गायत्री परिवार की स्थापना का मूलभूत आधार - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

October 1997

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(सितम्बर, 1973 में शान्तिकुञ्ज परिसर में दिए गये उद्बोधन का अविरल अंश) - (पूर्वार्द्ध)

गायत्री महामंत्र हमारे साथ साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों । ईश पूजन की आवश्यकता के बारे में मैं आपको हमेशा से कहता और बताता चला आ रहा हूँ । पूजा की आवश्यकता हमेशा पड़ेगी ओर पग-पग पर पड़ती रहेगी। पूजा के खिलाफ मुसलमान सबसे ज्यादा हैं। मुसलमान सर्वप्रथम जब हिन्दुस्तान में आये और हिन्दुस्तान में आकर उन्होंने मन्दिरों को तहस नहस कर डाला। सोमनाथ के मन्दिर को तोड़-फोड़ कर उन्होंने फेंक दिया। श्री रामचन्द्रजी का मन्दिर अयोध्या में बना हुआ था, उसे भी तोड़-फोड़ कर फेंक दिया। कृष्ण भगवान का मन्दिर मथुरा में बना हुआ था, तोड़-फोड़ कर फेंक दिया। उनका ख्याल था कि व्यक्ति को मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिए। उनका ये ख्याल था कि पृथ्वी को हम मन्दिर विहीन कर देंगे। अंत तक मूर्ति-पूजा न करने की बात पर वे कायम रहे। मक्काशरीफ में आप जाइए, वहाँ एक ‘संगे अवसद’ नाम का पत्थर रखा हुआ है। वह काले रंग का है। जो कोई भी मुसलमान काबा में जाता है, मक्का मदीना में जाता है, हज करने के लिए, तो उसको पत्थर के सामने इजरा करना होता है और बोसा लेना पड़ता है, चुम्बन लेना पड़ता है। अगर चुम्बन नहीं लिया, बोसा नहीं लिया, उस काले रंग के पत्थर का तो, उनकी हज यात्रा निरर्थक हो जायेगी। वह जो उनकी इबादत है ओर हज है वह खत्म हो जाएगी। यह क्या बात हो गयी ? हमने भी अपने गोल मटोल शंकर जी बनाये थे और शालिग्राम जी बनाए थे, उन्होंने चौड़ा वाला पत्थर बना दिया। मूर्ति पूजा से पिण्ड कहाँ छूटा? किसी का भी नहीं छूट सकता। मूर्ति-पूजा की खिलाफत आर्य समाज वाले भी करते हैं। आर्य समाज वाले मूर्ति-पूजा को नहीं मानते, लेकिन उनके यहाँ भी स्वामी दयानन्द की मूर्ति लगी हुई है। स्वामी दयानन्द की मूर्ति को उतार कर हम यदि उसका अपमान करने लगे तो क्या किसी आर्य समाज को यह अच्छा लगेगा ? जबान से भले ही न कहे, लेकिन बाद में बहुत गालियाँ देगा और लड़ने आयेगा और कहेगा कि आपने हमारे स्वामी जी का क्यों अपमान किया ? उनकी फोटोग्राफ या तस्वीर अगर हम ले आये और उनका अपमान करने लगे तो क्या कोई आर्य समाजी बर्दाश्त करेगा ? नहीं करेगा, उसको बहुत बुरा लगेगा। उसके चेहरे से आप देख सकते हैं।

यह क्या हो गया ? यह प्रतीक पूजा हो गयी- कम्यूनिस्ट पार्टी वाले इस बात को नहीं मानते कि कोई भगवान है और कोई पूजा है और कोई मन्दिर होना चाहिए। वे भगवान की बात पर यकीन नहीं करते और मूर्ति-पूजा को नहीं मानते, लेकिन उनका लाल झण्डा क्या है ? लाल झण्डे को अगर हम उनके सामने जलाएँ तो वह कम्यूनिस्ट हमसे लड़ने आएँगे ओर यह कहेंगे कि आपने हमारा लाल झण्डा क्यों जला दिया ? भाई वह तुम्हारा कौन था, हमने अपने पैसे देकर खरीदा था। हमने इसे वहाँ लगाया था। हमने दियासलाई लगा दी। हमने इसका अपमान कर दिया, फिर तुम्हें इससे क्या शिकायत ? तुम्हें इससे क्या लेना देना ? वाह! लेना-देना क्यों नहीं ? यह अन्तर्राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट पार्टी का झंडा है, आपने इसे जला दिया और खाक कर दिया। कम्यूनिस्ट हमसे लड़े बिना नहीं रहेंगे। और राष्ट्रीय विचार धारा के लोग काँग्रेस के लोग जिन्होंने झण्डे के लिए कितनी ज्यादा कुर्बानियाँ दी, बलिदान दिया। उन दिनों पटना के हाईकोर्ट के ऊपर विद्यार्थी झण्डा लगाने के लिए जा रहे थे। और गवर्नमेंट ने मना किया और कर्फ्यू लगाया और कहा आपको नहीं जाना चाहिए। विद्यार्थी नहीं माने उन्होंने कहा-हमारे देश का झण्डा हाईकोर्ट पर अवश्य फहराया जायेगा। विद्यार्थी चले जा रहे थे। सिपाहियों ने कहा अच्छा आप जायेंगे, तो हम गोलियों से भून देंगे। उन्होंने कहा आप गोलियों से भून दीजिए। वे सात विद्यार्थी थे, पटना में मारे गये और जिनका अभी भी स्मारक बना हुआ है झण्डे के लिए। झण्डे से क्या फायदा ? झण्डा तो एक रुपये का था, बारह आने का था और जान कितनी कीमती थी ? झण्डे के लिए उसने क्यों खर्च कर डाला ? झण्डे के लिए क्यों आपने नुकसान उठाया, कष्ट उठाया ? झण्डे की बात नहीं है। उसके पीछे जो भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, जो हमारे प्रतीक जुड़े हुए हैं, वे बड़े कीमती हैं।

हमारी मूर्तियाँ जो हमारे मन्दिरों में स्थापित है, गीता की पुस्तक और भागवत् की पुस्तक जिनको हम सिर पर रखकर जुलूस निकालते हैं और गुरु ग्रन्थ साहब, जिसके सामने हम मत्था टेकते हैं, वेद की पुस्तक जिनका हम जुलूस निकालते हैं- ये सब हमारे प्रतीक पूजन हैं और प्रतीक पूजन बड़ा आवश्यक है। मैं तो प्रतीक-पूजन की हिमायत करता रहा हूँ। प्रतीकों की स्थापना मैंने जिन्दगी भर की है। गायत्री तपोभूमि पर भी की। गायत्री माता वहाँ विद्यमान् हैं और यहाँ पर गायत्री स्थापित हैं। अखण्ड ज्योति कार्यालय में जहाँ हम रहते थे, वहाँ भी दीपक के रूप में गायत्री माता की फोटोग्राफ और तस्वीर के रूप में हमारा प्रतीक स्थापित है, पर मैं कई बार इन चीजों के बारे में आपको बुरा भला कहता हूँ। यह क्यों कहता हूँ ? प्रतीकों का कई बार मजाक उड़ाता हूँ क्यों ? प्रतीकों का मजाक मैं इसलिए उड़ता हूँ कि प्रतीकों के बारे में मैं बार-बार गरम बात इसलिए कहने लगता हूँ कि आपने प्रतीक को सबकुछ मान लिया है। प्रतीक ही सबकुछ नहीं है। वे रेलवे लाइन पर खड़े हुए सिगनल की तरीके से है जो हमको यह बताते हैं कि हमको कहाँ चलना चाहिए और कहाँ जाना चाहिए। मूर्ति को आप मानकर चलेंगे कि ये सब सामर्थ्यवान हैं और ये सर्वसमर्थ हैं तो हम नाराज होंगे। तब हम आपसे कहेंगे कि यह गीता की पुस्तक की तरीके से हैं। श्रीकृष्ण भगवान का ज्ञान जो उन्होंने अर्जुन को दिया था, उस सारे के सारे ज्ञान को हमने कैद कर रखा है- पकड़ करके रखा है, ढाई आने वाली किताब में, जिसे गीता की किताब कहते हैं। गीता की पुस्तक में तो ज्ञान भरा हुआ है परन्तु अगर आप ये कहेंगे कि नहीं साहब, हमको ज्ञान से क्या लेना देना है। हम तो इसी पुस्तक की आरती उतारेंगे, इसी को हम जय बोलेंगे, इसी की हम कल्पना करेंगे, इसी को हम दीपक दिखायेंगे। वह जो श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को ज्ञान बताया था उससे हम कोई ताल्लुक नहीं रखेंगे, तो मैं आपसे नाराज होऊँगा ओर यह कहूँगा कि आपने अपनी गीता का मूल्य नहीं समझा, महत्व नहीं समझा। आप तो खिलौने के पत्थर न जाने किन-किन बातों को लेने लगे। मैं हमेशा यह चाहता रहा हूँ कि मेरे समझाने का मतलब आपकी समझ में आना चाहिए। जब आप यह कहेंगे कि हम इसको सब कुछ मानते हैं कि बद्रीनारायण वाले श्रीकृष्ण भगवान बड़े जबरदस्त हैं। उन्हीं को लेकर हम बैकुण्ठ को चले जायेंगे ओर वहाँ जो वृन्दावन में रहते हैं, वह निकम्मे है, बेकार हैं, उनमें कोई ताकत नहीं है। बद्रीनारायण वाले भगवान में बड़ी ताकत है तो मैं नाराज होऊँगा और कहूँगा आप मूर्ति पूजा का महत्व नहीं जानते, रहस्य नहीं जानते। जहाँ कहीं भी बद्रीनारायण, जहाँ कहीं भी श्रीकृष्ण भगवान हैं चाहे वह आपके मकान पर रखें हुए हों, चाहे बद्रीनाथ, चाहे वृन्दावन में रखे हुए हो, कहीं भी रखे हुए हों, आप ये मत कहिए कि वृन्दावन वाला जबरदस्त है श्रीकृष्ण भगवान और मथुरा वाला कमजोर है। ये बात आप कहेंगे तो मैं नाराज होऊँगा। मूर्तियाँ सारी की सारी जहाँ कहीं भी रखी हैं वे भगवान के रूप की- श्रीकृष्ण की याद दिलाती हैं, बस काम खत्म हो जाता है।

मूर्तियों में आप ताकत बताने तो क्या हो जायेगा। तब ये बुत-परस्ती हो जाएगी। मोहम्मद साहब ने बुतपरस्ती के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। पूजा को तो कोई भी मना नहीं कर सकता। मोहम्मद साहब तो क्या कोई भी मना नहीं कर सकता। लेकिन बुतपरस्ती मो सभी मना करते हैं।

बुतपरस्ती क्या थी ? पहले एक गाँव का एक बुत होता था और बद्दू लोग, डाकू लोग जहाँ कहीं भी चले जाते थे और छाया मारते थे, पुराने जमाने में सोना-चाँदी तो था नहीं, नोट थे नहीं। अनाज था, जानवर था, भेड़ बकरियाँ थीं और मोटे हट्टे कट्टे जवान आदमी थे और स्त्रियाँ थी। इन्हीं को ये लोग लेकर भाग जाते थे उस जमाने में यही दौलत थी। किसी की जवान छोकरी देखी, औरत देखी बस उसको लेकर डाकू चल दिये। जो कोई मोटा आदमी देखा, मजबूत आदमी देखा उसको लेकर चल दिए और बोले हमारा यह काम करो वह काम करो। गुलाम बना लेते थे उन लोगों को। पुराने जमाने का रिवाज यही था। पुराने जमाने के बद्दू लोग, जहाँ पर मोहम्मद साहब पैदा हुए थे, बहुत सी औरत को ले आते थे किसी के पास सव औरतें भी थीं, किसी के पास 250 औरतें थी, उनके बच्चे पैदा होते थे। बच्चों का क्या होगा ? औरतों का तो यह भी है कि कुछ खेती-बाड़ी में काम आ सकती हैं, कुछ मेहनत-मशक्कत कर सकती हैं। बच्चों तो खामख्वाह तंग करेंगे। उनका क्या होगा ? बच्चों के लिए मकान कहाँ से आएगा ? बच्चों के लिए दूध कहाँ से आएगा ? तब ऐसा हुआ करता था कि साल भर में एक दिन ऐसा आता था कि जिसके पास जितने बच्चों होते जरूरी वाले दो-चार बच्चों रख लिए जाते थे और बाकी बच्चों मूर्ति के समान उसे समर्पित कर दिये जाते थे जितने ज्यादा बच्चों दिये जाएँगे, उतना ज्यादा बुत प्रसन्न रहेगा और आशीर्वाद देगा और सब काम कर देगा। जितने कम बच्चों बुत को दिये जायेंगे, उतना ही उस गाँव का बुत नाखुश हो जाएगा, उतनी ही बीमारी फैला देगा और नुकसान कर देगा। इसलिए गाँव में एक कम्पटीशन होता था और हर गाँव का बुत अलग-अलग होता था। इस गाँव का अलग, उस गाँव का अलग। हर गाँव का अलग ‘बुत’ होता था। उन बुतों में लड़ाई होती थी। एक गाँव वाले अपने बुत से कहते थे कि तू उस गाँव वालों से लड़ाई लड़, तो दूसरे गाँव वाले इसी तरह अपने बुत से कहते थे। इस तरह गाँव-गाँव में बुत भरे हुए थे।

मोहम्मद साहब जब पैदा हुए तब उन्होंने कहा कि यह बड़ी वाहियात बात है। तुम लोग अलग-अलग बुत मानते हो पर खुदा तो एक है। इतने सारे खुदा कैसे हो सकते हैं? गाँव- गाँव का खुदा भी कहीं हो सकता है। यह आपने क्या वहम पाल रखा है। बच्चों को ‘जिबह’ (जो बाधित किया गया हो ) नहीं करना चाहिए। वाह! बच्चों का जिबह नहीं करेंगे तो हमारा बुत खायेगा क्या? अच्छा तो एक काम करो बकरी को मार डालो। ऊँट को ‘जिबह’ कर लो। गाय को जिबह कर लो। कई बच्चों को मारो मत। ठीक बात है। मोहम्मद साहब ने अपने ढंग से स्वयं काम कर दिया था। उस जमाने में मोहम्मद साहब बुतपरस्ती के खिलाफ थे। वह और किसी तरह की बुतपरस्ती थी। हमारे आपके जैसा नहीं। वह की कैसे खिलाफत कर सकते थे मूर्ति-पूजा का कोई खण्डन नहीं कर सकता। मूर्ति-पूजा दुनिया में रही है और रहेगी। लेकिन मूर्ति-पूजा के हम खिलाफ होंगे, मूर्ति-पूजा से हम इनकार करेंगे और मूर्ति-पूजा के लिए आपके वहम को हटाएँगे, दुनिया से वहम हटाएँगे और आपकी श्रद्धा को हिलाएँगे। कब ? जब आप यह ख्याल करने लगेंगे कि जो पत्थर अमुक जगह पर रखा हुआ है वह बड़ा ताकतवर है। उसके ऊपर आप कपड़ा पहना देंगे और उस पर छत्र चढ़ा देंगे तो वह आपका अमुक काम बना देगा, तमुक काम बना देगा। ये वाहियात बातें आप करेंगे तो मैं नाखुश होऊँगा। यह कहिए कि ये बातें आपके समझ में नहीं आती। इसके पीछे जो किस्सा है, वजह है, वह है कि ये सारी की सारी चीजें यह याद दिलाने के लिए हैं कि सर्वशक्तिमान् ईश्वर सबके भीतर समाया हुआ है। श्रीकृष्ण भगवान के मन्दिर में जरूर जायेंगे और वहाँ सिर झुकायेंगे और सिजदा करेंगे, प्रणाम करेंगे। लेकिन वह हमारा प्रणाम उस पत्थर के लिए नहीं है। हमारा प्रणाम उनके लिए हैं जो आज से 5000 वर्ष पूर्व भगवान जी आये थे, जो दुनिया में नयी धारा और नये विचार मनुष्य को देकर चले गये थे। हम उस मूर्ति का ध्यान करते हैं, सिजदा करते हैं। हमारा ईमान और हमारी निष्ठा वहाँ रहती है। उन्हीं कृष्ण के ऊपर जो सारे विश्व में समाये हैं और सब जगह समाये हुए है। मूर्ति पूजा के बारे में, प्रतीक-पूजा के बारे में बार-बार आपके मन को कच्चा कर देता हूँ। बार-बार आपकी निष्ठा को डिगा देता हूँ। मेरी बात को समझिए, मेरी बात को समझने की कोशिश कीजिए कि क्या कहता हूँ। मैं यह कहता रहूँगा कि प्रतिमा को आप पूरा मान देंगे तो बात बनेगी नहीं। राष्ट्रीय झण्डा हमारे घर में लगा हुआ। तिरंगा झण्डा हमारे घर में लगा हुआ है, तो इस बात का द्योतक है कि हम सबसे बड़े देशभक्त हैं। आप देशभक्त हैं- तो हिन्दुस्तान में छाई मुसीबतों और असुविधाओं से आपको पीड़ा होती है क्या ? नहीं साहब, हमको क्या पीड़ा होगी। आप अपने घर में अपनी खुशहाली में हिस्सा बंटाते हैं ? नहीं साहब हम क्यों हिस्सा बंटाएंगे। हम तो देशभक्त हैं। देशभक्त क्यों हैं ? देखिए हमारे घर में तिरंगा झण्डा लगा हुआ है। तिरंगा झण्डा इस बात का प्रतीक था कि हमारे मन में देशभक्ति का जागरण होना चाहिए। मित्रों, मूर्तियाँ इस बात की प्रतीक हैं कि हम उन भावनाओं को, जिनको हम बार-बार भूल जाते हैं और जो बातें हमारी दिमाग में से निकल जाती है, हमारे ख्यालों में से निकल जाती है, उन्हें हम अपने ख्यालों में जगाइए । जो बातें श्रीकृष्ण भगवान जी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बातें भगवान श्री रामचन्द्र जी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बातें गणेश जी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो देवी के साथ में जुड़ी हुई हैं, वह खयालात, वह विचार धारा, वह प्रेरणा और वह प्रकाश, वह सारी की सारी चीजें इन मूर्तियों को देखकर हमारे मन में उठेंगी। अगर वह मूर्तियाँ और वह प्रतीक हमारे मन में भावना को उठाएँगे तो हम उनका स्वागत करेंगे। उनके आगे प्रणाम करेंगे। उनकी उपयोगिता को स्वीकार करेंगे और गाँव-गाँव उनके मन्दिर बनाएँगे । उनकी जय बोलेंगे। लेकिन अगर लोग इस वहम में घुसते चले जाएँगे कि जो कुछ भी है ये मूर्ति का, पत्थर का टुकड़ा ही सब कुछ है। लेकिन इस शर्म से जब आपको कुछ भी नहीं मिलेगा तो आप ये कहने लगेंगे ये सब बेकार हैं, तब हम आपको अज्ञानी बताएँगे और फिर हम आपसे नाराज होंगे और आपके अज्ञान को उखाड़ने की कोशिश करेंगे और आपसे कहेंगे कि आप ये क्या करते हैं गड़बड़। जो चीज जिस काम के लिए बनायी गयी है, उस उद्देश्य पर आप ध्यान दीजिए, उस काम की महत्ता को समझिए।

मित्रों, प्रतीक हमारे माध्यम हैं और माध्यम केवल इसलिए है कि उनके साथ में जो मूल प्रेरणा और मूल प्रकृति जुड़ी हुई है उसके सम्बन्ध में हम जानकार हैं और उसको अपने हृदय में स्थान देने की कोशिश करें। न केवल हृदय में स्थान देने की कोशिश करें, बल्कि अपने जीवन का एक हिस्सा बना लें। ये है प्रतीक पूजा का आदर्श और प्रतीक-पूजा का उद्देश्य। हमने आपसे यही कहा था। अब हम गायत्री माँ का प्रतीक घर-घर में स्थापित करना चाहतें हैं और हम आदमी के दिमाग में इस बात की प्रेरणा स्थापित करना चाहते हैं कि हमको मनुष्यता का अनुयायी होना चाहिए और हमको नारी जाति के प्रति निष्ठावान् और श्रद्धावान होना चाहिए। मानवता के प्रति निष्ठावान् और श्रद्धावान होना चाहिए। ये सारे के सारे “सिम्बोल” हमारे इस गायत्री माता के साथ जुड़े हुए हैं। हमको विवेकशील होना चाहिए और विवेकशीलता की इज्जत करनी चाहिए। ये सारे के सारे सिद्धान्त गायत्री माता के साथ जुड़े हुए हैं। इन सारे सिद्धान्तों को लेकर के जो गायत्री माता का पूजन करेंगे तो उनका प्रतीक-पूजन सही होगा, सार्थक होगा और उससे दुनिया का फायदा होगा। मनुष्य जाति उद्धार हो जाएगा। यही प्रतीक-पूजन का उद्देश्य है।

प्रतीकों के सम्बन्ध में विडम्बना की शुरुआत वहाँ से आरम्भ होती है जहाँ हमने यह मानना शुरू कर दिया कि ये मूर्ति जो बैठी हुई है, बड़ी ताकतवर है। उसको हम मिठाई खिला देंगे, उसकी हम आरती उतारेंगे तो वह हमारा उद्धार कर देगी और हमें मालामाल कर देगी। ये खयालात आप करने लगेंगे तो हम नाराज होंगे। वास्तविकता को आप समझते क्यों नहीं ? वास्तविकता को आप समझिए। वास्तविकता को समझने की कोशिश कीजिए कि मूर्ति-पूजा क्यों बनाई गयी थी और किसके लिए बनाई गयी थी ? एक दिन हमने आपसे एक बात कही थी कि गायत्री माँ, जो हमारी भारतीय संस्कृति की जीवात्मा हैं, जो हमारा प्राण हैं, जो चारों वेदों की जननी हैं। उसका एक “सिम्बोल” को लेकर के हम सारे हिन्दू समाज को एक स्थान पर इकट्ठा कर सकते हैं। जो हमारे अनेक देवताओं के माध्यम से, सम्प्रदायों के माध्यम से, मंत्रों के माध्यम से, पैगम्बरों के माध्यम से, हजारों और लाखों टुकड़ों में हिन्दू धर्म फैल गया और बिखर गया है, अब हम इसको फिर से इकट्ठा करना चाहते हैं। हम उसका बिखराव बर्दाश्त नहीं करेंगे।

अब हम यह करेंगे कि हिन्दू समाज का कोई न कोई तो प्रतीक होना चाहिए। कोई न कोई तो एक ‘सिम्बोल’ होना चाहिए। कहीं तो एक जगह इकट्ठे होना चाहिए।

राष्ट्रीय झण्डे के प्रति हमारे सारे हिन्दुस्तानी नतमस्तक होते हैं। इसमें हिन्दू भी शामिल हैं, मुसलमान भी शामिल हैं, ईसाई भी शामिल हैं,। इस माध्यम से जब सारे के सारे लोग इकट्ठे किये जा सकते हैं तो क्या हम हिन्दू-संस्कृति को इकट्ठा करने के लिए माध्यम तलाश नहीं कर सकते। हाँ, माध्यम हमारा था और वही रहना चाहिए और वही रहेगा। कौन है वह माध्यम ? वह है गायत्री मंत्र। हमारा माध्यम है और वही रह सकता है, दूसरा कोई बन ही नहीं सकता। हमारे पुराण, हमारे कुरान वे हैं जिनको हम वेद कहते हैं। वेद कैसे हैं और वेदों का मूल हमारा कलमा, हिन्दू का कलमा क्या है ? हिन्दू का कलमा एक है और वह है गायत्री मंत्र। हम दूसरों को भी इज्जत देते हैं। आप जिस देवता की पूजा करते हैं, आपको मुबारक, हमें क्या झगड़ना आपसे। आप श्रीकृष्ण भगवान की पूजा करते हैं तो खुशी खुशी करें और आप ‘श्री कृष्णाय नमो नमः’ का जप करें हमें कोई ऐतराज आपसे। लेकिन जब आप यह कहेंगे कि हिन्दू धर्म का मूल है- ‘श्री कृष्णाय नमो नमः’ तो हम यह पूछेंगे कि जब 5000 हजार वर्ष भगवान श्रीकृष्ण जी का जन्म हुआ था तब आप किसकी पूजा करते थे। श्रीकृष्ण भगवान किसकी पूजा करते थे। श्रीकृष्ण भगवान क्या यह जाप करते थे- ‘श्री कृष्णाय नमो नमः।’ नहीं, ये जप नहीं करते थे। 5000 वर्ष पूर्व क्या उपासना थी ? बताइए न आप।

मित्रो, तब एक ही उपासना रही है हमारी। ब्रह्माजी को आकाशवाणी के रूप में वह मिली थी। वह था- ‘गायत्री मंत्र’ और जिसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही नहीं राम और कृष्ण जो हमारे हिन्दू धर्म के सूर्य और चन्द्रमा माने जाते हैं, उन्होंने भी इस उपासना को अपनाया था। आप भागवत् में पढ़ लीजिए, आप बाल्मीकि रामायण में पढ़ लीजिए। दोनों को जो दीक्षाएँ दी गयी थी, वह गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी और जब तक दोनों जिन्दा रहें तब तक वे गायत्री मंत्र की उपासना करते रहें। शिव की उपासना का मंत्र यही है। सूर्यवंशी राजा और चन्द्रवंशी राजा जितने भी हुए सबकी उपासना का मंत्र यही एक है और हमारी नमाज वही एक है। हमारी संध्या गायत्री के बिना सम्भव नहीं है। सम गायत्री के बिना संध्या कैसे कर सकते हैं ? ये हमारा प्रतीक है और हम इस प्रतीक का-सिम्बोल को हर जगह जमाएँगे और इसलिए जमाएँगे कि सारे हिन्दू समाज को यह मालूम हो जाये कि हमारी मूल जड़ कहाँ है और उद्गम कहाँ है ? ताकि हम सारे समाज को एक सूत्र में पिरो सकें और सारे समाज को हम विवेकशीलता का अनुयायी बना सकें। हम विवेकशील लोग हैं। हम विचारशील लोग हैं। हम अंध परम्पराओं के अनुयायी नहीं हैं। हम हर चीज को विवेक की कसौटी पर कसते हैं, क्योंकि हमारा मंत्र- हमारी उपासना गायत्री मंत्र है- “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।” हम बुद्धि के उपासक हैं, हम विवेक के उपासक हैं, हम विचारों के उपासक हैं, हम तर्क के उपासक हैं। हम दलील के उपासक हैं, हम सच्चाई के उपासक हैं। हम किसी ‘फालोवर’ नहीं हैं- हम केवल सच्चाई के फालोवर हैं। ये सारी की सारी प्रेरणा कहाँ से मिल सकती है ? ये सारी प्रेरणाएँ गायत्री मंत्र से मिल सकती हैं। इसलिए हम कमर कसकर खड़े हो गये हैं कि गायत्री मंत्र की पूजा करने के लिए हर आदमी को मजबूर करेंगे और गायत्री मंत्र की महत्ता को अंगीकार करने और हृदयंगम करने की सलाह देंगे और परामर्श देंगे।

एक दिन हमने आपको ये भी कहा था कि उपासना को सस्ती बनाएँगे और हर बच्चों-बच्चों को उपासना करने के लिए कहेंगे। हम यह कहेंगे कि गायत्री मंत्र का एक फोटो अपनी घर में पूजा स्थली पर रखिए। यदि आप निराकार को मानने वाले हैं तो गायत्री मंत्र टाँग लीजिए। हमें कोई ऐतराज नहीं है। साकार उपासना को मानने वाले हैं तो आप गायत्री माता की तस्वीर रख लीजिए और सुबह शाम संध्या वंदन का क्रम आरम्भ कीजिए। कोई भी व्यक्ति या स्कूल जाने वाले बच्चों सबसे पहले अपनी चप्पल उतार दे, अपनी टोपी उतार दे और अपने सिर को नीचा झुकाए। हाथ जोड़ करके प्रणाम करे, भारतीय परम्पराओं की अनुभूति करे और पाँच बार गायत्री मंत्र मन ही मन बोले और नमस्कार करके स्कूल चला जाए पढ़ने के लिए। स्त्रियाँ खाना पकाने से पहने स्नान कर लिया है तो ठीक, नहीं भी कर लिया है तो भी ठीक है, वे सिर को उघाड़ करके और पैरों से चप्पल उतार करके खड़ी हो जाये और पाँच बार मन ही मन गायत्री मंत्र का जप करें और उसके बाद में खाना पकाने के लिए चली जाएँ । दुकानदार अपनी दुकान को चला जाए। गायत्री माता का चित्र दुकान में लगा हुआ है, उसके आगे मस्तक झुकाए, सिर झुकाए और पाँच बार मन ही मन गायत्री मंत्र जप ले। खड़े-खड़े होकर के यह उपासना करले और अपनी दुकानदारी को चलाए। अध्यापक या बच्चों स्कूल को चले जाएँ । इससे सस्ती उपासना तो और कोई नहीं हो सकती। मित्रों! इसमें तो शिकायत की बात भी नहीं है कि हमको समय नहीं मिलता और देखिए स्नान नहीं हुआ और ये नहीं हुआ और जनेऊ तो था ही नहीं। फिर कैसे करेंगे गायत्री जप। जनेऊ पहनना हो तो जरूर पहनना, हमें कोई शिकायत नहीं है और आपको स्नान करना हो तो जरूर करना। हम किसे मना करते हैं लेकिन यदि आप बीमार हो गये हैं और आप नहीं नहा सकते हैं तो आपको यह कहने की आवश्यकता नहीं होगी कि चूँकि हम नहाए नहीं थे, इसलिए हम गायत्री मंत्र की उपासना नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में भी आपको जरूर करनी चाहिए उपासना।

गायत्री मंत्र के बारे में हम हर हिन्दू से कहेंगे, हर घर में जायेंगे हर आदमी को समझाएँगे और ये कहेंगे कि आपने अपने संस्कृति के माता ओर पिता को भूला दिया था। अब अपने माता पिता के नाम याद रखिए। आपकी माता का नाम क्या है और पिता का नाम क्या है ? हमको नहीं मालूम साहब। आपका पिता कौन है ? हमको नहीं मालूम। अरे भाई ये क्या वाहियात बात बकते हो। आपकी माँ कौन थी ? हमें नहीं मालूम कि हमारी माँ कौन थी ? ये कोई जवाब है। जब कोई यह कहेगा कि हमको हमारी माँ का नाम नहीं मालूम है तो हम उसको वर्णसंकर कहेंगे । आपको अपने पिता का और माता का नाम मालूम होना चाहिए और हर घर में उनकी स्थापना होनी चाहिए। भारतीय धर्म के माता पिता कौन हैं ? आपको उनका नाम मालूम होना चाहिए और आपको उनकी इज्जत करनी चाहिए, जैसे कि ऋषियों ने, देवताओं ने अनादिकाल से की और होती रहेगी। हमारे माता-पिता बदले नहीं जा सकते। आपको बुतपरस्त वालों ने और मजहब वालों ने बहका दिया है। इससे हमारी वैदिक संस्कृति को झुठलाया नहीं जा सकता। उनकी बात को टाला नहीं जा सकता। आज तो हरेक चालाक बाबाजी ने अपने अपने नाम का मजहब खड़ा कर दिया है। और अपने-अपने पैगम्बर बनकर बैठे हैं और अपना अपना मंत्र बना दिया है। और अपनी-अपनी पुराण बना दी है। हम ये नहीं चलने देंगे। हम ये कहेंगे कि हिन्दू धर्म एक ही था और एक ही रहेगा। ठीक है मजहब- परस्तों को अपने चेले और चेलियों की हजामत बनाने के लिए तरह-तरह के सम्प्रदाय बनाने पड़े, पर इसकी क्या कीमत हो सकती है और इसकी क्या वकत हो सकती है, इसे हर विवेक शील को जानना और समझना चाहिए। जब सूरज निकलना शुरू होगा तो ये चमगादड़ और ये उल्लू अपनी जगह से भाग खड़े होंगे ओर इनकी कलई खुल जायेगी। इन्होंने हिन्दू धर्म के टुकड़े काट काट कर के फेंक दिए और अपने-अपने नाम के मजहब नहीं चलेंगे। मजहब हमारा एक था और एक ही रहेगा और हमारे माता-पिता एक ही थे ओर एक ही रहेंगे। हमारी माँ गायत्री माँ हैं और हमारे पिता यज्ञ हैं। इन दोनों को हम जिन्दा रखेंगे और इन्हीं की पूजा करेंगे। हर एक आदमी जो इनको भूल गया है और अपनी वास्तविकता को भी, हम अब ये सिखाने की कोशिश करेंगे कि हमारी माँ कौन थी और हमारे पिता कौन थे ? माँ और बाप की इज्जत करनी चाहिए- “मातृ देवो भव, पितृ देवो भव” माता-पिता हमारे देव हैं, हमें इनकी पूजा करनी चाहिए।

मित्रों, अब हमको घरों में गायत्री माँ की स्थापना करनी चाहिए। गायत्री माता के ‘सिम्बोल’ प्रतीक और उनकी चौकियाँ अपने घरों में स्थापित करनी चाहिए। जहाँ पर थोड़ी देर बैठ करके घण्टे आधा घण्टे बैठकर के भजन कर लिया करें और गायत्री मंत्र का अनुष्ठान कर लिया करें। हमको जहाँ कहीं भी मौका मिले, इस तरह की स्थापना करनी चाहिए, जिस तरह हम यहाँ गायत्री माता की स्थापना कर रहे हैं और हमने गायत्री तपोभूमि में स्थापना की है। इस बात की जरूरत समझी जाए और जहाँ भी मौका मिले, जहाँ आवश्यकता हो वहाँ गायत्री माँ की स्थापना करनी चाहिए। हमने लोगों से यह भी कहा है कि आप चाहें तो मूर्तियाँ स्थापित करने की अपेक्षा एक चित्र स्थापित करने लें। इसमें एक फायदा आपको यह हो जायेगा कि आपके ऊपर वे जिम्मेदारियाँ नहीं आयेंगी जो हमारे ऊपर जिम्मेदारियाँ आती हैं। मूर्ति स्थापित करने से हमको भोग लगाना पड़ेगा, प्रसाद बाँटना पड़ेगा, सबेरे उनकी पूजा करनी पड़ेगी। हमें आरती करनी पड़ेगी। हमें ये करना पड़ेगा, वो करना पड़ेगा। अतः जहाँ जैसी जिम्मेदारियाँ उठाना सम्भव हो सके वहाँ वैसी ही उठायी जाये। जहाँ पर सम्भव नहीं, वहाँ पर तस्वीर स्थापित कर ली जाए और वहाँ पर सबके सब लोग इकट्ठे हों, गायत्री परिवार वाले इकट्ठे हों, गाँव वाले इकट्ठे हों, महिलाएँ इकट्ठी हों, बच्चों इकट्ठे हों और सब इकट्ठे होकर सायंकाल को केवल आरती उतार लिया करें। आरती के समय शंख बजा दिये जाए, घड़ियाल बजा दिया जाए। अगर आपके पास प्रसाद बाँटने के लिए न हो, तो पंचामृत वाला प्रसाद प्रस्तुत कर सकते हैं। पानी में थोड़ी सी शक्कर, थोड़ा सा गंगाजल, तुलसी के पत्ते। बस उसी का हम पंचामृत बनायेंगे और उसी को सबको देंगे। अगर प्रसाद हमारे पास नहीं है, पैसे हमारे पास नहीं हैं तो हमारी पंचामृत वाली पद्धति है जिसमें चन्दन घुला रहता है, उसका ही हम प्रसाद बाट सकते हैं। उसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।

गाँव-गाँव में, घर-घर में, मौहल्ले-मौहल्ले में इस तरह के मन्दिर स्थापित करने पड़ेंगे ताकि वहाँ पर स्त्रियाँ, बच्चों, बुजुर्ग और बूढ़े और बालक सब इकट्ठे हो सकें और प्रार्थना में शामिल हो सकें। आप लोग आरती कीजिए और लोगों को अपने माता-पिता की अर्थात् गायत्री और यज्ञ की जानकारी कराइए। हम प्रतीकों को जिन्दा रखेंगे। हम प्रतीकों को नष्ट करने वाले नहीं हैं। हम प्रतीकों का मजाक उड़ाने वाले नहीं हैं। प्रतीकों के प्रति हम अनास्था उत्पन्न करने वाले नहीं हैं। हम तो अनास्था वहाँ उत्पन्न करते हैं और बार-बार आपसे झगड़ने के लिए इसलिए खड़े हो जाते हैं कि आप प्रतीक को सब कुछ मान बैठते हैं और प्रतीक जिस काम के लिए बनाया गया था, उस पर आप ध्यान देना नहीं चाहते। जब आप कलम या पेन जेब में लगाते हैं तब हमें क्या ऐतराज हो सकता है। लेकिन जब आप यह कहते हैं कि हम फाउन्टेन पेन लगा करके एम॰ ए॰ हो गये हैं, तब हम आपसे लड़ाई करते हैं और कहते हैं फाउन्टेन पेन रखिए, लेकिन पढ़ना भी सीखिये, लिखना सीखिये, गणित सीखिये, ज्योमिट्री सीखिये, किताब पढ़ना सीखिये और फाउन्टेन पेन का इस्तेमाल कीजिए। अगर आप यह कहें कि नहीं साहब, फाउन्टेन पेन का क्या इस्तेमाल करना, हमारा पेन तो परब्रह्म परमात्मा है। हमारी जेब में वह लगा हुआ है, अतः हम तो एम॰.ए॰ हैं देखिए हम पेन खरीद कर लाए हैं। तो हम आपसे लड़ाई करेंगे और कहेंगे कि आप पेन को क्यों एम॰ ए॰ बताते हैं। पेन के सहारे तो एम॰ ए॰ पास किया जाता है, बस इससे आगे बढ़िए मत।

मूर्तियों के माध्यम से, प्रतीकों के माध्यम से, तस्वीरों के माध्यम से हमको अपने हृदय के कपाट खोलने पड़ते हैं। और अपने मस्तिष्क का परिष्कार करना पड़ता है। हमको अपने जीवन का उद्धार करना पड़ता है। साथ ही हमको यह बात मालूम करनी पड़ती है कि हमको जाना कहाँ है? चलना कहाँ है ? यदि आपकी मंशा में यही उद्देश्य निहित है तो हम आपकी पूजा की बराबर प्रशंसा करेंगे और सराहना करेंगे। हमको लड़ता तब पड़ता है, हमको गुस्सा तब आता है और हमको झकझोरते तब हैं, जब आप मूर्ति को ही सब कुछ मान बैठते हैं और कहते हैं कि यही हमारी मनोकामना पूर्ण करेगी। यही हमको बेटा देगी। यह मूर्ति हमारा यह करेगी हमारा वह करेगी। जब आप ऐसा कहना शुरू कर देते हैं तब हम आपसे नाराज होते हैं कि असलियत को क्यों नहीं समझते ? असलियत को समझिए। असलियत को जब आप समझेंगे नहीं तो आप मूर्ति-पूजक नहीं रहेंगे, फिर आप बुत-परस्त हो जायेंगे । मूर्ति-पूजन और बुत-परस्ती में जमीन- आसमान का फर्क है। मूर्ति-पूजक वे हैं जो मूर्ति का इस्तेमाल गीता की पुस्तक की तरीके से किया करते हैं और ज्ञान को जहाँ से वह ज्ञान आता है, भगवान जहाँ रहते हैं वहाँ अपने मन को भगाकर ले जाते हैं और ज्ञान को पकड़ कर लाते हैं। वह आदमी की मूर्ति-पूजक है, बुत-परस्त नहीं। बुत-परस्त कौन थे ? वो लोग थे बुत-परस्त जिन्हें बद्दू कहा जाता था। आप लोग बद्दू लोगों की नकल करना शुरू कर देंगे तो हम आप पर झल्लाएँगे और कहेंगे कि आप तो बुत-परस्त बद्दू हो जाते हैं। बद्दू आप होइए मत और किसी भी मूर्ति को ये मान कर जाइए मत कि वह सामर्थ्यवान है। उसमें चमत्कार है और वह देवी तो ऐसा कर देती है, वैसा कर देती है। वह चमत्कारी देवी है। वो चमत्कारी देवी नहीं है। चमत्कारी केवल भगवान है जो सारे विश्व में समाया हुआ है। उसी की शक्ति हमारे विचारों से सम्बन्ध रखती है, हमारे आचरण से सम्बन्ध रखती है। आचरण और विचारों से सम्बन्ध रखने वाली देवी को अगर आप उस मूर्ति के माध्यम से पकड़ते हैं तो हम आपको ठीक कहेंगे और हम आपको मुबारकवाद देंगे और कहेंगे कि आप जानकार लोगों में से हैं, आप सही आदमी हैं।

मित्रों, क्या हम प्रतीकों की उपेक्षा कर सकते हैं ? नहीं, हम प्रतीकों की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। प्रतीकों के माध्यम से हम उस ज्ञान को जो हमारी भारतीय संस्कृति का मूल है, हर आदमी के गले में उतारने की हम कोशिश करेंगे। इंजेक्शन की सिरींज के बिना हम किसी तरीके से दवा आपके खून में प्रवेश नहीं करा सकते हैं। दवा हमारे पास बहुत बढ़िया वाली रखी है। उसको इंजेक्शन से लगाने के लिए सुई तो हमको चाहिए ही। सुई क्या है ? सुई मित्रों, जिसको हम प्रतीक पूजा कहते हैं। इसके अन्दर जो दवा भरी जाती ह�


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