समष्टिगत चेतना चहुँओर संव्याप्त है

October 1997

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जड़ पदार्थ जीवनहीन हैं-यह कहना मोटे तौर पर सही भी है और तथ्ययुक्त भी, कारण कि स्थूलरूप से उनमें उन सब लक्षणों का अभाव होता है, जिसके कारण सजीव प्राणियों और निर्जीव पदार्थों में अंतर किया जाता है। जब सजीवता का कोई चिन्ह न दीखे तो उसको निर्जीव कहना गलत भी नहीं। मोटी दृष्टि इसी आधार पर दोनों में फर्क करती है। तत्त्वदृष्टि की बात और है, जो जड़ में भी चेतना की उपस्थित का अहसास कराती एवं उसे उतना ही सत्य स्वीकारती है, जितना की सूर्य का पूरब से निकलना।

यह संसार जड़ और चेतन के समन्वय से बना है। यहाँ यदि केवल जड़ ही जड़ होता, तो उससे भी काम चलने वाला नहीं और यदि मात्र चेतना होती, तो उतने से ही सुंदर, सुखद सृष्टि की संरचना संभव नहीं थी। जीवधारियों को यदि प्राण चेतना दी, तो पदार्थों को स्वतंत्र सूक्ष्म सत्ताएँ । दोनों में ही चेतना दूध पानी की तरह घुली-मिली है। प्राणियों की सक्रियता और क्रियाशीलता से हमें इसका आभास मिलता है। पदार्थ निष्क्रिय है, उनमें किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं, इतने पर भी यह कहना गलत होगा कि वह चेतना हीन है।

ऐसी ही एक घटना का उल्लेख अरविंद आश्रम की श्री माँ ने किया है। प्रसंग विख्यात गुह्यविद्याविद् मादाम तेओं से सम्बद्ध है। अव अल्जीरिया के तेमसेम नामक स्थान में निवास करती थीं। तेमसेम सहारा मरुभूमि के बहुत निकट है। इसीलिए वहाँ की जलवायु भी रेगिस्तानी हैं । वहाँ केवल एक ही स्थान ऐसा था, जो बहुत उपजाऊ था। यह एक घाटी थी , जिसमें कभी भी नहीं सूखने वाली एक नदी बहती थी। इसके अतिरिक्त वहाँ के पहाड़ बिलकुल बंजर और गंजे थे। पहाड़ के एक छोटे से हिस्से में कुछ पैदावार हो जाती थी। वह भी कृषि विशेषज्ञों के अथक परिश्रम से। उस घाटी में एक ऐसा उद्यान था जिसे देखते हुए यह तनिक भी आभास नहीं मिलता कि वहाँ की आबोहवा रेगिस्तानी है अथवा मरुस्थल के बहुत करीब।

एक बार कृषि वैज्ञानिकों के मन में यह शंका पैदा हुई कि इन बंजर पहाड़ों के कारण नदी कभी भी सूख सकती हैं, इसलिए उनमें कुछ पेड़-पौधे लगाये जाये। उक्त मन्तव्य से वहाँ के प्रशासन को अवगत कराया गया। प्रशासन ने इससे सहमत होकर आदेश जारी कर दिया। कृषि वैज्ञानिकों ने चीड़ के पेड़ों की अनुशंसा की थी। कारण की समुद्री चीड़ अल्जीरिया में आसानी से लग जाते हैं, पर भूलवश आदेश देवदारु के वृक्षों का चला गया। देवदारु हिमप्रदेश के पेड़ है। रेगिस्तानी जलवायु में वे नहीं उगते । फिर भी सावधानी के साथ इन पौधों को सम्पूर्ण पहाड़ में लगाये गये और उनकी उचित देख−भाल की जाने लगी। एक-दो वर्ष उपरांत इनकी लंबाई चार फुट के आस-पास हो गयी। तभी एक रात तेओं के साथ अद्भुत घटना घटी। वह सोने की तैयारी कर रही थी। बत्ती बुझाकर अभी लेटी ही थीं कि एक मंद स्वर ने उन्हें जगा दिया। आँखें खोली तो देखा कि कमरे में चाँदनी सा स्निग्ध प्रकाश फैला हुआ है और कोठरी के कोने में एक वामन खड़ा मुस्करा रहा है। सिर पर नुकीली टोपी, लंबी श्वेत दाढ़ी और पावों में नुकीले जूते-इस लिबास में उसका हुलिया वहाँ की परीकथाओं के बौनों से बिलकुल मिलता-जुलता था। उसका सम्पूर्ण शरीर बर्फ से ढका था।

तेओं ने पूछा-तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रहे हो? उसने एक मदं मुसकान के साथ उत्तर दिया-मैं बर्फीले प्रदेश की आत्मा हूँ और यह बताने आया हूँ कि यह प्रदेश जल्द ही हिम-मण्डित होने जा रहा है। तेओं ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि हम तो सहारा मरुस्थल के एक दम समीप है फिर यहाँ बर्फ कैसे जम सकती हैं। उसने देवदारु वृक्षों की तरफ इशारा करते हुए कहा-आप ने इन लोगों को लगाकर आमंत्रित किया है। अतः हम उसे भेज रहे है। यह कहकर वह अन्तर्धान हो गये। दूसरे दिन वह सो कर उठी तो पहाड़ की चोटियाँ बर्फ से ढकी थी। ?

ऐसी ही एक महान योगी गंभीर नाथ के साथ घटी। प्रसंग उन दिनों का है, जब वे गया के कपिलधारा पर्वत पर साधना कर रहे थे। एक दिन जब वे गंभीर ध्यान की स्थिति में थे तो अचानक उन्हें कुछ असुविधा महसूस होने लगी। आँखें खोली, तो सामने एक तेजस्वी बालक दिखायी पड़ा। गंभीर नाथ ने पूछा-तुम कौन हो और क्या चाहते हो? बालक ने कहा-मैं कपिलधारा हूँ। मेरा स्थूल कलेवर वह है जिसमें आप बैठे तप कर रहे हैं और जिसको आप अपने सम्मुख देख रहे हैं वह उसकी सूक्ष्मसत्ता है। एक संदेश देने के निमित्त मुझे यहाँ उपस्थित होना पड़ा। आप जैसे योगीजन तो यदा-कदा ही आते हैं। आप यहाँ आए और आपके दर्शन-स्पर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इससे मैं धन्य अनुभव कर रहा हूँ। पर आपके शिष्य से मुझे अपार कष्ट हो रहा है। वह न जाने क्यों मेरे वक्षस्थल पर जगह-जगह गड्ढे खोदता फिरता है। आपकी जगह कोई और होता तो शायद मैं नहीं आता एवं तकलीफ चुपचाप सह लेता। पर आपके दर्शन के आकर्षण के कारण मुझे यह रूप धारण करने के लिए विवश किया। मुझको इस वेदना से मुक्ति दिलाइये। योगीराज से आश्वासन पाकर बालक अदृश्य हो गया।

गंभीर नाथ के साथ उन दिनों उनके दो शिष्य निवास करते थे। एक सदा उनके निकट बना रहता और दूसरे काम जंगल से लकड़ियाँ लाना था। उसका शरीर कुछ दुर्बल था। उसने कहीं सुन रखा था कि शतावर के सेवन से कमजोरी समाप्त हो जाती है। जंगल जब जाता, तो लकड़ी के साथ-साथ वह इसके भी तलाश में रहता। जहाँ उसका पौधा दिखायी पड़ता उसके कंद को खोद निकालता और नियमित उसका सेवन करता। गंभीर नाथ उसके इस कार्य से अनभिज्ञ थे। बालक की शिकायत पर जब उन्होंने उसे बुलाकर पूछा, तब उन्हें यह ज्ञात हो सका कि वह इस प्रकार जहाँ-तहाँ गड्ढे क्यों खोदा करता है। उन्होंने उसे ऐसा करने से मना कर दिया और कमजोरी दूर करने की एक विशेष यौगिक क्रिया बता दी।

रामकृष्ण परमहंस के जीवन संबंधित भी एक इसी प्रकार का उल्लेख आता है। कहते हैं कि एक बार वे दक्षिणेश्वर में गंगातट पर बैठे थे कि उनके मन में गंगा के प्रति एक संशय पैदा हो गया। वे सोचने लगे कि गंगा का आर्ष ग्रंथों में बढ़-चढ़कर बखान किया गया है। उसे देवी की मान्यता मिली है। उसकी पूजा अर्चना की जाती है। वह यदि सचेतन है तो उसकी चैतन्यता दीखती क्यों नहीं। इतना सोचना था कि मध्य गंगा से दो मानवी हाथ ऊपर उठते दिखलाई पड़ें, कुछ ही क्षणों में एक अपूर्व नारी मूर्ति जल से बाहर आई और रामकृष्ण के सामने से होकर निकल गयी।

संत रैदास के बारे में भी एक ऐसी ही जनश्रुति है। कहा जाता है कि एक बार उनका एक मित्र गंगा स्नान के लिए जा रहा था। उसने रैदास से भी स्नान के लिए साथ चलने को कहा, तो फुरसत न होने की बात कहकर उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। मित्र चलने लगा तो उन्होंने चमड़े का एक पैसा देते हुए कहा कहा कि इसे मेरे नाम से गंगा में समर्पित कर देना। मित्र ने वैसा ही किया। स्नानादि के उपरांत पहले अपने नाम का पैसा गंगा की भेंट चढ़ाया, फिर रैदास का चमड़े का पैसा उनका नाम लेते हुए बीच प्रवाह में फेंक दिया। उसके आश्चर्य का का ठिकाना न रहा, जब देखा कि जल के भीतर से एक नारी का हाथ निकला और उसे ग्रहण कर लिया।

यहाँ तंत्रमर्मज्ञ सर्वानंद का उल्लेख न किया जाय, तो वर्णन अधूरा माना जायेगा। वे अपने जमाने के मूर्धन्य तांत्रिक थे। इस मार्ग को अपनाने से पूर्व उनकी पहचान एक बुद्धिहीन युवक के रूप में थी। उनके बड़े भाई एक छोटी रियासत में मंत्री पद पर आसीन थे। एक बार किन्हीं कारणों से उनका दरबार में उपस्थित होना संभव न हो सका। इसकी अग्रिम सूचना राजा के पास भिजवानी थी। परिवार में और कोई था नहीं। ले-देकर एक सर्वानंद ही थे। उन्हें भेजने में खतरा महसूस कर रहे थे। पर इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। अतः क्या कहना है-यह उन्हें भली-भाँति समझाया और इस बात की कड़ी हिदायत दी कि इसके अतिरिक्त और किसी से कुछ न कहना तथा तुरंत लौट आना।

राजा और दरबारियों को सर्वानंद के बौद्धिक स्तर का पहले से ज्ञान था। वह आवश्यक सूचना देने के पश्चात् लौट ही रहे थे कि उपस्थिति लोगों ने विनोदवश छेड़खानी शुरू कर दी। उनसे तरह-तरह के प्रश्न करने लगे। वे भी भाई को चेतावनी भूलकर उनसे उलझ गये। प्रश्नों का जो जवाब उनके दिमाग में आता, अपने हिसाब से देते जाते। इसी बीच किसी ने तिथि पूछ ली। वह पहले से ही घबराये हुए थे, इसी घबराहट में उन्होंने अमावस्या की जगह पूर्णिमा कह दी। दरबार में एक जगह पूर्णिमा कह दी। दरबार में एक जोरदार ठहाका लगा। राजा ने उन्हें बहुत बुरा-भला कहा और दरबार से निकलवा दिया।

अपमानित होकर जब घर पहुँचे, तो भाई ने भी खूब फटकार लगायी। पत्नी से भी उपेक्षा ही मिली। हर ओर से तिरस्कृत सर्वानंद ने आज पहली बार जीवन की वास्तविक अनुभूति हुई। जब यह जीवन उन्हें बेकार और भारभूत प्रतीत होने लगा। इसी प्रतीति के साथ उन्होंने उसे समाप्त कर डालने का निर्णय ले लिया। वे चुपचाप घर से निकल पड़े। समीप ही एक नदी बहती थी। आत्मघात के उद्देश्य से जैसे ही वे तट के नजदीक पहुँचे, उन्हें एक नारी स्वर सुनाई पड़ा-आत्महत्या पाप है। तुम पढ़ लिखकर विद्वान बनो। तुम्हें अपने अपमान का बदला लेना है। एक क्षण को वे ठिठके, इधर-उधर कोई दिखायी नहीं पड़ा तो मन का भ्रम मानते हुए नदी जल के भीतर से एक नारी उभरी और सर्वानंद के पानी में गिरते ही उसे अपने हाथों से उठा लिया तथा नदी तट पर लाकर रख दिया। सर्वानंद उठकर खड़े हो गये, पूछा-आपने मुझे बचाया क्यों। नारी ने उत्तर दिया-अभी तुम्हारा जीवन काफी शेष है। तुम्हें विद्वान और ज्ञानवान बनना है। अनेक लोगों का तुमसे कल्याण होने वाला है। तुम्हारी रक्षा की प्रेरणा भगवान ने मुझे दी है।

पहाड़, पर्वत, नदी, भूखंड यों निर्जीव जैसे दीखते और निष्प्राण माने जाते हैं, पर बात ऐसी है नहीं। तत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि इनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी सूक्ष्म सत्ताएँ हैं, जो समयानुसार प्रकट और प्रत्यक्ष हो सकती है। जिसकी सत्ता जितनी समर्थ होगी, वह उतनी ही सशक्त भूमिका निभाएगी। इसी आधार पर तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने भारत के कुण्डलिनी जाग्रत की बात कही। यह अवधारणा वस्तुतः कोई नवीन, वरन् उस प्राचीन मान्यता का ही अभिनव संस्करण है, जिसमें कहा गया है कि जप-तप पूजा-पाठ शिष्ट आचरण को स्थान देवता, ग्राम देवता, राष्ट्र देवता तुष्ट और प्रसन्न होते हैं एवं विपरीत आचरण से कुपित।

अंदर का जागरण बाहर के आचरण द्वारा प्रकट हो जाता है। कुण्डलिनी जागरण का सीधा सा तत्त्वदर्शन यह है कि हमने स्वयं का कितना और किस स्तर तक साधा,, सुधारा और शोधा है। परिमार्जन जितना प्रखर होगा, जागरण की प्रक्रिया उतनी ही दिव्य व शीघ्र होगी। यह बात व्यक्ति और राष्ट्र दोनों पर समान रूप से लागू होती है। इन दिनों जिस प्रकार की उथल-पुथल अस्थिरता और अराजकता सम्पूर्ण देश व विश्वभर में व्याप्त है एवं भ्रष्टाचार बलात्कार, हत्या, अपहरण, उग्रवाद, चोरी, डकैती का विषाक्त वातावरण बना हुआ है उसे देखते हुए यही कहना पड़ेगा कि राष्ट्र की अन्तःसत्ता की गति अधोमुखी हो चली है। उसे ऊर्ध्वमुखी बनाना वहाँ के नागरिकों का दायित्व है। यदि जल्द ही इसे सम्पन्न नहीं किया गया, तो शक्ति की पतनोन्मुखी प्रक्रिया ऐसा व्रजपात करेगी जिसे देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबाएंगे ।

इसके लिए क्या करना होगा? इसका एक ही उपाय है-प्रवृत्तियाँ का परिमार्जन और आदतों में सुधार। अन्तश्चेतना को प्रभावित करने के लिए बाह्य उपचार का ही सहारा लेना पड़ता है। राष्ट्र का मस्तिष्क नागरिक है। वह यदि विकृति हो जाय तो शक्ति का सुनियोजन और विकास का न बन पड़ेगा। अतएव राष्ट्र देवता को जगाने का मतलब उसके मस्तिष्क को-वहाँ के जनमानस को विकृति से उबार कर सृजन की सुनिश्चित राह पर चलाना है।

जड़ में जीवन है-इसका इतना ही अर्थ है कि उसमें परमचेतना का समावेश है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि रक्त माँस के प्राणियों की तरह वे भी चलने-फिरने एवं उन जैसी अन्य क्रियाएँ करने में सक्षम होंगे। ऐसा सोचना बाल-बुद्धि है। भला एक पत्थर किस भाँति चल सकेगा। हाँ यदि उसकी अन्तःसत्ता तो फिर भी जड़ ही बनी रहेगी। इसी संदर्भ में यहाँ जड़ को चेतन कहा गया है-इसे भली-भाँति समझ लेना चाहिए।


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