नवरात्रि साधना से पूर्व कुछ सावधानियाँ समझ लें

October 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आश्विन नवरात्रि के ठीक पूर्व प्रकृति का सर्वाधिक विलक्षण एवं विविधताओं वाला मौसम वर्षा ऋतु होता है। यह ऋतु अपने साथ हर्ष, उमंग और वर्षा की अनेक सुखद संभावनाएँ तो लाती ही है, पर साथ ही विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ तथा जन धन हानि जैसी परेशानियाँ भी साथ लाती है। अतिवृष्टि से जल-जंगल एक हो जाते हैं और चहुँ ओर जल प्रलय की-सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे जन-धान्य के हानि के साथ ही जनहानि भी बहुत होती है। यों तो अपने देश के कुछ भाग को छोड़कर गर्मी के मौसम में ही वर्षा आरम्भ हो जाती है और सितम्बर - अक्टूबर तक चलती है। बरसात के दिनों में घर भी सीलन भरे रहते हैं। फलस्वरूप वायु दूषित हो जाती है। वातावरण की अनियमितता के कारण गीलेपन, उमस और सीलन भरी हवा के कारण शरीर की जठराग्नि मन्द हो जाती है और पाचन संस्थान गड़बड़ा जाता है। सर्दी, जुकाम, खाँसी, मलेरिया, डेंगू फीवर एवं वात व्याधि जैसी बीमारियों का सर्वाधिक प्रकोप इन्हीं दिनों होता है। ऐसी स्थिति में रहन सहन और खान-पान में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए।

अपना देश विविधताओं का देश है। वर्ष भर में यहाँ जितनी ऋतुएँ होती हैं, विश्व के अन्य द्वीपों में उतनी नहीं होती। संवत्सर काल-विभाजन के अनुसार यहाँ छह ऋतुएँ होती हैं यथा- “ते शिशिरवसन्तग्रीष्मवर्षाशरद्धेमंताः”- अर्थात् शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा शरत, हेमन्त यही छह ऋतुएँ हैं। सुश्रुत संहिता सूत्र में उल्लेख है- इहु तु वर्षाशरद्धेमन्तवसंतग्रीष्मप्रावृषः षडृतवो भवन्ति दोषोपचयप्रकोपा्रपशमनिमित्ताम्। अर्थात् दोषों के संचय , प्रकोप और शमन के निमित्त से वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त, ग्रीष्म ओर प्रावृट ये 6 ऋतुएँ होती हैं। “भाद्रपदाश्विनौ वर्षा” सूत्र के अनुसार भाद्रपद और आश्विन ये दो महीने वर्षा ऋतु के तथा “आषाढ़श्रावणौ प्रावृडिति” के अनुसार आषाढ़ और श्रावण-ये दो मास प्रावृट ऋतु के होते हैं। आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ चरक-संहिता के अनुसार वर्षा का समय दो भागों में विभक्त किया गया है- (1) आदाएनकाल और (2) विसर्गकाल। आदानकाल में तीन ऋतुएँ आती हैं- शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म तथा विसर्ग काल के अंतर्गत वर्षा, शरद और हेमन्त ऋतुएँ। ग्रीष्म ऋतु आदानकाल की चरम सीमा होती है और इसके तुरन्त पश्चात् वर्षा ऋतु आरम्भ हो जाती है। यह विसर्गकाल की पहली ऋतु होती है। इस काल में सूर्य पृथ्वी से दूर जाने लगता है और चन्द्रमा की शक्ति में अभिवृद्धि होने लगती है। यथा- “सोमश्चव्याहबलः शिशिराभिभीरापूरयञजगदाष्याययति शश्वत अतो विसर्गः सौम्यः।” अर्थात् विसर्गकाल में चन्द्रमा पूर्ण बली रहता है। इसलिए विसर्गकाल को सौम्य कहा जाता है। इस काल की प्रथम ऋतु है- वर्षाकाल।

आयुर्वेद ग्रन्थों में आहार-विहार एवं चिकित्सकीय उपचार की दृष्टि से वर्षाकाल को दो भागों में बाँटा गया है- “प्रावृडिति प्रथमः प्रवृश्टः कालः तस्यानुबन्धो हि वर्शाः।” अर्थात् वर्षा के आरम्भिक काक को ‘प्रावृट’ और उत्तरार्द्ध कहा कहते हैं। यह अन्तर गुण दोष की दृष्टि से किये गये हैं। वर्षाकाल में जठराग्नि कमजोर पड़ जाती है और वात का वायु का प्रकोप बढ़ जाता है, यथा “वर्षास्वग्नि बले क्षीणे कुप्यन्ति पवनादयः” इसके कारण आदमी को गर्मी ज्यादा सताती है और पित्त बढ़ जाने के कारण घबराहट होने लगती है। अतः इस ऋतु में हल्के सुपाच्य भोजन के अतिरिक्त शीतल, ठण्डे एवं अम्लीय द्रव्यों का सेवन करना चाहिए तथा आहार-विहार के सभी नियमों का पालन करते हुए स्वास्थ्य की रक्षा करनी चाहिए।

वर्षा के उत्तरार्द्ध काल में अर्थात् भाद्रपद व आश्विन में वातावरण बहुत बदला हुआ रहता है। इन दिनों सर्वत्र नदी, नालों, गढ्ढों में पानी एकत्र रहता और सड़ता रहता है, जिससे मच्छर एवं अन्य अनेक प्रजाति के रोगवाहक कीड़े-मकोड़े बहुतायत में पनपते पैदा होते हैं। वर्षाकाल में संचित हुआ पित्त शरद ऋतु में कुपित होता है, जिससे कई तरह की शारीरिक व्याधियाँ पैदा होने की सम्भावना रहती है। अतः इन दिनों ऐसा आहार नहीं लेना चाहिए जो पित्त को कुपित करता हो, जैसे अधिक खट्टे पदार्थ, लाल मिर्च, गरम मसाले, बासी गरिष्ठ भोजन आदि। आहार के साथ विहार रहन-सहन का भी विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए अन्यथा मक्खी-मच्छरों के कारण हैजा, मलेरिया जैसी बीमारियाँ होने की संभावना अधिक रहती है। इस काल में धूप भी अधिक तीव्र रहती है, अतः इससे भी बचा जाना चाहिए।

वर्षाकाल में जिन व्याधियों का सर्वाधिक प्रकोप होता है, वे हैं- सर्दी, जुकाम, खाँसी, मलेरिया, डेंगू फीवर। इसके अतिरिक्त वायु प्रकोप, उदर, विकार, संधिवात, जोड़ों का दर्द, त्वचारोग, फोड़ा-फुंसी खाज-खुजली आदि रोग भी इसी संधिकाल में ज्यादा सताते हैं। इनमें से कुछ के कारण और सरल उपचार इस प्रकार हैं-

सर्दी जुकाम जब मनुष्य को हो तो वह एक प्रकार की पूर्व सूचना होती है कि शरीर में कुछ न कुछ गड़बड़ी अवश्य है और शरीर में कुछ न कुछ विजातीय द्रव्य एकत्र हो गये हैं। इस सम्बन्ध में यदि हमको इस बात का ज्ञान हो जाये कि शरीर में यह विजातीय द्रव्य कैसे एकत्र होते हैं तो सर्दी, जुकाम या किसी प्रकार की शिकायत का कारण तुरन्त समझ जाएँगे। सर्दी, जुकाम के यों तो अनेक कारण हैं परन्तु इनमें से कुछ प्रमुख हैं- अनावश्यक रूप से अधिक भोजन करना, यकायक गर्म स्थान से निकलकर ठण्डे स्थान पर जा पहुँचना, पसीने से लथपथ की स्थिति में नहाना या ठण्डी हवा लग जाना, शुद्ध वायु का न मिलना व दीर्घ साँस न लेना, ठंडी हवाओं के थपेड़े अधिक लगना आदि। इस स्थितियों में श्वास नलिका के प्रारम्भिक भग के ऊपरी हिस्से में विषाणुओं का आक्रमण शीघ्रता से होता है और वे छूत की बीमारी की तरह शरीर में घुसकर नाक और गले की म्यूकस मेम्ब्रेन श्लेष्मा झिल्ली से घिरी कमजोर कोशिका का सफाया कर देती हैं और जुकाम से पीड़ित व्यक्ति की नाक बहने लगती है। आँखें लाल पड़ जाती हैं, छींके आने लगती हैं ओर प्रायः हलका बुखार रहने लगता है। यह स्थिति प्रायः सात-आठ दिन तक बनी रहती है।

सर्दी जुकाम से बचने के लिए यह आवश्यक है कि दिनचर्या और आहार विहार संयमित रहे। इससे पहली बार तो यह बीमारी पास नहीं आएगी और आएगी तो तुरन्त ठीक हो जाएगी। इसके बावजूद भी अगर घर-परिवार में किसी को सर्दी जुकाम हो जाये तो निम्नलिखित औषधियों का क्वाथ बनाकर एक सप्ताह तक सुबह शाम सेवन कराते रहने पर वह व्यक्ति पूर्णतया स्वस्थ हो जाता है। इन्हें तीन रूपों में प्रयुक्त किया जा सकता है-

(1) वासा (अडूसा), कंटकारी भटकटैया) एवं त्रिकटु चूर्ण (सोंठ, पीपल और काली मिर्च तीनों की बराबर मात्रा लेकर कूट-पीस लेने का त्रिकटु चूर्ण बन जाता है)।

(2) हल्दी, तुलसी, भई आँवला और त्रिकटु।

(3) प्रज्ञापेय और त्रिकटु।

उक्त तीनों में से किसी एक मिश्रण का प्रयोग क्वाथ बनाने में किया जाता है। क्वाथ बनाने का सरल तरीका यह है कि सम्बन्धित पदार्थों का एक एक चम्मच मात्रा में लेकर आधा लीटर पानी में डालकर मंद आँच पर उबाला जाए और जब चौथाई पानी शेष रहे तब उसे ठण्डा करके छान लिया जाए। मीठा बनाने के लिए इसमें दो चम्मच शक्कर मिलाई जा सकती है। इस क्वाथ का सुबह, दोपहर, शाम सेवन करने पर न केवल सर्दी, जुकाम से छुटकारा मिल जाता है, वरन् पाचन शक्ति भी सुधरने लगती है। और शरीर में एकत्र विजातीय पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि इस दौरान खट्टे पदार्थ जैसे नीबू, टमाटर, संतरे, आचार, दही आदि एवं ठण्डे पेय पदार्थों का सेवन बिलकुल न किया जाए।

प्रायः सर्दी-जुकाम बुखार में सिर-दर्द बना रहता है। ऋतु प्रभाव, काम का दबाव, तनाव, अपच आदि के कारण भी लोगों को सिर-दर्द की शिकायत रहती है। सिर-दर्द वस्तुतः कोई स्वतंत्र बीमारी नहीं है, वरन् ज्ञान तन्तुओं और मस्तिष्क के बीच चल रहे सामान्य आदान-प्रदान में जब वहाँ अवरोध उत्पन्न होता है तब वहाँ दर्द अनुभव होने लगता है। चूँकि सिर समस्त नाड़ी संस्थानों का विद्युत-संवाहक केन्द्र है, अतः शरीर भर की गड़बड़ियों की शिकायतें वहाँ जमा होने लगती हैं और उस जहाँ तहाँ से एकत्र विषाक्तता का कष्ट सिर को भुगतना पड़ता है और हम सिर दर्द की शिकायत करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में दर्द-नाशक दवाएँ एवं विक्स, बाम आदि मरहम आमतौर से प्रयोग में लाए जाते हैं। इनमें सिर-दर्द व सर्दी-जुकाम नाशक मरहम सरलतापूर्वक कोई भी अपने घर पर तैयार कर सकता है। प्रथम है- बाम के समान सिर-दर्द जुकाम नाशक मरहम और दूसरा है विक्स के समान सर्दी-जुकाम नाशक मरहम। इन्हें बनाने में प्रयुक्त होने वाली सामग्री व निर्माण-विधि क्रमशः इस प्रकार हैं-

(1) सिरदर्द-जुकाम नाशक बाम सामग्री- (1) पैराफीन-100 ग्राम (2) पीपरमेण्ट-21 ग्राम (3) कपूर भीमसेनी-1 ग्राम (4) अजवायन फूल, (थाइमोल) 250 मि.ग्रा. (5) मिथाइल सेलीसिलेट 13 मि.ली., (6) तारपीन तेल आधा मि.ली.।

(2) सर्दी-जुकाम नाशक (विक्स के समान)

सामग्री- (1) पैराफीन- 100 ग्रा., (2) पीपरमेण्ट-3 ग्राम, (3) कपूर भीमसेनी-6 ग्राम, (4) अजवायन फूल-100 मि. ग्राम, (5) तारपीन का तेल-6 मि.ली (6) नीलगिरी का तेल (यूक्लिप्टस ऑयल)-2 मि.ली., (7) जायफल का तेल या लौंग का तेल- आधा मि.ली.।

उपरोक्त चीजें घर भी बनायी जा सकती हैं, शान्तिकुञ्ज में भी मार्गदर्शन लिया जा सकता है। इन्हें खरीदते समय यह अवश्य देख लेना चाहिए कि मेडिकल उपयोग वाली व उत्तम क्वालिटी की हो। मेथिल सेलिसिलेट, यूक्लिप्टस आइल (नीलगिरी तेल) आदि तेल लैबोरेटरी, केमिकल बेचने के वालों के यहाँ से प्राप्त किये जा सकते हैं। पैराफीन, तारपीन का तेल, नीलगिरी तेल ऐसा न ले जिसमें मिट्टी तेल या पेट्रोल की गंध आ रही हो। शुद्ध तेलों में तेल की तरह ही चिकनाहट रहता है।

दोनों प्रकार के मरहम बनाने की विधि एक ही है। सर्वप्रथम उपरोक्त दर्शाए अनुपात से उत्तम क्वालिटी का सफेद पैराफीन या मधुमक्खी के छत्ते का मोम लेकर किसी भी स्टील के बर्तन या कार्निंग फ्लास्क में गरम करें। तत्पश्चात् जो मरहम बनाना हो, उसकी आवश्यक चीजें नाप-तोल कर अलग रख लें। कणदार (रवेदार) चीजों को बारीक पीस लें। मेथिल सेलिसिलेट (विन्टरग्रीन), नीलगिरी तेल आदि द्रव पदार्थों की आवश्यक मात्रा काँच या प्लास्टिक की सीरींज से अलग निकाल लें। अब पिघले हुए पैराफीन में सीरींज द्वारा नाप कर रखे हुए द्रव पदार्थ तथा बारीक पीसी हुई अन्य आवश्यक चीजें मिला दें तथा उसके जमने तक चम्मच या काँच की छड़ से हिलाते रहें। जब पैराफीन जमने लगे तो बर्तन को प्राकृतिक ढंग से ठण्डा होने दें। इसे ठण्डा करने के लिए काँच के बर्तन को पानी में कदापि न रखें। जम जाने पर शीशी में भरकर रखे लें।

यह बात ध्यान रहे कि 2 से 6-7 नम्बर तक की चीजें पहले आपस में मिला लें, तत्पश्चात् उसे पिघले हुए पैराफीन में डालें। यदि अधिक मात्रा में बनाना हो तो 100 फ् 3=300 ग्राम पैराफीन और उसी अनुपात से तीन गुना अन्य सामग्री लें। यह विधि किसी भी मरहम बनाने में प्रयोग कर सकते हैं, जैसे-आयोडेक्स के समान गुण वाला दर्द-मोच कर मरहम’ मूव के समान दर्द-नाशक मरहम’, दाद-खुजली का मरहम’ या ‘ व्हाइट फील्ड’ आदि। इन तीनों में प्रयुक्त होने वाली चीजें इस प्रकार हैं-

(1) दर्द-मोच हर मरहम (आयोडेक्स के समान)

सामग्री- (1) पैराफीन- 100 ग्राम, (2) आयोडीन- साढ़े तीन ग्राम, (3) मेथिल सेलिसिलेट- जिसे विंटरग्रीन भी कहते हैं- 6 मि.ली.। पहले आयोडीन मेथिल सेलिसिलेट में घोल लें, फिर पैराफीन में मिलाए ।

(2) दर्द-नाशक मरहम (मूव के समान)

सामग्री- (1) पैराफीन- 100 ग्राम, (2) पिपरमिंट-6 ग्राम (3) विन्टरग्रीन- 19 मि. ली., (4) तारपीन का तेल- 3 मि.ली., (5) नीलगिरी का तेल- 2 मि. ली.। यदि दर्दनाशक मरहम को अधिक स्ट्रांग बनाना हो तो मिथाइल सेलीसिलेट की मात्रा बढ़ाकर 20 मि. ली. एवं पिपरमिंट की मात्रा 10 ग्राम तक कर सकते हैं।

(2) दाद-खुजली का मरहम या व्हाइट फील्ड

सामग्री- (1) एसिटल सेलिसिलिक एसिड-3 ग्राम, (2) बेन्जोइक एसिड-6 ग्राम, (3) पैराफीन- 100 ग्राम ।

इसे यदि और भी अच्छा और प्रभावी बनाना हो तो, निम्न चीजें और मिला सकते हैं- एक ग्राम पैराफीन में एक गोली वेटनीसॉल या वेटनीलॉन अर्थात् 100 ग्राम पैराफीन में 100 गोली। इसके साथ ही क्रेनडिडया (क्लीट्रीमी जोल) गोली-1 ग्राम पैराफीन में 10 मि. ग्राम अर्थात् 100 ग्राम पैराफीन में 100 मि. ग्रा. वाली 100 गोलियाँ। पहले इसे बारीक पीस लिया जाता है, तत्पश्चात् पिघले हुए पैराफीन में मिलाया जाता है।

वर्षा ऋतु में सर्दी-जुकाम के बाद जिस बीमारी से बहुसंख्यक लोग त्रस्त देखे जाते हैं वह है मलेरिया। यह प्लाज्मोडियम वाईवेक्स, प्लाज्मोडियम मेलेरी, प्लाज्मोडियम फेलसीपेरम नामक परोपजीवी जीवाणुओं द्वारा होता है, जिसके वाहक होते हैं क्यूलेक्स एनिफिलीज मादा मच्छर। मच्छर और मलेरिया ने विश्व में मानवजाति के इतिहास में आज तक जितनी जानें ली हैं शायद उतनी मौतें युद्ध और प्राकृतिक विभीषिकाओं से भी नहीं हुई होंगी। मच्छरों को कीटनाशक दवाओं द्वारा मारने के जितने भी प्रयोग और प्रयत्न किये जाते हैं, उनकी प्रजातियाँ उतनी ही अधिक इन दवाओं के प्रति प्रतिरोधी बनती जाती हैं। इसी तरह उनके द्वारा फैलने वाली बीमारियों के जीवाणु-विषाणु भी विभिन्न प्रकार की एलोपैथिक औषधियों एवं एण्टीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित करते हुए देखे जाते हैं, ऐसा अनुसंधानरत-चिकित्साविज्ञानियों का निष्कर्ष है। यही कारण है कि मच्छरों द्वारा फैलने वाले मलेरिया के अतिरिक्त डेंगू, फीवर, येलोफीवर, (पीतज्वर), ऐसेफेलाइटिस (दिमागी बुखार), फाइलेरिया जैसी घातक बीमारियाँ तीव्रगति से फैलती जा रहीं हैं। चूँकि ये रोग मच्छरों के काटने से फैलते हैं अतः पहला उपचार मच्छरों से बचाने का करना चाहिए।

मच्छर काटने पर जो ज्वर होता है, आयुर्वेद-शास्त्रों में उसे ‘विषम ज्वर’ (मलेरिया) कहा जाता है। इस संदर्भ में आयुर्वेद ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। भावप्रकाश के शुभारम्भ में ही ग्रन्थकार ने मलेरिया-विषम ज्वर को सब बीमारियाँ का ‘राजा’ बताते हुए कहा है-

‘यतः समस्तरोगाणाँज्वरो राजेति विश्रुतः।”

अर्थात् सम्पूर्ण रोगों में ज्वर को सभी आयुर्विज्ञ ऋषियों ने राजा बताया है। इन ग्रन्थों में मलेरिया के पाँच प्रकार बताये गये हैं, जो लगातार कई-कई दिनों तक भी रहते हैं ओर एक-दो-तीन दिनों के अंतर में भी आते हैं। एलोपैथी चिकित्सा में परीक्षणोपरान्त इनके उपचार के लिए क्लोरोक्विन, प्राइमाक्विन, क्वीनाइन, मफ्लोक्विन और हैलाफेंट्रइन जैसी औषधियाँ प्रयुक्त की जाती है। इनमें से तो कई बहुत महँगी हैं और कुछ एक अपने देश में उपलब्ध भी नहीं हैं। ऐसी स्थिति में आयुर्वेदिक औषधियों का जड़ी-बूटियों का सेवन हानि-रहित भी है, सस्ता और सरल भी। सहज उपलब्धता के कारण वे सब जगी मिल जाती हैं, विशेषकर देहातों और पर्वतीय क्षेत्रों में, जहाँ इनकी भरमार है। इनके सेवन से सभी प्रकार के विषम ज्वरों से छुटकारा पाया और स्वास्थ्य-रक्षा की जा सकती है। कुछ परीक्षित एवं सफल प्रयोग इस प्रकार हैं-

(1) ठण्ड लगकर सर्दी-जुकाम सहित बुखार हो तो निम्न वनौषधियों का क्वाथ बनाकर रोग-पीड़ित व्यक्ति को सुबह-शाम देते रहने पर बुखार उतर जाता है-

वसा (अडूसा), कंटकारी (भटकटैया), त्रिकटु ( सोंठ, पीपल, कालीमिर्च समान मात्रा में पीसकर), गिलोय, शरपुंखा, कालमेघ, सप्तपर्णी तुलसी और हल्दी।

(2) मलेरिया बुखार विशेषकर जब लम्बे समय तक बुखार रहने के कारण लीवर यकृत और स्प्लीन (तिल्ली) बढ़े हो तो निम्नलिखित जड़ी-बूटियों का काढ़ा (क्वाथ) बनाकर रोगी को सुबह-शाम पिलाये ।

चिरायता, कालमेघ, गिलोय, आर्टीमीसिया एनुआ, कुटकी, भुई आँवला, सप्तपर्णी, शरपुंखा सभी की एक-एक चम्मच मात्रा में लेकर क्वाथ बनाकर प्रयुक्त करें।

(3) डेंगू फीवर में- चिरायता, कालमेघ, गिलोय, आर्टीमीसिया एनुआ, कटु, पटोल पत्र कुटकी, सप्तपर्णी, कसौंदी, खदिर, सारिवा, शतावर, अश्वगंधा, कंटकारी इन सभी 15 औषधियों का जौकुट चूर्ण सम मात्रा में लेकर क्वाथ बनाकर पीने से डेंगू ज्वर से पीड़ित व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है। इसका सेवन कम से कम 10-15 दिन तक सुबह-शाम अवश्य किया जाये। यह उपचार हानि रहित भी है और सर्वसुलभ व लाभदायक भी।

उपरोक्त सभी वनौषधियाँ पंसारियों की दुकानों, आयुर्वेदिक फार्मेसियों, गायत्री शक्तिपीठों तथा शान्तिकुञ्ज से प्राप्त की जा सकती है। क्वाथ बनाने की सरल विधि यह है कि सम्बन्धित जड़ी-बूटियों का जौकुट चूर्ण समान मात्रा में ( एक-एक चम्मच ) लेकर उसे एक लीटर पानी में किसी स्टील के भगोने या बर्तन में शाम को भिगो दिया जाए। सुबह उसे मन्द आँच पर उबलने दे और पानी चौथाई रह जाये तब उसे उतार कर ठण्डा कर लें और कपड़े से छान लें। इस क्वाथ की दो मात्रा बनाकर एक सुबह और दूसरी शाम को रोगी को कम से कम एक सप्ताह तक पिलानी चाहिए। इससे मलेरिया और डेंगू ज्वर तथा उनसे विषाक्तता समाप्त हो जाती है और पीड़ित व्यक्ति धीरे धीरे पूर्णतया स्वस्थ हो जाता है।

ऊपर की पंक्तियों में वर्षा वर्षा ऋतु और शीत की संधिवेला में उपजने वाली कुछ बीमारियों का सरलतम किन्तु प्रामाणिक व परीक्षित उपचार बताया गया है ताकि नवरात्रि साधना ठीक से की जा सके। अगले अंकों में क्रमशः इसी तरह से ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान-शान्तिकुञ्ज में चल रहे वनौषधि अनुसंधानों से परिजनों को परिचित कराते रहने का प्रयत्न जारी रहेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118