धर्ममय ‘अर्थ’ ही हमारे लिए वरेण्य हो

October 1997

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अर्थप्रधान इस युग में भौतिक सभ्यता का अन्धानुकरण जिस द्रुतगति से हो रहा है, लोगों का नैतिक पतन भी उसी गति से हो रहा है। भौतिकता की यह भयानक लिप्साएँ चरित्रनिष्ठा, समाज-निष्ठा एवं ईश्वरीय निष्ठा को इस सीमा तक नष्ट भ्रष्ट कर देती हैं कि मनुष्य अनजाने में ही पूरा नास्तिक बन जाता है। अर्थ को प्रधानता देने के कारण ही आज व्यक्ति बहुत अधिक मात्रा में भौतिक साधनों का संचय करने लगा है और ईमानदारी नीति, न्याय तथा धर्म की सीमा छोड़कर अनुचित और असत्य की रेखा में चला जा रहा है। साधन संचय में तीव्र गति से बढ़ते हुए ऐसा व्यक्ति आत्मा परमात्मा से इतनी दूर चला जाता है कि जहाँ पर न तो उसकी आवाज सुनाई देती है और न ही झलक दिखाई देती है। साथ ही ईर्ष्या, छल, कपट, असत्य, एवं अनीति के लोह आवरण उस ज्योति का मार्ग स्वयं ही अवरुद्ध कर देते हैं। पूर्णतया भोगवादी जीवन के परिणाम दुःखदायी ही होते हैं। आध्यात्मिक और भौतिक समृद्धि के सम्मिश्रित मार्ग को अपनाकर ही मानव जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। यही हमारी आर्षपरम्परा रही है और अब इसी राह पर चलने के लिए हमें समुद्यत होना है।

प्रायः यही समझा जाता है कि अर्थ का, भौतिक समृद्धि का अभाव ही व्यक्ति अथवा समाज के पतन का तथा सम्पन्नता- विकास का एकमात्र कारण है। पिछले लम्बे समय से यह परम्परा रही है। मनुष्य जीवन की असंख्य समस्याओं को अर्थ की भाषा में परिभाषित करने एवं समझने के प्रयत्न हुए हैं। विश्व के अधिकाँश मूर्धन्य अर्थशास्त्रियों, विचारकों ने, पूँजीवादियों से लेकर साम्यवादियों तक ने समस्याओं के हल समृद्धि में खोजने का प्रयत्न किया है। अर्थ को अतिरंजित महत्व देने का प्रतिफल यह हुआ कि मानवीय मूल्य एवं उसके आदर्श गौण होते गये और अर्थ-भौतिकता ही सर्वोपरि बनकर रह गया।

अर्थप्रधान एकांगी दृष्टि ने मानवी मूल्यों को किस प्रकार गिराया है, यह तथ्य किसी से आज भी छुपा नहीं है। इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध विचारक वाल्टर रोश्चेनकिश ने अपनी कृति- 'क्रिशिचयानिटी' एण्ड द सोशल साइन्सेज’ में भौतिकवादी दृष्टिकोण की समीक्षा विभिन्न आधारों पर की है। मानवी मूल्यों का ह्रास अर्थ को प्रधानता देने के कारा किस प्रकार हुआ है, इसका उल्लेख उन्होंने इस पुस्तक में विगत शताब्दियों के मृतात्माओं के परस्पर संवाद के रूप में किया है, जो इस प्रकार है-

उन्नीसवीं सदी की मृतात्मा विगत शताब्दियों की मृतात्माओं के पास पहुँची। स्वागत करते हुए उन्होंने उन्नीसवीं सदी की मृतात्मा से कहा- मित्र अब तुम अपनी कहानी कहो। गर्वपूर्वक उन्नीसवीं सदी की आत्मा ने अपनी सफलताओं की कहानी आरम्भ की । उसने कहा- मैंने मनुष्यों प्रकृति पर विजयी बना दिया, उसे पृथ्वी का शासक बना दिया। मैंने मनुष्य के विचारों को उन्मुक्त एवं स्वतंत्र कर दिया है। उसे बुद्धि एवं प्रकृति की असीम शक्ति दे दी, सम्पन्न बना दिया।

विगत शताब्दियों की मृतात्माओं ने उसकी सारी बातें शान्तिपूर्वक सुनी । पूरी कहानी सुनने के बाद मृतात्माओं ने उन्नीसवीं सदी के मृतात्मा से पूछा कि “बताओ, क्या अब भूलोक पर कोई व्यक्ति क्षुधा से पीड़ित नहीं रहा है? क्या समाज में वर्गभेद नहीं रहा? अमीर गरीब के बीच खाई नहीं रही? क्या मनुष्य ने महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति हेतु मनुष्यों का शोषण करना बन्द कर दिया? क्या प्रत्येक व्यक्ति संतुष्ट हो रहा है? क्या मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य की दिशा में आवश्यक प्रगति कर रहा है?”

इतना सुनते ही उन्नीसवीं सदी की आत्मा का मस्तक लज्जा से झुक गया। इस पर मृतात्माओं ने गम्भीर वाणी में कहा “तब तुम्हारी उद्घोषित सफलता के आने में निश्चय ही अभी विलम्ब है बहुत विलम्ब है।”

अपनी इस पुस्तक में वाल्टर लिखते हैं कि कोई भी समाज अर्थ को, भौतिकवाद को अपना आदर्श बनाकर सभ्य, सुसंस्कृत एवं समुन्नत नहीं बन सकता। उसके समग्र विकास के लिए मानवोचित गुणों को आदर्श के रूप में प्रतिष्ठापित करना होगा और यह कार्य अध्यात्मजीवन आदर्श अपनाने पर ही सम्भव है।

यह एक तथ्य है कि सम्बन्धित कुछ कठिनाइयों के हल में अर्थदृष्टि एवं उसकी उपलब्धियों से यत्किंचित् योगदान भले ही मिला हो पर यह नहीं कहा जा सकता कि जिन देशों ने अपनी आर्थिक गुत्थियाँ सुलझा ली हैं अथवा समृद्ध हो गए हैं, वे समस्याओं से अछूते हैं। पर्यवेक्षण करने पर यह पता चलता है कि उन देशों में, जिन्होंने समृद्धि को सम्पन्नता को ही आदर्श के रूप में अपनाया और अपने प्रयासों के फलस्वरूप उत्साहवर्द्धक सफलता पायी, वे पिछड़े, अविकसित एवं निर्धन समझे जाने वाले राष्ट्रों की तुलना में कहीं अधिक संकटों से ग्रस्त हैं। वे संकट भौतिक साधनों के अभाव में भले ही न हों किन्तु तुलना में कहीं अधिक भयावह हैं। समृद्धि से खुशहाली बढ़नी चाहिए थी किन्तु हुआ उल्टा ही। अधिकाँश समृद्धि देशों में शारीरिक, मानसिक बीमारियाँ से लेकर अपराधों, अनाचारों में असामान्य गति से वृद्धि हुई है। सभी जानते हैं कि सम्पन्न देशों में जिस गति से भौतिक उन्नति हुई है, उसकी तुलना में वहाँ आत्महत्या, भ्रष्टाचार, व्यभिचार जैसी सामाजिक बुराइयाँ भी अधिक पनपी हैं। टूटता हुआ जन-जीवन बढ़ता हुआ पारिवारिक कलह एवं परस्पर एक दूसरे के प्रति अविश्वास, द्वेष, ईर्ष्या, आदि ने गरीबी से उत्पन्न होने वाले संकटों को तुलना में कहीं अधिक समस्याएँ उत्पन्न की हैं। जीवन दर्शन के अभाव में यह एकांगी भौतिक दृष्टि का ही दुष्परिणाम है।

आज विश्व अमेरिका सम्पन्नता, भोगवाद एवं भौतिक साधनों का सर्वोच्च निदर्शन बना हुआ है। उस देश में प्रचुर धन-सम्पत्ति है। अगणित उद्योग विशालकाय कल-कारखाने तथा वैभव की असीम चकाचौंध है। आदमी का सब काम रोबोट जैसा यंत्र करते हैं और हर द्वार पर एक महँगी गाड़ी खड़ी मिलती है। होटल, रेस्तराँ, सिनेमा, पार्क, नाचघर, जुआघर, नाटकशाला तथा प्रमोद स्थलों की भरमार है। हर व्यक्ति की आय, व्यय कहीं अधिक है। ऐसा लगता है कि संसार के सारे साधन, सारी सामग्री और सारी लक्ष्मी अमेरिका में ही सिमट कर आ गयी है। किन्तु इस सम्पन्नता की स्थिति में वहाँ का जन-जीवन कितना अतृप्त, कितना अशाँत, कितना व्यग्र, कितना व्यस्त और कितना बोझिल है, इसका अनुमान वहाँ प्रतिवर्ष होने वाले अपराधों और आत्महत्याओं की रोमांचकारी संख्या से लगाया जा सकता है। मात्र आर्थिक सम्पन्नता एवं भौतिकवाद मनुष्य जीवन के लिए कितना बड़ा अभिशाप है, समृद्धि राष्ट्र इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है।

अर्थ- अर्थात् भौतिक सम्पन्नता आवश्यक है और उपयोगी भी शरीर-निर्वाह एवं उसके सुसंचालन में उसकी महानता से इंकार नहीं किया जा सकता। अतः उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास चलते हैं और चलने भी चाहिए। परन्तु इन्हें साधन की सीमा में ही रहने देना चाहिए था। साध्य के रूप में मानवीय आदर्श के स्थान पर प्रतिष्ठापित कर देने से वह अनेक प्रकार के संकट खड़े कर रहा है। इतिहास की आधिभौतिक व्याख्या का अर्थ यह नहीं है कि समग्र जीवन को ही अर्थ में रखा जाए, वरन् यह है कि अर्थ को जीवन का आवश्यक अंग मानकर उसकी विवेचना की जाए।

साम्यवाद के जन्मदाता कार्लमार्क्स के अर्थदर्शन को समझने में यही भूल हुई और वर्तमान में भी हो रही है। उन्होंने अपने सिद्धान्तों में मात्र अर्थ के पहलू एवं उससे उत्पन्न होने वाली अव्यवस्थाओं की विवेचना की है, न कि समग्र जीवन की। अतएव सम्पूर्ण मनुष्य जीवन एवं सम्बन्धित कठिनाईयाँ को अर्थ की भाषा में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। मार्क्स ने समाज अथवा शासन व्यवस्था के स्वरूप को निश्चित करने के लिए जीव एवं ईश्वर के प्रश्न से अपने को अलग रखा तथा उन पक्षों की विवेचना की जो अर्थ से सीधे सम्बन्धित थे। भूल यह हुई कि धन-सम्पदा को ही सब कुछ मान लिया गया और उसे जीवन-दर्शन के रूप में अपना लिया गया।

इस संदर्भ में ख्यातिप्राप्त विचारक सेलिमेन ने अपनी पुस्तक ‘इकोनामिक इन्टरप्रिटेशन ऑफ हिस्ट्री” में लिखा है कि इतिहास की आर्थिक व्याख्या का अर्थ यह है कि इतिहास की आर्थिक व्याख्या का अर्थ यह नहीं है कि समस्त इतिहास को ही अर्थशास्त्र की परिभाषा में व्यक्त किया जाए, अपितु मात्र इतना है कि समाज में भौतिक परिवर्तन हुआ करते हैं और उनमें अर्थ की भी प्रधान भूमिका होती है।

निश्चय ही मनुष्य जीवन की व्याख्या अन्य सब बातों की अपेक्षा करके अर्थ के शब्द में करना एकांगी एवं अविवेकपूर्ण दृष्टि का परिचायक है। मनुष्य जड़ नहीं चेतना है। यदि उसके स्वरूप क्रियाकलाप, विचारणा का एवं भावना की महानता पर विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि अर्थ के अतिरिक्त भी उनके पक्ष हैं जो कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। चेतना अधिक धन से नहीं, उदात्त विचारणा तथा भावसंवेदनाओं से तुष्ट एवं पुष्ट होती है। इसके स्वरूप पर ध्यान जाते ही यह पता लगता है कि अर्थ रूपी आदर्श पर खड़ी मानव जाति एवं भौंड़े साँचे में ढली सभ्यता का स्वरूप त्रुटिपूर्ण है।

मूर्धन्य विचारकों का कहना है कि जहाँ आज की तुलना में पूर्व काल में भौतिक साधनों का इतना बाहुल्य नहीं था वहाँ तब इस संसार में इतने दुःखों, दोषों, द्वन्द्वों तथा द्वेषों के साथ रोग-शोक एवं कष्ट संतापों का बाहुल्य नहीं था। आज जैसे अभाव, असंतोष, अल्पता, असहिष्णुता, अहंकार, अबोधता, असत्य, अनाचार, शोषण, छल-कपट छीना-झपटी स्वार्थ एवं संकीर्णता का बोलबाला पूर्वकाल में रहा है’- इसके प्रमाण भी उपलब्ध नहीं होते। भौतिक साधनों एवं धन का प्रचुरता के बीच भी मनुष्य का जीवन आज जितना अशाँत एवं अभावग्रस्त है उतना पहले कभी नहीं रहा साधनों की न्यूनता एवं अल्पता में भी लोग आज की अपेक्षा कहीं अधिक प्रसन्न पुष्ट एवं सुखी थे।

इस विपर्यय या विरोधाभास का क्या कारण हो सकता है? इसका कारण यही है कि मनुष्य ज्यों ज्यों अर्थ को, भौतिकता को प्रमुखता देकर बाह्य साधनों की दासता स्वीकार करता गया, त्यों त्यों उसका चारित्रिक, नैतिक एवं मानसिक पतन होता चला गया। वह सहज मानवीय गुणों से रिक्त होकर मशीन बनाता चला गया। वह उदारता, प्रेम, सहृदयता जैसा मानवीय सद्गुणों के प्रति निरन्तर संकीर्ण एवं स्वार्थी लोभी और लोलुप बन गया है। इस प्रकार की दूषित मनःस्थिति में सुख-संतोष तथा हंसी-खुशी की सम्भावना हो भी किस प्रकार सकती है। आज जहाँ ओर राजनैतिक, सामरिक, शैक्षणिक, सामाजिक तथा औद्योगिक प्रगति की ओर शक्तियों तथा साधनों को केन्द्रित किया जा रहा हैं, वहाँ मानसिक तथा भावनात्मक क्षेत्र की सर्वथा अपेक्षा की जा रही है। आन्तरिक विकास, मनोन्नति अथवा अन्तःकरण की पवित्रता की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। भौतिक तथा औद्योगिक अथवा आर्थिक योजनाओं को जितना महत्व दिया जा रहा है। यदि उसका कुछ अंश मनोविकास तथा आत्मोन्नति की ओर दिया जाने लगे तो कोई कारण नहीं कि मानव समाज के ऊपर मंडरा रही आज अगणित समस्याओं का समाधान न हो सके।

आर्षपरम्परा में जीवन के चार प्रयोजन बताए गए हैं- जिनमें एक अर्थ भी है। उसे उतना ही महत्व दिया गया जितना की शरीर निर्वाह के लिए आवश्यक है। ईशोपनिषद के ऋषि निर्देश करते हैं- “तेन त्यक्तेन भुञजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।” अर्थात् धन कमाओ, यह शाश्वत सहचर नहीं, अतः निर्लिप्त रहो।

जीवन के अनन्य तीन प्रयोजन माने गये हैं जो अर्थ की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। धर्म, काम और मोक्ष। ‘धर्म’ अंतः विकास का साधन था। काम चेतना की कलात्मक वृत्ति थी। जड़ चेतन में क्रीड़ा कल्लोल कर रही चेतना के दिग्दर्शन से आनन्दित होने की प्रवृत्ति को ‘काम माना जाता है ‘मोक्ष’ को परम लक्ष्य कहा गया है। वहाँ तक पहुँचने के लिए मनुष्य को अन्य तीनों को साथ लेकर चलना होता है। संतुलन इसी से बनता है। इस समग्र जीवन-दर्शन को अपनाने की ही परिणति थी, अतीत की स्वर्गीय परिस्थितियाँ एवं देवतुल्य मानव की गौरवास्पद उपलब्धियाँ।

उन परिस्थितियों के नव निर्माण के लिए अर्थ एवं भौतिकता को ही नहीं, अंतरंग को विकसित करने वाले अध्यात्मिक पक्ष को भी उतना महत्व देना होगा अन्यथा एकांगी अर्थदृष्टि एवं तद्नुरूप भौतिक प्रगति मानवीय विकास की सम्भावनाओं को अवरुद्ध ही करेंगे और समग्र जीवन दृष्टि के अभाव में अनेकों प्रकार की समस्याएँ ही खड़ी होंगी। भौतिक आवश्यकताओं के साथ आध्यात्मिक आस्था ही जीवन को सुखी समुन्नत एवं शान्त बना सकती है।


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