार लगाने की बात कही जाती है। इसके लिए यत्र-तत्र के उल्लेख भी उपस्थित किये जाते हैं।
मतमतान्तरों ने यह भिन्नता किस प्रकार प्रस्तुत की इसकी सही जानकारी तो नहीं मिल सकी, पर ऐसा प्रतीत होता है कि तिलक छाप में अन्तर करके जिस प्रकार अपने सम्प्रदाय की जानकारी कराई जाती है—वेष, वस्त्र आदि से अपने वर्ग का परिचय सर्व साधारण को कराया जाता है, सम्भवतः उसी प्रकार गायत्री जप में न्यूनाधिक ॐकारों का प्रयोग करने की प्रथा चलाई होगी।
साधारणतया प्रत्येक वेदमन्त्र से पूर्व उसके सम्मान का बोध कराने के लिए एक ‘ॐ’ लगाने का विधान है। जिस प्रकार किसी के नाम का उल्लेख करने से पूर्व ‘श्री’—‘श्रीमती’—‘मिस्टर’—‘कुमारी’ आदि लिखने का, उसके प्रति सम्मान प्रकट करने का शिष्टाचार प्रचलित है, उसी प्रकार प्रत्येक वेदमन्त्र से पूर्व ‘ॐ’ लगाते हैं। तीन व्याहृति आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण और एक ऊंकार—बस इतना ही गायत्री मन्त्र है और वही पूर्ण भी है। जप, यज्ञ आदि में इसी परिपूर्ण मन्त्र का उपयोग होना चाहिए। गुरुमंत्र गायत्री का इतना ही स्वरूप है। विशिष्ट साधना और नित्य कर्म में इतना ही मंत्र-भाग प्रयुक्त होता रहा है। अधिक संख्या में ‘ॐकारों’ का प्रयोग करना सम्भवतः सम्प्रदाय विशेषों में अपनी प्रथकता सिद्ध करने की दृष्टि से ही चला है।
‘ॐ’ भगवान का सर्वोत्तम नाम है। उसका अधिक बार गायत्री मंत्र के साथ उपयोग कर लेने में भी कोई हानि नहीं। इसलिए जिन्हें अधिक बार ‘ॐ’ लगाने का मन है, उन्हें रोकने की भी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इसमें अनुचित जैसी कोई बात दिखाई नहीं पड़ती। जहां तक सार्वभौम व्यवस्था—एक रूपता—समस्वरता एवं शास्त्रीय परम्परा का प्रश्न है, वहां मंत्र के आरम्भ में एक बार ‘ॐ’ लगाना ही अधिक सही कहा जायगा।