एक राजा था। उसकी नेक नीयती की सर्वत्र धूम मची थी। वह जब गद्दी पर बैठा, तो लोगों ने खूब खुशियाँ मनायी । सबने सोचा-इस बार प्रजा का पग-पग पर न्याय मिलेगा और अन्यायी दण्ड के भागी बनेंगे। सब उसकी बढ़-चढ़कर प्रशंसा करने लगे।
दुर्भाग्यवश सत्ता संभालते ही राज्य में चोरियों की बाढ़ आ गयी। राजा के पास लगातार शिकायतें आने लगी। वह उत्तेजित होकर बोलता कि जिस भी अपराधी को पकड़ा जायेगा उसकी सजा मृत्युदण्ड होगी, ताकि फिर कोई ऐसा दुस्साहस न कर सके। संयोग से एक बार दो चोर पकड़े गये । दरबार में उन्हें पेश किया गया। राजा ने दोनों को मृत्युदण्ड सुनाया। कुछ दिन बाद पुनः वे ही चोर, चोरी करते पकड़े गये। लोग भारी असमंजस में थे कि जब उन्हें फाँसी हो गयी, तो फिर जीवित कैसे हैं? पुनः उनको उनको राजसभा में प्रस्तुत किया गया और राजा से फाँसी की बात बतायी गयी।
राजा ने गंभीर होते हुए कहा कि उनके शरीरों की अन्त्येष्टि तो उसके ही समक्ष कर दी गयी। अतः उनके जिंदा रहने का सवाल नहीं। निश्चय ही यह उनकी मृतात्मा है। चोरी की उनकी आदत प्रेतयोनि में भी नहीं छूट सकी है। उन्हें कारावास में डाल दिया गया। पर अगले दिन वे फिर वे घूमते-फिरते नजर आये। अगली बार दूसरे चोर पकड़े गये। राजाज्ञा के अनुसार उन्हें भी फाँसी हुई। कुछ दिन पश्चात् वे भी घूमते देखे गये। शिकायत राजा के पास पहुँची। राजा ने बनावटी गंभीरता के साथ फिर पुरानी बात दुहरा दी।
मंत्री राजा की चाल समझता था। उसे भली-भाँति ज्ञात था कि धूर्त राजा घूस लेकर प्रजा को लुटवा रहा है और प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही है। उससे इससे मुक्ति का उपाय सोचा। राजा से कहा कि उसकी हत्या का षड्यंत्र रचा जा रहा है। अतः कुछ दिन दरबार में न आये। राजा ने उनकी बात मान ली। इसी बीच मंत्री ने उसकी मृत्यु की घोषणा करवा दी। एक सप्ताह बाद जब राजा राजसभा में पधारें, तो मंत्री ने सभासदों को सूचित किया कि प्रतिनिधि के रूप में राजसिंहासन पर जो राजा की मृतात्मा ही बैठेगी। पर संचालन कार्य अब मैं संभालूंगा । भरे दरबार में उसने क्षमा-याचना की ओर आगे से प्रजा के प्रति ईमानदार रहने का वचन दिया। जैसे को तैसा की नीति ही उचित है।